इतिहास का पुनर्लेखन जरूरी

आज हमारे विद्यालयों में पढ़ाये जानेवाले भारतीय इतिहास को देखें, तो यह पराजितों का इतिहास है. इसका अधिकांश हिस्सा सिंधु-गंगा मैदान के घटनाओं का एक सिलसिलेवार विवरण है.

By मोहन गुरुस्वामी | October 21, 2021 7:59 AM

इतिहास का लेखन व पुनर्लेखन हमेशा प्रभु वर्ग के राजनीतिक एवं विचारधारात्मक हितों को साधने के लिए होता है. विंस्टन चर्चिल ने तो कह भी दिया था कि ‘सज्जनो, इतिहास हमारे प्रति उदार रहेगा. इसे हम लोग लिखेंगे.’ आज हमारे विद्यालयों में पढ़ाये जानेवाले भारतीय इतिहास को देखें, तो यह पराजितों का इतिहास है. इसमें सिंधु-गंगा मैदान की घटनाओं का सिलसिलेवार विवरण है. पाठ्य-पुस्तकें सिंधु घाटी सभ्यता से प्रारंभ होती हैं और उनका मुख्य ध्यान उत्तर-पश्चिम से होनेवाले आक्रमणों पर ही केंद्रित होता है.

आर्यों की तरह यूनानी, बैक्ट्रियाई, हूण, अफगान, फारसी, अरब, उज्बेक, मंगोल और तुर्क भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा से ही आये और यहां उन्होंने अपनी-अपनी छाप छोड़ी. कहानी का अन्य हिस्सा यूरोपीय युग और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में है, जो मुख्य रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कहानी है. ये हमले, कब्जे, लंबे समय तक रहना और यहां घुल-मिल जाना आदि के विवरणों से भारत का इतिहास बनता है.

एक कैथोलिक विद्यालय के छात्र के रूप में इतिहास का जो पहला पाठ मुझे पढ़ाया गया, उसमें ब्रिटिश उपनिवेश की कहानी कुछ अलग थी. उसके अनुसार, भारतीयों के लिए ब्रिटिश शासन बहुत उदार और लाभप्रद दौर था. सती प्रथा के उन्मूलन जैसे सामाजिक सुधारों, नहरों की व्यापक व्यवस्था और रेल के विकास के संदर्भ में ऐसा कहना सही भी हो सकता है. उसी दौर में राजनीतिक इकाई के रूप में भारत की एकता भी स्थापित हुई थी. सबसे अहम तो यह हुआ कि दक्षिण भारत पहली बार दिल्ली के साम्राज्यवादी शासन के अधीन आया.

दूसरी ओर, उस इतिहास में टीपू सुल्तान जैसे लोग क्रूर व दमनकारी थे, और 1857 में जो हुआ वह एक विश्वासघाती विद्रोह था, जिसमें अंग्रेज महिलाओं और बच्चों का विद्रोही सैनिकों व अन्य लोगों द्वारा बलात्कार किया गया और उनकी हत्या की गयी. 1957 में जब भारतीय स्वतंत्रता के पहले संग्राम का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा था, तब मुझे अचानक पता चला कि जो मुझे इतिहास की पाठ्यपुस्तकें विश्वास दिलाना चाहती थीं, वह गलत था.

इतिहास का जो भी विवरण प्रस्तुत किया गया है, चाहे वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हो या रोमिला थापर, इरफान हबीब व अन्य का, वह आज भी सिंधु-गंगा मैदान के लोगों पर केंद्रित है. यही मेरी मुख्य शिकायत है. उदाहरण के लिए आप पर्सिवल स्पियर और रोमिला थापर द्वारा दो भागों में लिखे भारत का इतिहास देखें. इसके 24 अध्यायों में 21 उन लोगों के बारे में हैं, जो या तो सिंधु-गंगा मैदान में रहे या उस क्षेत्र को जीतते रहे.

दक्षिण भारत का इतिहास, जो बहुत अलग है और उत्तर भारत की निरंतर पराजयों की कहानियों से निश्चित ही अधिक गौरवपूर्ण है, को केवल तीन अध्याय मिले हैं. दक्षिणी भाग में आज देश की लगभग 40 प्रतिशत आबादी रहती है. ओडिशा और बंगाल जैसे क्षेत्रों के बारे में बहुत थोड़ा कहा गया है, जबकि असम का उल्लेख नाममात्र का है. अपेक्षा के अनुरूप ही मौलिक और मूलनिवासी आर्य-पूर्व और द्रविड़-पूर्व लोगों के बारे में भी बहुत अधिक नहीं लिखा गया है.

