सुर का जादू थीं लता मंगेशकर
इतनी सफल लंबी उम्र किसी विरले को ही मिलती है. फिल्म संगीत के क्षेत्र में किसी को भी ऐसा वक्त नहीं मिला. साथ ही, उन्हें बड़े उम्दा संगीतकारों और गीतकारों का साथ भी हासिल हुआ.
लता मंगेशकर ने चालीस के दशक के अंतिम वर्षों से गाना शुरू किया था और मैं उन्हें पचास के दशक से सुनता आ रहा हूं. गुलाम हैदर, खेमचंद्र प्रकाश जैसे संगीतकारों से प्रारंभ हुई उनकी यात्रा उस दौर में नौशाद और शंकर-जयकिशन तक पहुंचती है. एक खास बात उनमें यह थी कि उनका स्वभाव अधिकारों को लेकर सचेत था. उस समय फिल्म में क्रेडिट को लेकर पहली लड़ाई लता मंगेशकर ने छेड़ी थी कि गायकों का नाम भी प्रमुखता से पेश किया जाए.
फिर वह मामला सबको पता है कि उनकी अनबन मोहम्मद रफी से हो गयी थी. उसकी वजह रिकॉर्ड की बिक्री पर रॉयल्टी देने की मांग थी. मोहम्मद रफी को लगता था कि एक बार गाने के पैसे ले लिये, तो रॉयल्टी मांगना सही नहीं है. लेकिन लता की राय अलग थी. हमारे देश में रॉयल्टी का सवाल उन्होंने ही सबसे पहले उठाया. जहां तक उनकी गायकी का सवाल है, तो उनका प्रशिक्षण मराठी संगीत नाटक परंपरा में थी, लेकिन उन्होंने नाटकीय अंदाज में अपनी प्रतिभा को नहीं संवारा.
हालांकि वे कम उम्र में अभिनय में आ गयी थीं, पर इसमें इनका मन नहीं रमा. पिता दीनानाथ मंगेशकर से उन्होंने संगीत की शिक्षा ली ही थी. उनकी आवाज में एक अलग खासियत होने की वजह से उनका बचपन से काम करना हो सकता है. मैंने अपने पिता को देखा है, जो बचपन में ही अनाथ हो गये थे. ऐसे लोग एक अजीब से एकाकीपन को जीवन भर जीते हैं.
ये या तो पूरी तरह माता की छवि में ढल जाते हैं या फिर उनका झुकाव मेटाफिजिक्स की ओर हो जाता है. आज लता मंगेशकर के निधन के बाद मैंने उनका गाया फिल्म ‘रजिया सुल्तान’ का गीत- ऐ दिले-नादान- सुना और सोशल मीडिया पर भी साझा किया. यह एक लासानी गाना है. इसमें एक स्त्री मेटाफिजिक्स के साथ जुड़ती है. ऐसा गीत गाना अन्य गायिकाओं के लिए लगभग असंभव है.
इसमें वे भाव से परे चली जाती हैं. इस गीत को जां निसार अख्तर ने लिखा है और इसकी धुन खय्याम की है. कमाल अमरोही ऐसे मुश्किल समय में यह फिल्म बना रहे थे, जब उर्दू लगातार हाशिये पर जा रही थी. इस गाने (फिल्म की भी) का फिल्मांकन बेहद खराब है और कलाकार भी भरोसेमंद नहीं दिख रहे हैं. लता इस गाने में अपने भीतर डूब जाती हैं, जो किसी और से नहीं हो सकता था.
फिल्म ‘महल’ में खेमचंद प्रकाश के संगीत पर बना गाना – आयेगा आनेवाला- लता मंगेशकर के करियर के लिए बेहद अहम गाना था. उस समय आज की तरह बहुत सारी तकनीकी सुविधाएं नहीं थीं. उस खास गाने के लिए खेमचंद्र प्रकाश ने लता मंगेशकर से कहा कि वे दस फीट दूर से चलते और गाते हुए आयें. उस समय ऐसे गाने नहीं होते, जिसमें गीत से पहले कुछ कहा जाए.
यह अपने-आप में बड़ी बात थी. लता कुछ पद गाते हुए माइक के करीब आती हैं. उसमें कोई बीट या संगीत नहीं है, केवल उनकी आवाज है. इस प्रयोग का अशोक कुमार समेत गीतकार नक्शब भी विरोध कर चुके थे. तब कमाल अमरोही ने खुद शुरुआती पद लिखे, हालांकि क्रेडिट में इस बात का उल्लेख नहीं है. उस समय लता मंगेशकर के स्टाइल में नूरजहां की गायकी का असर था.
