ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त के नाम से 11 ऋचाओं का उल्लेख है. यजुर्वेद के अध्याय 17, सूक्त मंत्र 16 से 31 तक कुल 16 मंत्रों में विश्वकर्मा की चर्चा है. वेद में विश्वकर्मा शब्द, एक बार इंद्र व सूर्य के विशेषण में भी प्रयुक्त हुआ है. स्कंद पुराण प्रभात खंड में विश्वकर्मा की चर्चा देखने को मिलती है. महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थीं, वह अष्टम वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनीं और उनसे संपूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ.
शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश, विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, संपूर्ण सिद्धियों का जनक है. अंगिरा कुल से विश्वकर्मा का संबंध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं. प्राचीन ग्रंथों से यह विदित है कि जहां ब्रह्मा, विष्णु और महेश की वंदना-अर्चना हुई है, वहीं भगवान विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है. विश्वकर्मा शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है. ‘विश्वं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सः’ अर्थात, जिसकी सम्यक सृष्टि और कर्म व्यापार है, वह विश्वकर्मा है.
सभ्यता के विकास के साथ नदियों के किनारे नगरों का उद्भव प्रारंभ हुआ. मंदिरों के आसपास, पूजा सामग्री एवं क्षेत्रीय कला व शिल्प की लंबी श्रृंखला में अभूतपूर्व वृद्धि हुई. शिल्प और लघु उद्योग के विकास से अनेकानेक शिल्प संगठनों और श्रेणियों का अभ्युदय हुआ. हमारे स्थानीय शिल्प उत्पादों ने व्यवसायी वर्ग को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. वेदोत्तर काल शिल्प उद्योग का स्वर्णकाल कहा जा सकता है. सिल्क मार्ग का व्यवसाय इन्हीं उत्पादनों पर आधारित था. भारत में शिल्प व कला का इतिहास बहुत पुराना है.
अन्य देशों में कैसे समाज में प्रवेश किया, यह तो शोध का विषय है, लेकिन भारत और चीन में शिल्पकारों के श्री गणेश की कथा, धार्मिक ग्रंथों में दर्ज है. इसे आधुनिक इतिहासकार प्रमाण मानें या न मानें, लेकिन सामाजिक संरचनाओं में इनकी भूमिका हजारों वर्षों से विद्यमान है. आज हस्तकला की परिभाषा बदल गयी है. हस्तकला ऐसे कलात्मक कार्य को कहते हैं, जो उपयोगी होने के साथ-साथ सजाने के काम आता है तथा जिसे मुख्यतः हाथ से या सरल औजारों से ही बनाया जाता है.
ऐसी कलाओं का धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व होता है. ऐसी चीजें हस्तशिल्प में नहीं आतीं जो मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर बनायी जाती हैं. भारत, हस्तशिल्प का सर्वोत्कृष्ट केंद्र है. यहां दैनिक जीवन की सामान्य वस्तुएं भी कलात्मक रूप में गढ़ी जाती हैं. भारत का प्रत्येक क्षेत्र अपने विशिष्ट हस्तशिल्प पर गर्व करता है. कश्मीर कढ़ाई वाली शालें, गलीचों, नामदार सिल्क तथा अखरोट की लकड़ी के बने उपस्कर (फर्नीचर) के लिए प्रसिद्ध है.
राजस्थान बंाधनी काम के वस्त्रों, कीमती हीरे-जवाहरात जरी आभूषणों, चमकते हुए नीले बर्तन और मीनाकारी के लिए प्रसिद्ध है. आंध्र प्रदेश बीदरी के काम तथा पोचमपल्ली की सिल्क साड़ियों के लिए प्रख्यात है. तमिलनाडु ताम्र मूर्तियों एवं कांजीवरम साड़ियों के लिए जाना जाता है, तो मैसूर रेशम और चंदन, केरल हाथी दांत की नक्काशी व शीशम के उपस्कर के लिए प्रसिद्ध है.
मध्य प्रदेश की चंदेरी और कोसा सिल्क, लखनऊ की चिकन, बनारस की ब्रोकेड़ और जरी वाली सिल्क साड़ियां तथा असम का बेंत का उपस्कर, बांकुरा का टेराकोटा तथा बंगाल का हाथ से बुना हुआ कपड़ा, भारत के विशिष्ट पारंपरिक सजावटी दस्तकारी के उदाहरण हैं. ये कलाएं पीढ़ी-दर-पीढ़ी पोषित होती रही हैं और हजारों हस्तशिल्पकारों को रोजगार प्रदान करती हैं. भारतीय शिल्पकार जादुई स्पर्श से एक बेजान धातु, लकड़ी या हाथी दांत को कलाकृति में बदलकर अतुलनीय पहचान दिलाते हैं.
हिंदुओं के धर्मग्रंथ में प्रजापति दक्ष की चर्चा है. दक्ष ने ही सर्वप्रथम शिल्पकारों को परिभाषित किया. सभ्यता के विकास में प्रथम चरण शिकार का बताया जाता है. इसके बाद पशुपालन और खेती प्रारंभ हुई. इसके लिए उपकरणों की जरूरत पड़ी. आवश्यकताओं ने समाज में एक नये वर्ग को जन्म दिया जो शिल्पी समाज या विश्वकर्मा समाज कहलाया. व्यापार में भी इस समाज की तूती बोलने लगी. भारत जो कभी सोने की चिड़िया कहलाता था उसका आधार भी यही समाज था.
जहां एक ओर इस समाज ने कृषि, पशुपालन को शक्ति प्रदान की, वहीं दूसरी ओर सामरिक आयुध निर्माण एवं आर्थिक विकास में भी देश को उन्नत किया. संस्कृति, सभ्यता और धार्मिक मूल्यों को गढ़ने वाला यह समाज आक्रांताओं से आहत हुआ. भारतीय जनसंख्या में आज भी 30 प्रतिशत की संख्या शिल्पकारों की है. विदेशी आक्रमण, आधुनिकीकरण और सरकारी उपेक्षाओं के कारण अधिकतर लोग पारंपरिक पेशा छोड़ कर दूसरे पेशे में उतर आये हैं.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ग्रामीण आधारभूत संरचना की बात कर रही है, लेकिन उसमें शिल्पकारों का कोई स्थान नहीं दिख रहा है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आज भी शिल्पकारों की जबरदस्त भूमिका है. जब तक पारंपरिक खेती को आधुनिकता प्रदान नहीं की जायेगी तब तक खेती फायदे की नहीं हो सकती है. आधुनिकता का मतलब पश्चिमीकरण नहीं है. चीन और जापान ने अपने यहां विकास का एक मॉडल तैयार किया है.
उनसे सीखकर भारतीय समाज में इसे प्रयोग करने की जरूरत है. कोविड के दौर में लाखों युवा बेरोजगार हुए हैं. गांव सबको नियोजित कर सकते हैं लेकिन उसके लिए पहले गांवों को मजबूत करना होगा. गांव केवल किसान या पशुपालकों से मजबूत नहीं हो सकता है. इसके लिए शिल्पकारों को भी मजबूत बनाना होगा. आइये हम विश्वकर्मा जयंती पर गांव और शिल्पकारों को मजबूत करने का संकल्प लें.