यदि स्पियर और थापर को आधुनिक भारत को बनाने में अन्य क्षेत्रों की भूमिका को स्वीकार करने में हिचक है, तो एएल बाशम और एसएए रिजवी की दो भागों वाली पुस्तक ‘अद्भुत भारत’ में अन्य क्षेत्रों और भारतीय राष्ट्र की घुली-मिली संस्कृति एवं उसके बहुआयामी चरित्र में उनके योगदान के बारे में और भी कम उल्लेख किया गया है.

रिजवी के भाग में 1200 से 1500 के कालखंड पर ऐसा एकतरफा रवैया अपनाया गया है कि इसमें पूरी तरह से देश के विभिन्न हिस्सों के मुस्लिम शासन का ही वर्णन है. स्पष्ट है कि अगर भारतीय समाज को समावेशी होना है, तो अतीत के बारे में सभी लोगों को एक साझा समझ रखनी होगी. लेकिन आज ऐसा नहीं है और इसीलिए मुझे लगता है कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन होना चाहिए.

अब ऐसी चर्चा की आवश्यकता है कि यह इतिहास क्या होगा क्योंकि तथ्यों को न तो बदला जा सकता है और न ही अतीत को नजरअंदाज किया जा सकता है. कम्युनिस्ट लोगों को परे रखने और सत्ता के अनुरूप इतिहास के पुनर्लेखन के माहिर रहे हैं. लेनिन की मौत के बाद जब स्टालिन सत्ता पर अपनी पकड़ बना रहे थे, तब ऐतिहासिक व्यक्तियों को लगातार इतिहास से बाहर किया गया था. ट्रॉटस्की, जिनोवियेव, मार्तोव आदि ऐसे लोगों का उल्लेख मिटा दिया गया, जिन्हें स्टालिन ने दरकिनार कर दिया था.

इसी तरह से चीन में कुछ ही लोग होंगे, जिन्होंने लीन बियाओ का नाम सुना होगा, जिन्हें माओ ने अपना उत्तराधिकारी चुना था. भारत का लिखित इतिहास जातीयता आधारित है और यह मुख्य रूप से मनु के आर्यावर्त पर केंद्रित है, प्राचीन संहिताओं के विवरणों के अनुसार जिसका विस्तार विंध्य के दक्षिण में नहीं था. आर्यावर्त के इतर ‘अमानवों’ का वास था और सिंधु-गंगा मैदान की दंतकथाओं में यह आदिम प्रवृत्ति स्पष्ट दिखती है.

यह उत्तर भारतीय पूर्वाग्रह अनेक रूपों, कभी-कभार गंभीर आर्थिक परिणामों में सामने आता है. भारत का पर्यटन उद्योग मुख्य रूप से दिल्ली, आगरा और जयपुर से संबद्ध है. ताजमहल अपनी सुंदरता से दुनियाभर के पर्यटकों को आकर्षित करता है. लेकिन मुगलों और राजस्थान के रजवाड़ों की इमारतों को ही सरकार और पर्यटन व्यापार द्वारा बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए.

स्थिति यह है कि बादामी, विजयनगर, बेलूर, हलेबिद, बीजापुर, वारंगल, कांचीपुरम, मदुरै, तंजावुर जैसे दक्षिण भारत के ऐतिहासिक स्थलों पर पर्यटन बढ़ाने के लिए आधी सुविधाएं भी नहीं हैं. यदि उत्तर भारत के इतिहास के लिए पानीपत की अहमियत है, तो तालिकोटा की लड़ाई ने विजयनगर राजशाही की किस्मत तय की थी, जिसमें मुस्लिम शासकों की संयुक्त सेना विजयी हुई थी.

तालिकोटा में कोई स्मारक तक नहीं है. राजा जय सिंह के नेतृत्व में मुगल सेना को असम में बड़ी नौसैनिक लड़ाई में ब्रह्मपुत्र में निर्णायक हार का सामना करना पड़ा था. उस सरायघाट में स्मारक तो छोड़ दें, लिखित इतिहास में विजयी लाचित बरफुकन का जिक्र भी लिखित इतिहास में नहीं है. सो, हर तरह से हमारे इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए. लंबे समय से यह कार्य लंबित है.

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