वर्ष 1902 में 23 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के नूरपूर गांव में जन्मे और 29 मई, 1987 को नयी दिल्ली में अंतिम सांस लेने वाले तपे-तपाये किसान नेता चौधरी चरण सिंह 28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक देश के प्रधानमंत्री रहे. इस पद तक पहुंचने के लिए वे जिस तरह केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में बनी जनता पार्टी की पहली गैरकांग्रेसी सरकार के दुश्मन बने. वे जिस कांग्रेस के खिलाफ चुने गये थे, उसी के समर्थन से उन्होंने सरकार बनायी. इस बात को लेकर की जानेवाली आलोचनाओं ने उनके निधन के बाद भी उनका पीछा नहीं ही छोड़ा है.
भले ही उनके समर्थक यह कहकर उनका बचाव करते हैं कि वे प्रधानमंत्री पद के लोलुप होते तो मोरारजी सरकार द्वारा श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ करायी जा रही इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच रोककर कांग्रेस को उसके ‘बिना शर्त’ समर्थन की कीमत दे देते और अपनी सरकार की उम्र लंबी कर लेते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया था.
जो भी हो, लेकिन देश के राजनीतिक हलकों में उनकी अनूठी राजनीतिक नैतिकताओं के किस्से आज भी दंतकथाओं की तरह कहे और सुने जाते हैं. तब भी, जब देश में किसान आंदोलनों का भी बुरा हाल है और किसानों के नेताओं का भी.
वर्ष 1980 के चुनाव का एक किस्सा यों है कि वे उत्तर प्रदेश के महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र के सिसवां में अपनी पार्टी के प्रत्याशी की सभा में जा रहे थे, तो एक अन्य सीट के प्रत्याशी ने बिना उन्हें विश्वास में लिये इस उम्मीद के सहारे रास्ते में पड़ने वाले दूसरे स्थान पर मतदाताओं की भीड़ जुटा रखी थी कि स्वागत करने के बहाने उन्हें रोक लेगा. फिर सभा को संबोधित करने को कहेगा तो वे इनकार भी भला कैसे करेंगे?
लेकिन, चौधरी ने उससे साफ कह दिया कि वे पार्टी द्वारा निर्धारित सभा को ही संबोधित करेंगे. प्रत्याशी ने कहा कि उसने उनके आने का प्रचार करके ही लोगों को इकट्ठा किया है, तो उन्होंने लोगों के बीच जाकर दो टूक कह दिया, ‘इस प्रत्याशी ने मेरे आने का झूठा प्रचार करके आप लोगों को यहां बुला रखा है. इसको वोट देंगे तो आगे ऐसे और धोखे करेगा. आगाह किये दे रहा हूं, फिर न कहियेगा कि मैंने बताया क्यों नहीं था.’
एक और किस्सा फिरोजाबाद का है. चौधरी वहां अपने प्रत्याशी के पक्ष में भाषण करके सभा मंच से उतरे ही थे कि किसी ने उनको एक पर्चा पकड़ाया. पर्चे में उनके प्रत्याशी का ‘जीवन चरित’ छपा था- उसके आपराधिक इतिहास का कच्चा चिट्ठा. उन्होंने कुछ पल पर्चा पढ़ने में लगाया और दोबारा मंच पर जा पहुंचे. मतदाताओं से कहा कि अभी-अभी उन्हें एक पर्चा दिया गया है. आप लोगों को भी मिला होगा. पर्चे में लिखी बातें सही हैं, तो आप लोग इस प्रत्याशी को कतई वोट न दें. चाहे इसके प्रतिद्वंद्वी को दे दें. हमने इसको टिकट देने में जो गलती की है, वह गलती आप भूलकर भी न करें. कहते हैं कि यह सुनकर उनका प्रत्याशी गश खाकर गिर पड़ा. नतीजा आने पर तो उसको ढेर होना ही था.
एक और किस्से के अनुसार कई सभाओं को संबोधित करने के बाद वे फैजाबाद स्थित सर्किट हाउस में विश्राम कर रहे थे. पार्टी के दो वरिष्ठ नेता रामवचन यादव और महादेव प्रसाद वर्मा उनके पास बैठे थे. बातों का सिलसिला चला तो होते-होते परिवारों के आकार पर आ टिका. चौधरी ने कहा कि वे खुद भी छोटे परिवारों यानी बेटे-बेटियों की संख्या सीमित रखने के पक्ष में हैं. दोनों नेताओं ने एक स्वर में कहा, ‘भगवान के लिए किसी चुनाव सभा में यह बात मुंह से मत निकालियेगा, वरना जबरिया नसबंदी के लिए बदनाम इंदिरा गांधी उसे लपककर राजनीतिक लाभ ले लेंगी.’
चौधरी ने पूछा कि क्या उनके लिए इंदिरा गांधी के डर से अपनी सोच के खिलाफ जाना ठीक होगा? क्या इससे वे अपनी ही निगाह में नहीं गिर जायेंगे? दोनों नेताओं को कोई जवाब नहीं सूझा.