नूरजहां की अदायगी उस समय के मुख्य स्टाइल तवायफी संदर्भ में है, जिसमें आवाज में कुछ ताकत दी जाती है, उसमें कुछ खुरदरापन होता है. लता को समझ में आ गया था कि यह उनका स्टाइल नहीं और उन्हें कुछ अलग ढंग अख्तियार करना होगा. ‘महल’ फिल्म ने उन्हें यह मौका दिया. उल्लेखनीय है कि फिल्म आजादी के तुरंत बाद बन रही है और इसका कथानक इलाहाबाद की पृष्ठभूमि में है.
इसमें आनंद भवन के बरक्स एक संगम भवन की परिकल्पना रची गयी है. इसमें रवींद्रनाथ टैगोर की सोच का अक्स भी है, जिन्होंने अपने साहित्य व विचार में स्त्री को केंद्रीय स्थान दिया था. उस परिप्रेक्ष्य में एक रहस्यमय महिला का चित्रण और यह गीत अद्भुत बन पड़े हैं.
‘महल’ के गीत की कामयाबी के बाद राजकपूर ने अपनी फिल्मों के साथ लता मंगेशकर को जोड़ लिया. ‘आवारा’ फिल्म के मशहूर गीत- दम भर जो उधर मुंह फेरे ओ चंदा- के साथ लता मंगेशकर ने अपनी उस खास आवाज को पकड़ लिया और इसके साथ ही वे नूरजहां के अंदाज से अलग दिशा में घूम जाती हैं. गुलाम हैदर और अनिल विश्वास ने उन्हें बहुत कुछ सिखाया, तो खेमचंद्र प्रकाश ने दृष्टिकोण का अहसास दिया और बताया कि अपनी आवाज के जरिये वे तकनीकी संसाधनों की सीमाओं से परे जाएं.
ओपी नैय्यर ने अपने गीतों में लता मंगेशकर को नहीं मौका दिया, लेकिन अनेक अहम प्रयोगों के बावजूद नैय्यर ने भी कोई बहुत अलहदा और खास अंदाज पेश नहीं किया. लेकिन उसी समय लता मंगेशकर नौशाद, एसडी बर्मन, शंकर जयकिशन के साथ कमाल का काम कर रही थीं. एसडी बर्मन के साथ लता की आवाज और वाद्य यंत्रों की जो ट्यूनिंग मिलती है, वह कहीं और देखने को नहीं मिलती. इस जोड़ी ने छोटी बहर के गानों का भी शानदार प्रयोग किया., जिससे लता में हर किस्म की चुनौती का सामने कर सकने की कुव्वत आयी. उस समय यह प्रयोग पाकिस्तान में इकबाल बानो कर रही थीं.
उसके बाद लता एक लहर की तरह गाने लगती हैं, जो बंगाली संगीतकारों के साथ उनके गीतों में देखा जा सकता है. हेमंत कुमार के गीतों का अंदाज कौल की तरह आता है. उदाहरण के लिए, कहीं दीप जले कहीं दिल गीत में आवाज शुरू में खुलती है, तो वह फिर वापस नहीं आती. बर्मन के खोया खोया चांद में भी इसे देखा जा सकता है. सलिल चौधरी के साथ- ये सुहाना सफर और ये मौसम हसीं- ऐसा ही गीत है.
ये सब नयी चीजें हो रही थीं फिल्मी गीतों में. फिर शंकर-जयकिशन ने लता मंगेशकर को सिनेमा उद्योग के चलन के साथ बद्ध किया. शुरुआती पच्चीस सालों में लता मंगेशकर एकदम शीर्ष पर हैं. फिर आशा भोंसले का उभार होता है, जिसकी एक बड़ी वजह आरडी बर्मन हैं. वह बदलाव का दौर है और लता एक नयी स्पेस में चली जाती हैं.
उस दौर में अपने सुर और आवाज के जादू से अपनी जगह कायम रखना आसान काम नहीं था और यह लता ने किया. इसमें उन्हें साथ मिला लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की संगीतकार जोड़ी का. इतनी सफल लंबी उम्र किसी विरले को ही मिलती है. फिल्म संगीत के क्षेत्र में किसी को भी ऐसा वक्त नहीं मिला. साथ ही, उन्हें बड़े उम्दा संगीतकारों और गीतकारों का साथ भी हासिल हुआ.