सहकार और सहकारिता भारतीय आदि सनातन संस्कृति का अंग रहा है. इस शब्द का उपयोग सभी युगों में देखने को मिलता है. मुंडारी की एक कहावत है, ‘सेनगी सुसुन, काजी गे दुरंग’ अर्थात जहां चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत है. चलना और गाना कभी भी एकल नहीं हो सकते. इसलिए आदि संस्कृति का अंग सहकार और सामूहिकता है. आदिवासी समाज में सहिया और मितान की परंपरा पुरानी है.
अथर्ववेद का एक मंत्र है- ‘भद्रं इच्छंत ऋषयः स्वर्विंदः तपो दीक्षां उपसेदुः अग्ने / ततो राष्ट्रं बलें ओजश्च जातम् / तदस्मै देवा उपसं नमन्तु’ अर्थात ‘आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत कल्याण की इच्छा से सृष्टि के प्रारंभ में जो दीक्षा लेकर तप किया, उससे राष्ट्र का निर्माण हुआ. इसलिए सब विबुध इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर उसकी सेवा करें.’ यहां हमें सहकार और सामूहिकता का स्वरूप देखने को मिलता है. एक अन्य वैदिक मंत्र है- ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् / देवा भागं यथा पूर्वे सजानाना उपासते.’
इसका भावार्थ है- ‘हम सब सदैव एक साथ चलें, हम सब सदैव एक साथ बोलें, हम सभी का मन एक जैसा हो. हमारे विचार समान हों, हम मिलकर रहें. हम सभी ज्ञानी बनें, विद्वान बनें. जिस प्रकार हमारे पूर्वज अपनी धन-संपदा आपसी सहमति और परस्पर समानता के आधार पर वितरित करते थे, उसी तरह हम आचरण करें.’ ऐसे कई मंत्र, लोकोक्तियां हमारे सनातन समाज व ग्रंथों में संकलित हैं. जैन तीर्थंकर भगवान महावीर सहकार को जीवन का आधार बताते हैं. इसलिए सहकार भारत की सार्वभौम संस्कृति का अंग है.
आधुनिक भारत में सहकारी आंदोलन का इतिहास 1901 के बाद देखने को मिलता है. एडवर्ड लॉ की अध्यक्षता में सहकारी समितियों के गठन की संभावना और सफलता पर रिपोर्ट के लिए एक समिति स्थापित की गयी थी. उस रिपोर्ट के आधार पर 1904 में सहकारी साख अधिनियम पारित हुआ. तभी से सहकारी आंदोलन का प्रारंभ हुआ. पूंजीवादी और समाजवादी दोनों प्रकार के देशों में सहकारी समितियों ने विशेष स्थान बना कर देश की उन्नति में भूमिका निभायी है.
वैसे सहकारी शब्द का अर्थ होता है साथ मिलकर कार्य करना. इसका तात्पर्य हुआ कि जो लोग समान आर्थिक उद्देश्य के लिए मिलकर काम करना चाहते हैं, वे समिति बना सकते हैं. इसे ‘सहकारी समिति’ कहते हैं. यह अपनी सहायता स्वयं और परस्पर सहायता के सिद्धांत पर कार्य करती है. सहकारी समिति में कोई भी सदस्य व्यक्तिगत लाभ के लिए कार्य नहीं करता है.
सभी सदस्य अपने संसाधनों को एकत्र कर उनका अधिकतम उपयोग कर कुछ लाभ प्राप्त करते हैं, जिसे वे आपस में बांट लेते हैं. उदाहरणार्थ, एक विशेष बस्ती के विद्यार्थी विभिन्न कक्षाओं की पुस्तकें उपलब्ध कराने हेतु एकत्र होकर एक सहकारी समिति बनाते हैं. अब वे सीधे प्रकाशकों से पुस्तकें क्रय करके विद्यार्थियों को सस्ते दामों पर बेचते हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में मध्यस्थों के लाभ का उन्मूलन होता है. किसान के उत्पादन को सही मूल्य दिलाने के लिए बाजार को बिचौलियों से मुक्त कराने की आवश्यकता सदा से महसूस की जाती रही है.
भारत के आर्थिक फलक के कई क्षेत्रों में सहकारिता का प्रयोग लंबे समय से चल रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने पहली बार कृषि को इस मुहिम का हिस्सा बनाया है. हाल ही में भारत सरकार ने किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) बनाने के लिए प्रोत्साहित करने की योजना बनायी है, जिसका जिम्मा सांसदों को भी दिया है. इस प्रोजेक्ट पर अगले पांच साल में पांच हजार करोड़ रुपये खर्च करने की योजना है.
इसका पंजीकरण कंपनी एक्ट में ही कराने का निर्णय लिया गया है. इसके लिए किसानों को एक कंपनी यानी किसान उत्पादक संगठन बनाना होगा. सरकार ने 10 हजार नये किसान उत्पादक संगठन बनाने की मंजूरी दी है. इस योजना का शुभारंभ प्रधानमंत्री मोदी ने चित्रकूट में किया है. एफपीओ में वे सारे फायदे किसानों को मिलेंगे, जो एक उद्योग को मिलता है.
किसानों के बीच सहकारिता के इस नये आयाम को समझना जरूरी है. किसान उत्पादक संगठन (कृषक उत्पादक कंपनी) किसानों का एक समूह होगा, जो कृषि उत्पादन कार्य में लगा हो और कृषि से जुड़ी व्यावसायिक गतिविधियां चलायेगा. एक समूह बनाकर आप कंपनी एक्ट में रजिस्टर्ड करवा सकते हैं. एफपीओ लघु व सीमांत किसानों का एक समूह होगा, जिससे उससे जुड़े किसानों को न सिर्फ अपनी उपज का बाजार मिलेगा, बल्कि खाद, बीज, दवाइयां और कृषि उपकरण आदि खरीदना आसान होगा. सेवाएं सस्ती मिलेंगी और बिचौलियों के मकड़जाल से मुक्ति मिलेगी.
अगर अकेला किसान अपनी पैदावार बेचने जाता है, तो उसका मुनाफा बिचौलियों को मिलता है. एफपीओ सिस्टम में किसान को उपज के अच्छे भाव मिलते हैं क्योंकि यहां बिचौलिये नहीं होंगे. केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के मुताबिक, ये 10 हजार नये एफपीओ 2019-20 से 2023-24 तक बनाये जायेंगे. इससे किसानों की सामूहिक शक्ति बढ़ेगी.
उत्पादक समूह और उपभोक्ताओं के बीच बिचौलियों की भूमिका सीमित करने में सहकारी समूहों की उपयोगिता अत्यंत महत्वपूर्ण है. किसान को लागत के साथ लाभ का वास्तविक हिस्सा प्राप्त हो, इसके लिए सहकारिता समूहों को विकल्प के रूप में नहीं, वास्तविक रुप में अपनाना चाहिए.