‘हार की जीत’ वाले सुदर्शन!

अपने समय के दूसरे सुधारवादी सर्जकों की तरह सुदर्शन के लेखन का लक्ष्य भी समाज व राष्ट्र का पुनर्निर्माण था.

By कृष्ण प्रताप | December 16, 2021 10:47 AM
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तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर, जाग जरा! पढ़कर कुछ याद आया आपको? नहीं? कोई बात नहीं. कोई गीत अपने रचयिता को एकदम से बिसरा दिये जाने के बावजूद आम लोगों की जेहन में इस तरह ताजा बना रहे, तो इसमें भी रचयिता की हार नहीं जीत ही होती है.

इस गीत के रचनाकार सुदर्शन की एक कहानी का नाम भी हार-जीत से जुड़ा है-‘हार की जीत.’ हां-हां, वही बाबा भारती, उनके घोड़े सुल्तान और डाकू खड़ग सिंह वाली. जिसमें बाबा के जान से भी प्यारे सुल्तान को उनसे छीन लेने की फिराक में अपाहिज का भेष धरकर रास्ते में बैठा डाकू खड़ग सिंह छल से अपने मकसद में कामयाब हो जाता है. तब बाबा उससे कहते हैं- ‘घोड़ा ले जाओ. मगर मेरी एक प्रार्थना सुनते जाओ.

किसी से कहना नहीं कि तुमने इस तरह मुझसे मेरा घोड़ा छीना. वर्ना लोग दीन-दुखियों व अशक्तों पर भरोसा करना छोड़ देंगे.’ जीत के नशे में खड़ग सिंह उस वक्त तो उन्हें कोई उत्तर दिये बिना चला जाता है, लेकिन बाद में, अकेले में बाबा भारती के कहे पर विचार करते-करते आत्मग्लानि बर्दाश्त से बाहर हो जाती है, तो रात के अंधेरे में सुल्तान को चुपके से बाबा के उसी अस्तबल में बांध जाता है, जहां बाबा ने सुल्तान को पहली बार उसे दिखाया था.

बुरे से बुरे व्यक्ति के भीतर भी भलाई के तत्वों की मौजूदगी और जीत के अदम्य व अटूट विश्वास से भरी सुदर्शन की इस कालजयी कहानी को इसमें समाहित अनूठे आदर्शवाद के लिए अलग से रेखांकित किया जाता है. गौरतलब है कि ‘हार की जीत’ सुदर्शन की पहली ही कहानी थी, जो 1920 में अपने समय की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका ‘सरस्वती’ में छपी. सुदर्शन ने इसके अलावा ‘अंधकार’, ‘गुरुमंत्र’, ‘दिल्ली का अंतिम दीपक’, ‘परिवर्तन’, ‘राजा’, ‘सच का सौदा’, ‘अठन्नी का चोर’, ‘तीर्थयात्रा’, ‘पत्थरों का सौदागर’, ‘पृथ्वीवल्लभ’ और ‘साइकिल की सवारी’ जैसी अमर कहानियां भी लिखी हैं.

वर्ष 1896 में अविभाजित भारत के सियालकोट (अब पाकिस्तान में) में जन्मे सुदर्शन अपने चार भाई-बहनों में दूसरे थे. उनका माता-पिता का दिया नाम बदरीनाथ भट्ट था. छुटपन में ही दोनों को खो देने के बाद उन्होंने ढेरों तकलीफें भोगीं. बीए करने के बाद वे रोजगार की तलाश में लाहौर चले गये, जहां से उर्दू का अपने समय का बड़ा ही लोकप्रिय अखबार निकाला. इस बीच उनका विवाह हुआ और कुछ मित्रों के खराब बर्ताव के कारण 1932 में वे लाहौर छोड़कर कलकत्ता चले गये. जहां उन दिनों चल रही टॉकीजों में अच्छे लेखकों की बहुत मांग थी. लेकिन वहां भी उनका मन नहीं रमा और वे 1938 में मुंबई जा पहुंचे.

मुंशी प्रेमचंद और उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ की तरह वे भी उर्दू से हिंदी में आये. प्रेमचंद की ही तरह उनकी भाषा भी सहज, स्वाभाविक और मुहावरेदार है. अपने समय के दूसरे सुधारवादी सर्जकों की तरह उनके लेखन का लक्ष्य भी समाज व राष्ट्र का पुनर्निर्माण था. उनकी गणना प्रेमचंद संस्थान के विश्वंभरनाथ कौशिक, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह और भगवतीचरण वाजपेयी जैसे रचनाकारों के साथ की जाती थी. लाहौर की उर्दू पत्रिका ‘हजार दास्तां’ में प्राय: उनकी कहानियां प्रकाशित होती रहती थीं.

उनकी कई पुस्तकें मुंबई के हिंदी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय से भी छपीं. वर्ष 1945 में महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तावित अखिल भारतीय हिंदुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा की साहित्य परिषद के वे सम्मानित सदस्य थे. गांधी जी के ही अनुरोध पर उन्होंने ‘सबकी बोली’ नाम से हिंदी की एक पुस्तिका लिखी थी जो बहुत दिनों तक कक्षा चार के बच्चों को पढ़ाई जाती रही.

कहानियों के अलावा सुदर्शन फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे. दशक भर लंबे फिल्मी करियर में उन्होंने कई फिल्मों की पटकथाएं और गीत भी लिखे. वर्ष 1934 में आयी उनकी पहली फिल्म ‘रामायण’ थी, जबकि 1935 की ‘धूप-छांव’ में उनका रचा एक बड़ा ही मनहर गीत था- ‘मन की आंखें खोल, बाबा, मन की आंखें खोल.’ वर्ष 1952 में प्रदर्शित ‘रानी’ उनकी आखिरी फिल्म थी.

‘तेरी गठरी में’, जिसका जिक्र शुरू में कर आये हैं, संभवतः किसी फिल्म का हिस्सा नहीं है, फिर भी लोकप्रियता में अपना सानी नहीं रखता. एक ऐसा भी वक्त था, जब आम चुनावों के दौरान देश की विभिन्न राजनीतिक पार्टियां इस गीत को अपने विरोधियों को इंगित करने और मतदाताओं को उनसे सावधान रहने को कहने के लिए इस्तेमाल किया करती थीं.

वर्ष 1941 में आयी सोहराब मोदी की लोकप्रिय फिल्म ‘सिकंदर’ की सफलता का एक बड़ा आधार सुदर्शन की लिखी उत्कृष्ट पटकथा ही बतायी जाती है. वर्ष 1935 में उन्होंने ‘कुंवारी या विधवा’ नाम की एक फिल्म का निर्देशन भी किया. वर्ष 1950 में जब फिल्म लेखक संघ गठित किया गया, तो उन्हें उसका पहला उपाध्यक्ष बनाया गया था.

आगे चलकर वे हिंदी वालों की विस्मरण की आत्मघाती प्रवृत्ति के ऐसे शिकार हुए कि अब उनके बारे में ज्यादा जानकारियां उपलब्ध ही नहीं हैं. वर्ष 1967 में 16 दिसंबर को 72 वर्ष की उम्र में जब उनका देहांत हुआ, तब वे अपने पीछे चार बेटे व एक बेटी छोड़ गये थे. क्या हिंदी की श्री-वृद्धि के लिए किया गया उनका योगदान इतना तुच्छ था कि उनकी कतई खोज-खबर न ली जाये? सोचें, तो डाकू खड़ग सिंह जैसी ही आत्मग्लानि होती है.

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