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भुला दिये गये जनकवि अदम गोंडवी

वे कहते थे कि जनता को बेचारगी के हवाले कर उसके हाल पर छोड़ दिया गया है. वह बेहद अपमानजनक स्थितियों में जी रही है. जो भी इस जनता के साथ रहेगा, उसको अपमान झेलना पड़ेगा.

आज अदम गोंडवी की जयंती है. उनके वक्त की हिंदी की जनपक्षधर कविता में शायद ही कोई सानी रहा हो. समय के साथ उनकी कई गजलें कई जनांदोलनों की सहचर भी बनीं. उनको इस संसार से गये अभी मुश्किल से एक ही दशक बीता है और हिंदी काव्य-संसार ने उन्हें इस तरह भुला दिया है जैसे उसकी उनसे कभी कोई जान-पहचान ही न रही हो. लगता है अपनी विरासतों व प्रतिभाओं का विस्मरण अब उसकी प्रवृत्ति में शामिल हो चुका है. अन्यथा अदम न सही, अदम द्वारा अपनी शायरी में उसके पक्ष में पूछे जाने वाले सवाल तो उसे याद ही रहते.

वर्ष 1947 में 22 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के गजराजसिंह पुरवा में जन्मे अदम गोंडवी ने 2011 की 18 दिसंबर को दुनिया को अलविदा कहा. इससे पहले उन्होंने आर्थिक तंगी के साथ लंबी बीमारी का त्रास भी झेला. उनका वास्तविक नाम रामनाथ सिंह था. अपनी पहली रचना ‘चमारों की गली’ छपकर आते ही वे हिंदी के समकालीन काव्य संसार में चारों ओर छा गये. फिर तो अपनी गजलों की मार्फत साहित्य को मुफलिसों की अंजुमन, बेवा के माथे की शिकन, रहबरों के आचरण और रोशनी के बांकपन तक ले चलने का आह्वान करते देशभर में घूमते रहे. लेकिन साठ साल का होते-होते उन्हें कई बीमारियों व अभावों ने घेर लिया और वे अपने गांव गजराजसिंह पुरवा में ही दिन काटने लगे. फिर भी स्वाभिमान को बचाये रखा.

अपने निधन से कुछ महीने पहले ही उन्होंने एक मुलाकात में बताया कि ‘मैं पैदा हुआ, तो देश में नयी-नयी आयी आजादी का उल्लास था. होश संभाला तो पाया कि इस उल्लास का कोई मतलब ही नहीं था. क्योंकि शोषण और अत्याचार तो खत्म ही नहीं हो रहे थे. कम से कम जिस ग्रामीण परिवेश का मैं हिस्सा था और जीवन भर रहा, वहां तो आज भी बदहाली ही राज करती आ रही है.’ वे स्कूल गये तो इसी बदहाली के कारण ज्यादा औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाये. प्राइमरी शिक्षा के दौरान ही उन्होंने यशपाल, प्रेमचंद और रांगेय राघव जैसे रचनाकारों को पढ़ डाला था. बाद में वे ‘मेरा दागिस्तान’ और ‘रामचरितमानस’ से भी बहुत प्रभावित हुए. जब भी वे इन रचनाकारों को पढ़ते, उनके दिलो-दिमाग में कई सवाल कुलबुलाने लगते. बाद में उन्होंने इन्हीं सवालों को अपने पाठकों व श्रोताओं से पूछना शुरू कर दिया. मसलन, ‘सौ में सत्तर आदमी जब देश में नाशाद है, दिल पर रखकर हाथ कहिये देश ये आजाद है?’

दुष्यंत जब गजलों की बेड़ियां तोड़ उसे नयी जमीन पर ले आये और उसको बदलाव का औजार बनाया, तो अदम ने उन्हीं की परंपरा में ‘कुछ अलग’ करके अपनी अलग जगह बनायी. उनकी मान्यता थी कि समाज और सृजन का एक-दूसरे से अन्योन्याश्रय संबंध है, इसलिए दोनों का एक-दूसरे पर असर होता है. अच्छा सृजन सामाजिक संघर्षों व आंदोलनों से ही निकलकर आ सकता है. हां, अच्छे सृजन के लिए उपयुक्त समाज बनाने की जिम्मेदारी भी सर्जना करने वाले की ही है. इस जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना अपनी प्रतिबद्धताओं से विचलित होना है.

अपने आखिरी दिनों में प्रतिबद्ध रचनाकारों के लिए स्थितियों के बेहद दारुण और अपमानजनक होती जाने के लिए वे पथ से विचलित रचनाकारों को ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराते थे. उनका कहना था, ‘विचलित रचनाकार समझौते करके ‘सफल’ हुए जा रहे हैं और जिन रचनाकारों ने ऐसे समझौतों से परहेज किया है, उनके सामने आज भी कटोरा लेकर घूमने की स्थिति है. अर्थशास्त्र का वह नियम यहां भी लागू हो रहा है कि खोटे सिक्के खरे सिक्कों को प्रचलन से बाहर कर देते हैं. सो, खोटों के सिक्के चल रहे हैं.’ वे कहते थे कि जनता को तो बेचारगी के हवाले कर उसके हाल पर छोड़ दिया गया है. वह बेहद अपमानजनक स्थितियों में जी रही है. जो भी इस जनता के साथ रहेगा, उसको तब तक अपमान झेलना पड़ेगा, जब तक जनता की मुक्ति नहीं हो जाती.

मध्य प्रदेश सरकार ने 1998 में उनको पहला दुष्यंत कुमार पुरस्कार दिया, तो भी उन्होंने कहना जरूरी समझा था कि वे पुरस्कारों को ज्यादा अहमियत नहीं देते, क्योंकि किसी रचनाकार का असली सम्मान तो उसकी रचनाओं को अपनी जनता द्वारा स्वीकार किया जाना है. उनके जीते जी यह असली सम्मान भी उनके हिस्से में खूब आया. लेकिन कवि के तौर पर उनकी एकमात्र आकांक्षा, जो उनका एकमात्र सपना भी थी, उनके हमारे बीच से चले जाने के बाद भी पूरी नहीं हो पायी है. इस आकांक्षा को अपनी एक गजल में वे इस प्रकार बता गये हैं, ‘एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें, झोंपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार हो.’

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