कृषि कानूनों की वापसी के मायने
पीएम मोदी अपने निर्णयों से आसानी से पीछे नहीं हटते हैं. लिहाजा कृषि कानूनों के मामले में उनका यह फैसला महत्वपूर्ण हो जाता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय मेरी समझ में एक राजनीतिक निर्णय है. इसके पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, वह है उत्तर प्रदेश विधानसभा का आगामी चुनाव. इस बात से कोई भी असहमत नहीं हो सकता है कि अगर भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश में समस्याएं खड़ी होती हैं, तो फिर पार्टी के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव बड़ा प्रश्नचिह्न बन जायेगा. भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश केवल जीतना ही जरूरी नहीं है, बल्कि अच्छी तरह से जीतना जरूरी है.
कृषि कानूनों के विरोध में लगभग एक साल से चल रहे किसान आंदोलन का उत्तर प्रदेश में, विशेषकर राज्य के पश्चिमी हिस्से में, बड़ा असर रहा है. अगर आप पश्चिमी उत्तर प्रदेश का इलाका बरेली तक ले जाते हैं, शाहजहांपुर और तराई क्षेत्र तक ले जाते हैं, तो इस हिस्से में विधानसभा की 120 से 130 सीटें आती हैं. इन कानूनों से सबसे अधिक जाट किसान नाराज हैं, क्योंकि किसानों में उनकी संख्या सर्वाधिक है.
उल्लेखनीय है कि 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में जाट और मुस्लिम मतदाताओं में विभाजन का सीधा फायदा भाजपा को हुआ था तथा उसने इस इलाके में बड़ी जीत हासिल की थी. मैंने खुद बहुत सारे लोगों को यह कहते सुना है कि वे इस बार भाजपा के झांसे में नहीं आयेंगे और जाट व मुस्लिम समुदायों के वोटों को नहीं बंटने देंगे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट आबादी लगभग 15 फीसदी है और इस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी 27 फीसदी है.
इस क्षेत्र में बसे गुर्जर समुदाय के लोग भी कृषि कानून और अन्य वजहों से नाराज हैं. इस समुदाय को यह भी लगता है कि सरकार में उसका कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं है. लखीमपुर खीरी में किसानों के मारे जाने की जो घटना हुई और उसमें एक मंत्री के बेटे और समर्थकों के शामिल होने की बात सामने आयी, उससे उत्तर प्रदेश के इस क्षेत्र में बसे सिख भी नाराज हैं.
भाजपा सांसद वरुण गांधी ने खुल कर इन घटनाओं पर रोष जताया है. सिख मतदाता उनके समर्थक रहे हैं. ऐसी स्थिति में अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, मुस्लिम, गुर्जर और सिख मतदाता एकजुट होकर विरोध में मतदान करेंगे, तो भाजपा के सामने बड़ी बाधा पैदा हो जायेगी तथा लगभग 130 सीटों का बड़ा भाग उसके हाथ से निकल सकता है.
ऐसे राजनीतिक माहौल में भाजपा की कोशिश है कि किसानों की नाराजगी किसी तरह से कम हो, ताकि संभावित चुनावी घाटे को कम किया जा सके. इस तरह कृषि कानूनों को वापस लेना अब तक हुए नुकसान की भरपाई की एक कोशिश है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से भाजपा को 71 सीटें नहीं मिलतीं, तो उस समय केंद्र में निश्चित रूप से कोई गठबंधन सरकार बनती.
उत्तर प्रदेश, विशेष रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, की वजह से भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों तथा 2017 के विधानसभा चुनाव में बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की थी. भाजपा को अहसास है कि किसान आंदोलन के कारण इस बार स्थिति पूरी तरह से बदल भी सकती है. पंजाब की राजनीति भी इस प्रकरण में एक कारक है, जहां ऐसी संभावना दिख रही है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस से अलग हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ भाजपा कोई समीकरण बनाने की कोशिश कर सकती है, लेकिन पंजाब का कारक महत्वपूर्ण या प्रभावी कारक नहीं है. भाजपा की असली चिंता उत्तर प्रदेश को लेकर ही है.
