अफगानिस्तान मसले के कई पेच

अगर अफगानिस्तान में हालात बेकाबू होते हैं, तो उनका अधिकांश फैलाव पाकिस्तान में होगा, जो अपने को ही तबाह करने पर आमादा है.

By मोहन गुरुस्वामी | June 18, 2021 7:51 AM
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वादे के मुताबिक अमेरिका ने अफगानिस्तान से निकलना शुरू कर दिया है और कुछ ही हफ्तों में यह प्रक्रिया पूरी हो जायेगी. चीनी सेना की हरकतों के बाद जागने और कोरोना संकट से पहले हमारे देश के पेशेवर और स्वयंभू कूटनीतिक अफगानिस्तान में सक्रिय भारतीय नीति की पैरोकारी कर रहे थे. उनका तर्क था कि अगर उस ऐतिहासिक रूप से अनियंत्रित देश की समस्याओं को नियंत्रित नहीं किया गया, तो आंच भारत तक आ सकती है.

यह मूढ़तापूर्ण समझ है. भारत के साथ अफगानिस्तान की सीमाएं नहीं लगतीं. बीच में पाकिस्तान एक आड़ के रूप में है. अगर हालात बेकाबू होते हैं, तो उनका अधिकांश फैलाव पाकिस्तान में होगा, जो अपने को ही तबाह करने पर आमादा है. अफगानिस्तान की अफरातफरी में सबसे अधिक घातक भूमिका पाकिस्तान की रही है और यह पाकिस्तान ही है, जो अपने विशेष इतिहास एवं भूगोल की वजह से अभी भी अफगानिस्तान में सक्रिय भूमिका निभा सकता है.

यह नहीं भूलना चाहिए कि आधी पख्तून कौम पाकिस्तान में बसती है. और, अफगानिस्तान क्या है, इसे समझने के लिए हमें केवल महान अफगानी कवि खुशहाल खान खटक की इन पंक्तियों को पढ़ना चाहिए- ‘पुत्र, तुम्हारे लिए एक बात है मेरे पास/डरो मत किसी से और भागो नहीं किसी से/निकालो अपनी तलवार और काट दो उसे/जो कहे कि एक नहीं हैं पख्तून और अफगान/अरब जानते हैं यह और रोमन भी/अफगान पख्तून हैं/पख्तून अफगान हैं.’

देश जैसे रूप में अफगानिस्तान का उद्भव 18वीं सदी के मध्य में हुआ, जब नादिर शाह की फारसी सेना में अब्दाली टुकड़ी के नेता अहमद खान (बाद में अहमद शाह) ने फारस (ईरान) और भारतीय उपमहाद्वीप में ढहते मुगल साम्राज्य के बीच एक इलाका बना लिया. बाद में यह जारशाही रूस और ब्रिटिश भारत के बीच एक बफर क्षेत्र बना. दूसरे अफगान युद्ध के बाद ब्रिटेन ने अफगानिस्तान के विदेशी मामलों का अधिकार ले लिया.

सिंधु नदी के पश्चिम में स्थित पेशावर और खैबर दर्रे समेत पारंपरिक पख्तून इलाकों का नियंत्रण भी अंग्रेजों को मिल गया. बाद में अंग्रेजों और रूसियों के एक संयुक्त सीमा आयोग, जिसमें कोई अफगानी नहीं था, ने तुर्किस्तान के साथ अफगान सीमा का निर्धारण कर दिया. तुर्किस्तान तब समूचा रूसी मध्य एशिया था, जो अब चार देशों- किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान- में बंटा है. सो, ब्रिटेन और रूस की प्रतियोगिता के नतीजे में एक नया देश- अफगानिस्तान- बनाया गया, जिसे एक बफर के रूप में काम करना था.

पाकिस्तान की संभावनाओं के बारे अमेरिका की राष्ट्रीय इंटेलीजेंस काउंसिल की 2008 में छपी रिपोर्ट ‘ग्लोबल ट्रेंड्स 2025’ में लिखा गया है कि ‘पड़ोसी अफगानिस्तान की राह को देखते हुए पाकिस्तान का भविष्य कुछ भी हो सकता है. पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत और कबीलाई इलाके में शायद बदहाली जारी रहेगी और ये क्षेत्र सीमा-पार अस्थिरता के स्रोत या समर्थक बने रहेंगे.

कालांतर में पख्तून कबीलों का व्यापक सम्मिलन होने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है तथा ये डुरंड रेखा को मिटाने की कोशिश करेंगे, जिससे पाकिस्तान में पंजाबियों तथा अफगानिस्तान में ताजिकों व अन्यों की कीमत पर पख्तून क्षेत्र का विस्तार हो सके.’ अगर ऐसा होता है, तो क्या हमें बहुत अधिक चिंतित होना चाहिए?

