गांधी मात्र मूर्ति नहीं, जिन्हें हम तोड़ सकें
गांधी सामयिक हैं, यह बात नारों-गीतों-मूर्तियों-समारोहों-उत्सवों से नहीं, समस्याअों के निराकरण से साबित करनी होगी.
बिहार का चंपारण कई अर्थों में महात्मा गांधी की जन्मभूमि है. यहीं से भारतीय सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, 1917 में वे प्रवेश करते हैं. फिर, लगभग 31 वर्षों तक संघर्ष की वह जीवन-गाथा लिखते हैं, जिसे नाथूराम गोडसे की तीन गोलियां ही रोक सकीं. उसी चंपारण के मोतिहारी के चरखा पार्क में गांधी की मूर्ति खंड-खंड कर दी गयी है.
यहीं से थोड़ी दूर, तुरकौलिया में गांधी-प्रतिमा को शराब की थैलियों की माला पहना कर, विकृत कर छोड़ दिया गया है. ऐसी घटनाअों से नाराज या व्यथित होने की जरूरत नहीं है. फिक्र करनी है तो हम सबको अपनी फिक्र करनी है जो लगातार गहरी फिक्र का बायस बनती जा रही है.
गांधी की प्रतिमाअों के खिलाफ एक लहर तब भी आयी थी, जब नक्सली उन्माद जोरों पर था. गांधी की मूर्तियों पर हमले हो रहे थे, तब चेयरमैन माअो के समर्थन में नारे भी लिखे व लगाये जा रहे थे. जमशेदपुर में गांधी की एक मूर्ति तोड़ने पर जयप्रकाश नारायण ने लिखा था कि गांधी से इन लोगों को इतना खतरा महसूस होता है कि वे इनकी मूर्तियां तोड़ने में लगे हैं. चुनौती नहीं तो गांधी नहीं, ऐसा भाव तब जयप्रकाश ने जगाया था, जो उस लहर में बदला जिसे संपूर्ण क्रांति आंदोलन कहा जाता है.
आज गांधी के खिलाफ दूसरा ध्रुव हिंदुत्व के नाम से काम करता है. हिंसा का यह दुष्चक्र नया नहीं है, बल्कि यही इसका शास्त्र है कि बड़ी हिंसा छोटी हिंसा को खा जाती है. वे उनकी उन सारी स्मृतियों को पोछ डालना चाहते हैं, जो उनकी क्षुद्रता व विफलता की गवाही देता है. गांधी न कभी सत्ताधीश रहे, न व्यापार-धंधे की दुनिया से, न दबाने-सताने की वकालत की, न गुलामों का व्यापार किया, न धर्म-रंग-जाति-लिंग भेद जैसी किसी सोच का समर्थन किया.
वे कहते व करते रहे कि हमारे निषेध का रास्ता हिंसक नहीं होना चाहिए. उनका तर्क है कि जितने तरह के शोषण, भेद-भाव, ज्यादती चलती है, चलती अायी है, उन सबकी जड़ हिंसा में है. हिंसा का मतलब ही है कि आप बड़ी किसी शक्ति को, मनुष्य का दमन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, फिर चाहे वह शक्ति हथियार की हो कि धन-दौलत या सत्ता या संख्या या उन्माद की. वे मानते हैं कि इससे मनुष्य व मनुष्यता का पतन होता है. हिंसा हमारे निष्फल क्रोध की निशानी बन कर रह जाती है.
गांधी एक संभावना का नाम है. कुछ लोग जो गांधी के बाद भी इस संभावना को जांचने अौर सिद्ध करने में लगे हैं, उनकी अपनी मर्यादाएं व कमजोरियां भी हैं, लेकिन ऐसी कोशिशों का विरोध क्यों है? गांधी के प्रति धुर वामपंथियों का अौर धुर दक्षिणपंथियों का द्वेष क्यों है? गांधी को इनका घात-प्रतिघात झेलना पड़ा. ऐसा क्यों? इसका कारण जटिल नहीं है, हालांकि विज्ञान ही बताता है कि एक बार ठीक से कुछ भी जान-समझ लें हम, तो जटिल या सरल जैसा कुछ नहीं होता है. जो जटिल है, वह ज्ञात व अज्ञात के बीच की खाई है.
गांधी गैर-बराबरी, भेद-भाव, शोषण-दमन को स्वीकारने को तैयार नहीं हैं. मुखालफत करते हुए जान देने को तैयार रहते हैं. यही गांधी किसी भी तरह बदला लेने या प्रतिहिंसा को कबूल करने को तैयार नहीं हैं. मानव-जाति ने प्रतिद्वंद्वी से निबटने के जो रास्ते अपनाये, वे बलों पर आधारित हैं. सारा इतिहास शोषण-दमन व प्रतिहिंसा का दस्तावेज है. कोई तीसरी ताकत भी हो सकती है जो इस दुष्चक्र से मनुष्यता को त्राण दिला सकती है, उस दिशा में लगातार साहसी प्रयास हमें गांधी में ही मिलता है.
गांधी से वामपंथियों का विरोध या द्वेष इधर कुछ कम हुआ है. दलित पार्टियों का गांधी के खिलाफ विषवमन कुछ धीमा पड़ा है, लेकिन इन सबके पीछे राजनीतिक परिस्थितिजन्य मजबूरी कितनी है, यह देखना अभी बाकी है. हम देख रहे हैं कि गांधी के अपमान व उनकी मूर्तियों के विभंजन पर इनकी तरफ से कोई खास प्रतिवाद नहीं होता है. सच है कि ऐसी घटनाअों के पीछे उपद्रवी, शराबी-अपराधी किस्म के लोग भी होते हैं, लेकिन यह भी सच है कि यह गांधी से विरोध-भाव रखने वाली राजनीतिक-सामाजिक शक्तियों का कारनामा भी है.
गांधीवालों में इससे क्रोध या ग्लानि का भाव पैदा नहीं होना चाहिए. मूर्तियों का यह प्रतीक-संसार सारी दुनिया में अत्यंत बेजान, अर्थहीन व नाहक उकसाने वाला हो गया है. हमारा हाल तो ऐसा है कि बुद्ध जैसे मूर्तिपूजा के निषेधक की मूर्तियों से हमने जग पाट दिया है. गांधी पर हम गांधी वाले रहम खाएं अौर मन-मंदिर में भले उन्हें बसाएं, उनकी मूर्तियां न बनाएं. हम दृश्य-जगत में उनके मूल्यों की स्थापना का ठोस काम करें.
गांधी सामयिक हैं, यह बात नारों-गीतों-मूर्तियों-समारोहों-उत्सवों से नहीं, समस्याअों के निराकरण से साबित करनी होगी. जो गांधी को चाहते व मानते हैं उनके लिए गांधी एक ही रास्ता बना व बता कर गये हैं- अपने भरसक ईमानदारी व तत्परता से गांधी-मूल्यों की सिद्धि का काम करें! इससे उनकी जो प्रतिमा बनेगी, वह तोड़े से भी नहीं टूटेगी. हम जयप्रकाश की वह चेतावनी याद रखें- ‘गांधी की पूजा एक ऐसा खतरनाक काम है, जिसमें विफलता ही मिलने वाली है.’ इसलिए गांधी की हर विखंडित प्रतिमा दरअसल हमें विखंडित करती है अौर हमें चुनौती देती है.