पंजाब में अकाली दल से गठबंधन टूटने के बाद भाजपा की स्थिति लगभग नगण्य है. अकाली दल ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह भाजपा के साथ फिर से मिल कर चुनाव नहीं लड़ेंगे. वहां अभी कांग्रेस आगे है और फिर अकाली दल और आम आदमी पार्टी की मौजूदगी है. यह संभव है कि भाजपा शहरी क्षेत्र के हिंदू मतों में से कुछ अपने पाले में लाने की कोशिश करे, पर सिख मतों में सेंध लगा पाना संभव नहीं दिखता, क्योंकि कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन में सिख किसानों की अग्रणी भूमिका रही है.
जिस प्रकार से बीते सालभर में उस आंदोलन से व्यवहार हुआ है और बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हुई है, उसे पंजाब का किसान समुदाय बहुत जल्दी भूला नहीं सकता है. अब किसान आंदोलन के नेता न्यूनतम समर्थन मूल्य, मुकदमों की वापसी और अन्य मुद्दों की बात कर रहे हैं, तो स्पष्ट है कि किसानों का गुस्सा कुछ महीनों में ठंडा नहीं हो सकता है. राजनीतिक आयामों की बात करते हुए हमें राष्ट्रपति चुनाव को भी याद रखना चाहिए. यदि उत्तर प्रदेश भाजपा के हाथ से निकल जाता है, तो पार्टी का आकलन है कि राष्ट्रपति चुनाव में उसके लगभग 58 हजार मत का हिसाब बिगड़ जायेगा.
प्रधानमंत्री मोदी की कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद उनके बहुत सारे समर्थक नाराज हैं, पर इसका कोई राजनीतिक असर नहीं होगा, क्योंकि भाजपा समर्थक विपक्षी दलों के पक्ष में मतदान नहीं करेंगे. ऐसी बातें भी कही जा रही हैं कि बाद में इन कानूनों को फिर से लाया जायेगा, लेकिन स्थिति यह है कि 2024 तक भाजपा और केंद्र सरकार इन कानूनों की ओर देखेंगे भी नहीं.
कृषि कानूनों को रद्द करने की घोषणा सोच-समझ कर उठाया गया जोखिम है. हालांकि किसान इस वापसी मात्र से भाजपा से संतुष्ट हो जायेंगे, ऐसा कहना ठीक नहीं होगा, पर भाजपा की समझ है कि चुनाव आने तक आंदोलन से जुड़ा माहौल कुछ ठंडा पड़ जायेगा और पार्टी को कम-से-कम नुकसान होगा. पार्टी के लोग किसानों के बीच जाकर यह कह तो सकेंगे कि कानून वापस ले लिये गये हैं और इससे अधिक क्या हो सकता था.
इससे कई लोग मान भी सकते हैं और शायद वे भाजपा के साथ आ भी सकते हैं. यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी अपने निर्णयों से आसानी से पीछे नहीं हटते हैं. लिहाजा कृषि कानूनों के मामले में उनका यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. यह चुनाव जीतने की किसी रणनीति के तहत किया गया फैसला भी नहीं माना जाना चाहिए.
यह कोशिश अब तक हुए राजनीतिक नुकसान की भरपाई करने के इरादे से उठाया गया कदम है. उन्हें भी यह मालूम है कि स्थिति पूरी तरह तो नहीं संभलेगी, पर नाराज लोगों को मनाने और माहौल में दखल देने का रास्ता जरूर खुलेगा. कृषि कानूनों के अलावा अब पार्टी दूसरे मुद्दे उठा कर लोगों को अपने पाले में लाने का प्रयास करेगी. (बातचीत पर आधारित)