सालाना 2.33 फीसदी की दर से बढ़ रही करीब 3.9 करोड़ आबादी के इस बेहद गरीब देश का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) 19 अरब डॉलर है, लेकिन इसका हिसाब बेहद चिंताजनक है. जीडीपी का लगभग 45 फीसदी हिस्सा अमेरिका और उसके सहयोगियों, सऊदी अरब और भारत जैसे कुछ देशों के अनुदान से आता है. अमेरिका ने 2002 से करीब 150 अरब डॉलर का असैन्य सहयोग दिया है, पर इसी अवधि में उसने अफगानिस्तान में सैन्य कार्रवाई पर करीब 900 अरब डॉलर खर्च किया है, जिसका असल मतलब है कि उसने अपने पर खर्च किया है.

अफगानिस्तान का अपना राजस्व उसके जीडीपी के 10 फीसदी से भी कम है. सो, पश्चिमी सहयोग के बिना उसकी जीडीपी ऐसे बड़े संकुचन में चली जायेगी, जिससे कुछ ही देश बिना बड़े बदलाव के उबरने की क्षमता रखते हैं. अफगानिस्तान अभी दुनिया की कुल हेरोइन का 87 फीसदी हिस्सा उत्पादित करता है. अन्य आकलन इंगित करते हैं कि यह देश गैर-दवा श्रेणी के अफीम का 92 फीसदी हिस्सा उत्पादित करता है.

तालिबान के दौर में केवल 30 वर्ग किलोमीटर में अफीम की खेती होती थी. अमेरिकी और नाटो सेना के कब्जे के दौर में यह दायरा 285 वर्ग किलोमीटर हो गया. अफीम से एक हेक्टेयर में करीब 16 हजार डॉलर की कमाई होती है, जबकि गेहूं से लगभग 16 सौ डॉलर ही मिलते हैं. अफगानिस्तान से ‘वैध’ निर्यात का मूल्य लगभग 776 मिलियन डॉलर है, जो उसकी जीडीपी का लगभग 20 फीसदी है.

मुख्य निर्यात वस्तुओं में कालीन व दरी, सूखे मेवे और मेडिकल पौधे हैं. इसका अधिकांश निर्यात पाकिस्तान, भारत और रूस को होता है. इसकी तुलना में अफगानिस्तान लगभग दस गुना अधिक आयात करता है और इसका व्यापार घाटा 5.8 अरब डॉलर है. इससे भी इंगित होता है कि यह देश अनुदान पर निर्भर है.

लेकिन अफगानिस्तान की स्थिति पूरी तरह से आशाहीन नहीं है. पहाड़ों और मरूस्थल के इस देश में पर्याप्त उपजाऊ जमीन है. आठ मिलियन हेक्टेयर की लायक जमीन में केवल 1.6 मिलियन हेक्टेयर पर ही खेती होती है. इसके पास समुचित जल संसाधन भी है, लेकिन इसकी नदियां अधिकांशत: सिंधु में बहती हैं और पाकिस्तान उस पर दबाव डालकर खेती के लिए इन संसाधनों का विकास नहीं करने देता है. पिछले साल आठ सौ मिलियन डॉलर मूल्य के फलों व सब्जियों की पैदावार हुई थी, जिनका निर्यात में बड़ा हिस्सा था. इस क्षेत्र के विकास की बड़ी संभावनाएं हैं, लेकिन इसके लिए पाकिस्तान की जल आक्रामकता को रोकने की जरूरत है.

तालिबान से लड़ने और बढ़ती आबादी के हिसाब से विकास करने के लिए अफगानिस्तान को हर माह दो अरब डॉलर की जरूरत है. साल 1992 में रूसियों के जाने के बाद इस देश ने उनसे 300 मिलियन डॉलर लिये थे, ताकि नजीबुल्लाह सरकार बची रहे. इस आमद के बंद होने के एक महीने बाद वह सरकार गिर गयी.

साल 1841 में विलियम मैकनौटेन ने कोलकाता में गवर्नर जनरल को एक संदेश भेजा था- ‘आप उस राजशाही का क्या करेंगे, जिसका सालाना राजस्व केवल 15 लाख रुपये है?’ अब इसका राजस्व केवल 2.6 अरब डॉलर है और अनुदानों से इसका किसी तरह गुजारा होता है. जब पश्चिमी देश विदा हो जायेंगे और धन के स्रोत सूख जायेंगे, तब क्या होगा?

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