उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के सिलसिले में इन दिनों न्यूज चैनलों और अखबारों में ओपिनियन पोल की भरमार है, लेकिन न सिर्फ उनकी विश्वसनीयता को लेकर गंभीर प्रश्न हैं, बल्कि उनके निष्कर्षों के पीछे प्रायोजक संस्थाओं के राजनीतिक और व्यावसायिक स्वार्थ भी तलाशे जा रहे हैं. इसीलिए, कई पार्टियों द्वारा मतदाताओं से सावधान रहने को कहा जा रहा है.
वे कहते हैं कि ओपिनियन पोल में न तो कोई वैज्ञानिक पद्धति इस्तेमाल की गयी है और न राजनीति शास्त्र के मर्मज्ञों द्वारा उसे विश्लेषित किया गया है. समाजवादी पार्टी ने तो इसे ‘ओपियम पोल’ तक कह दिया है.
ओपिनियन पोल को शुरू में चुनाव सर्वेक्षण या जनमत सर्वेक्षण कहा जाता था. सबसे पहले अमेरिका में जाॅर्ज गैलप द्वारा इसे शुरू किया गया था. उन्हें चुनाव सर्वेक्षणों का अन्वेषक भी कहा जाता है. उन्होंने जनमत मापन के लिए सैंपलिंग की जो प्रविधि अपनायी और सांख्यिकीय विश्लेषण किया, उसे उनके नाम पर ही ‘गैलप पोल’ कहा जाता है. अपने विरोधियों से गैलप प्रायः एक ही सवाल पूछते थे कि किसी मतदाता को यह पता क्यों नहीं होना चाहिए कि दूसरे मतदाताओं की इच्छा क्या है?
उनके सर्वेक्षणों के नतीजे सटीक हुआ करते थे. बीसवीं शताब्दी के अंत तक एक अपवाद को छोड़कर उनकी सभी चुनावी भविष्यवाणियां सही सिद्ध हुईं, लेकिन अब उनके देश में भी ओपिनियन पोल में की गयी भविष्यवाणी गलत साबित हो रही है. राजनीति विज्ञानी डाॅ रामबहादुर वर्मा बताते हैं कि जाॅर्ज गैलप के अवसान के थोड़े ही दिनों बाद ज्यादातर अमेरिकी न्यूज चैनलों और अखबारों ने प्रत्याशियों व पार्टियों की हार-जीत की भविष्यवाणी को अपना धंधा बना लिया.
हालांकि, डाॅ वर्मा मानते हैं कि अमेरिकी मीडिया की हालत अब भी भारतीय मीडिया से बेहतर है. भारत में चुनाव नतीजों के पूर्वानुमान का सिलसिला 1952 के पहले आम चुनाव से ही शुरू हो गया था. इसका श्रेय डी कोस्टा को दिया जाता है. उनके पूर्वानुमान आज के ओपिनियन पोलों से भिन्न थे. उनमें गुणक पद्धति का ज्यादा प्रयोग किया जाता था.
डाॅ वर्मा के अनुसार, देश में वैज्ञानिक तरीके से चुनाव परिणामों के पूर्वानुमान का काम सबसे पहले सामाजिक विकास अध्ययन संस्थान (सीएसडीएस) ने आरंभ किया. डाॅ वर्मा बताते हैं कि उदारीकरण की दस्तक के बाद सब-कुछ बदल गया. चुनाव सर्वेक्षणों का इस्तेमाल निजी न्यूज चैनल अपनी टीआरपी और अखबार अपनी प्रसार संख्या के लिए करने लगे हैं.
