गणेशशंकर विद्यार्थी : कृतित्व व शहादत दोनों अनमोल
आज की तारीख में हम स्वतंत्रता आंदोलन के जिन शहीदों की ओर सबसे ज्यादा उम्मीद से देख सकते हैं, उनमें गणेशशंकर विद्यार्थी का नाम बेहद खास है. सिर्फ इसलिए नहीं कि वे ‘आजादी की लड़ाई का मुखपत्र’ कहलाने वाले पत्र ‘प्रताप’ के संस्थापक-संपादक थे
आज की तारीख में हम स्वतंत्रता आंदोलन के जिन शहीदों की ओर सबसे ज्यादा उम्मीद से देख सकते हैं, उनमें गणेशशंकर विद्यार्थी का नाम बेहद खास है. सिर्फ इसलिए नहीं कि वे ‘आजादी की लड़ाई का मुखपत्र’ कहलाने वाले पत्र ‘प्रताप’ के संस्थापक-संपादक थे. इसलिए भी कि मार्च, 1931 में कानपुर में हुए दंगे में निर्बल व निर्दोष नागरिकों को बचाते हुए उन्होंने दंगाइयों के हाथों अपनी जान गंवा दी थी.
दंगे की त्रासदी इतनी विकट थी कि विद्यार्थी का निष्प्राण शरीर कई दिनों तक अस्पताल में पड़ा रहा. जाति और धर्म के भेद से परे, वचन, लेखनी और कर्म की एकता को अलंकृत करने वाली उनकी इस शहादत ने न सिर्फ कानपुर के निवासियों, बल्कि दंगाइयों तक को ग्लानिग्रस्त करके रख दिया था.
विद्यार्थी का जन्म 26 अक्तूबर, 1890 को इलाहाबाद में हुआ था. उनके पिता मुंशी जयनारायण फतेहपुर जिले में हथगांव के निवासी थे और ग्वालियर रियासत के एक स्कूल में हेडमास्टर पद पर नियुक्त थे. विद्यार्थी का बाल्यकाल उनके गांव में ही बीता और वहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी हुई. वर्ष 1905 में उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की.
वर्ष 1907 में कानपुर से एंट्रेंस पास करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला में नाम लिखाया, जहां उन्हें प्रख्यात लेखक सुंदरलाल के साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ में काम का अवसर हाथ लगा. इस तरह उनके पत्रकारिता जीवन की शुरुआत हुई. इस बीच छोटी-मोटी नौकरियां करते वे ‘स्वराज्य’ तथा ‘हितवार्ता’ जैसे जाने-माने पत्रों में भी लिखने लगे. वर्ष 1911 में वे पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादकत्व में लब्धप्रतिष्ठ पत्रिका ‘सरस्वती’ से जुड़े.
इसमें ‘आत्मोत्सर्ग’ शीर्षक से उनका पहला बहुचर्चित लेख प्रकाशित हुआ. इससे पहले मात्र 16 वर्ष की उम्र में वे ‘हमारी आत्मोत्सर्गता’ शीर्षक से पुस्तक लिख चुके थे. ‘सरस्वती’ में थोड़े दिन काम करने के बाद वे मदनमोहन मालवीय के साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ में चले गये. ‘सरस्वती’ की तरह उनकी ‘अभ्युदय’ की पारी भी लंबी नहीं हो पायी.
नौ नवंबर, 1913 को उन्होंने कानपुर से अपना खुद का पत्र ‘प्रताप’ निकाला, जो जल्द ही देश की जनता पर अंग्रेजों व देसी रियासतों के अत्याचारों के विरुद्ध तीखे क्रांतिकारी विचारों का संवाहक बन गया. फिर तो वे सरदार भगत सिंह समेत अनेक क्रांतिकारी विभूतियों को उससे जोड़ने में सफल रहे और उसमें क्रांतिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की आत्मकथा भी छापी.
अंग्रेजों की दासता के खिलाफ निर्भीक टिप्पणियों व अग्रलेखों के चलते वे पांच बार जेल गये. गोरी सरकार द्वारा बारंबार उत्पीड़न और दमन के बावजूद ‘प्रताप’ के पाठक उसमें प्रकाशित उनके विचारों से प्रभावित हो रहे थे और पत्र के रूप में वह जन चेतना के विकास में सहायक हो रहा था. वर्ष 1920 में विद्यार्थी ने उसे दैनिक कर दिया और ‘प्रभा’ नाम की एक पत्रिका भी निकाली.
मालवीय जी के ‘अभ्युदय’ की ही तरह ‘प्रताप’ भी किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र था. सात जनवरी, 1921 को रायबरेली के मुंशीगंज में अंग्रेजों ने किसानों पर गोलीबारी कराकर उनके आंदोलन को कुचलने की निर्मम कोशिश की, तो विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ में बेबाक अग्रलेख लिखकर सबसे पहले उसे ‘एक और जलियांवाला कांड’ की संज्ञा दी थी. उन्होंने लिखा था, ‘वहां (जलियांवाला में) एक घिरा हुआ बाग था, जबकि यहां (रायबरेली में) सई नदी का किनारा और क्रूरता, निर्दयता और पशुता की मात्रा में किसी प्रकार की कमी नहीं थी.’ उन्होंने मुकदमे और जमानत जब्ती के साथ लंबी सजा झेलकर भी कोई समझौता नहीं किया.
‘प्रताप’ के संपादन कर्म ने विद्यार्थी को तो बड़ा पत्रकार बनाया ही, कितने ही नवयुवकों को पत्रकार, लेखक और कवि बनने की प्रेरणा तथा प्रशिक्षण मिला. पत्रकारों व साहित्यकारों की नयी पीढ़ी ने उससे रिपोर्टिंग व लेखन को रुचिकर और भाषा को सरल बनाना सीखा. विद्यार्थी पत्रकारिता को स्वतंत्रता संघर्ष का सबसे धारदार हथियार मानते थे.
लोकमान्य तिलक उनके राजनीतिक गुरु थे और स्वतंत्रता संघर्ष में हिंसा-अहिंसा के द्वंद्व से उनका दूर का भी रिश्ता नहीं था. वे प्रायः कहा करते थे कि लड़ाई के साधन देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार चुने जाते हैं. यही कारण था कि उन्होंने ‘प्रताप’ में आजादी के दीवानों की क्रांतिकारी व अहिंसक दोनों धाराओं को एक जैसा मान व दुलार दिया और कोरे पत्रकार बनने की बजाय मैदानी स्वतंत्रता संघर्ष और राजनीति में भी हिस्सेदारी की.
श्रीमती एनी बेसेंट के ‘होमरूल’ आंदोलन में तो उन्होंने बहुत लगन से काम किया ही, अपनी दुर्धर्ष संघर्षशीलता व विश्वसनीयता के चलते जल्द ही कानपुर के मजदूर वर्ग के एकछत्र नेता बन गये. उन दिनों उन्हें उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) के चोटी के कांग्रेस नेताओं में गिना जाता था. वर्ष 1925 में वे कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की स्वागत समिति के प्रधानमंत्री बने तथा 1930 में प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष. इसी नाते 1930 के सत्याग्रह आंदोलन में गांधी जी ने उत्तर प्रदेश की कमान उनके हाथ में दी थी.