उन्हें जनता की उत्सुकता के साथ छल की सीमा तक जाने से भी परहेज नहीं रहा. कंपनियों के उत्पादों के लिए सर्वेक्षण करने की अभ्यस्त एजेंसियों द्वारा आज चुनाव सर्वेक्षण भी कराया जाता है. आमतौर उन्हें चुनाव सर्वेक्षणों का कोई अनुभव नहीं होता. ऐसे में कॉरपोरेट जगत को सहूलियत हो गयी है कि वह इन एजेंसियों का इस्तेमाल उन राजनीतिक दलों या नेताओं के पक्ष में करे, जो सत्ता में आने पर उसे अधिकतम लाभ दिला सकते हों.
इन एजेंसियों के चुनावी सर्वेक्षण न तो वैज्ञानिक हो पाते हैं और न यथार्थ के करीब. साल 2017 के विधानसभा चुनाव में ज्यादातर सर्वेक्षणों में त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी की गयी थी, परंतु भाजपा को तीन चौथाई से अधिक सीटें मिलीं. पश्चिम बंगाल के गत विधानसभा चुनाव में भी अधिकांश चुनावी सर्वेक्षण गलत निकले.
सवाल है कि ओपिनियन पोल, यहां तक कि एग्जिट पोल भी औंधे मुंह क्यों गिरने लगे हैं? प्रेस कौंसिल आॅफ इंडिया के पूर्व सदस्य शीतला सिंह की मानें, तो अब ओपिनियन पोल मतदाताओं का ओपिनियन जानने के लिए नहीं, बल्कि ओपिनियन बनाने के इरादे से कराये जाते हैं. इनका उद्देश्य वस्तुगत स्थिति के बजाय करोड़ों का विज्ञापन देनेवाली सरकार के पक्ष में उन्हें मोड़ना होता है.
सर्वेक्षणों के नतीजे केंद्र में सत्तारूढ़ दल के पक्ष में होते हैं. सबका रुझान एक ही ओर होता है, जबकि पहले उनमें भिन्नताएं होती थीं. सच तो यह है कि पक्षपातपूर्ण चुनावी सर्वेक्षण और पूर्वानुमान स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों के लिए धनबल व भुजबल जितना ही घातक है.
सामाजिक कार्यकर्ता खालिक अहमद खां कहते हैं कि इन ओपिनियन पोलों को गंभीरता से लेने की बजाय मजाक के तौर पर लेना चाहिए, क्योंकि सूचना क्रांति के इस दौर में मतदाता भी समझते हैं कि कौन से न्यूज चैनल या अखबार उन्हें गुमराह कर रहे हैं. चैनल चुनाव की अधिसूचना जारी होने के पूर्व ही बताने लग जाते हैं कि अगर उस वक्त चुनाव हो जाएं, तो किस दल को कितने प्रतिशत वोट मिलेंगे और मुख्यमंत्री पद के लिए मतदाताओं की पहली पसंद कौन है?
क्यों वे एक ओर कहते हैं कि उनके निष्कर्ष एक निश्चित प्रतिशत तक गलत हो सकते हैं और दूसरी ओर दशमलव के बाद तक के अपने अनुमानों को निश्चयात्मक बताते हैं. पत्रकार प्रमोद जोशी के मुताबिक, भले ही इन ओपिनियन पोलों पर कम लोगों को ही यकीन हो, पर वे चर्चा का विषय बन जाते हैं. हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि सर्वेक्षण के लिए सही सांचा ही तैयार नहीं हो पाता है.
सर्वेक्षकों की विश्वसनीयता में सामान्य वोटर की दिलचस्पी दिखाई नहीं देतीऔर न उसे पेश करनेवाले मीडिया हाउसों को उसे लेकर फिक्र दिखाई पड़ती है. यह एक व्यावसायिक कर्म है, जो चैनल या अखबार को दर्शक और पाठक मुहैया कराता है. सर्वेक्षक अपनी अध्ययन पद्धति को ठीक से घोषित नहीं करते और किसी के पास समय नहीं होता कि उनकी टेब्युलेशन शीट्स को जांचा जाए. यह बात आज के संदर्भ में भी सच्ची लगती है.