स्थानीय इतिहास से बेपरवाही न हो

अपनी स्थानीयता, अपने शहर और पूर्वजों पर गर्व करनेवाला समाज ही अपने परिवेश और सरकारी या निजी संपत्ति से जुड़ाव महसूस करता है और उसे सहेजने के प्रति संवेदनशील बनता है.

By पंकज चतुर्वेदी | January 4, 2022 8:10 AM

पीलीभीत के बांसुरी महोत्सव में आये बच्चे, नौकरीपेशा लोग व स्थानीय व्यापारी इस बात से बेखबर थे कि कभी सुभाषचंद्र बोस को देश से बाहर ले जाने में मददगार भगतराम तलवार बीस साल तक उनके ही शहर में रहे थे. उन्हें यह भी नहीं पता था कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनके शहर के आयुर्वेदिक काॅलेज का एक छात्र दामोदर दा शहीद हो गया था.

पीलीभीत की बांसुरी मशहूर करनेवालों की रुचि इसमें नहीं थी कि यहां एक प्राचीन जामा मस्जिद, उसके पीछे गौरीशंकर मंदिर या छठी पादशाही गुरुद्वारा भी है.

एटा का सरकारी स्कूल 134 साल पुराना हो गया. उसने कई अफसर, नेता, अभिनेता आदि बनाये, लेकिन जैसे ही नया भवन बना, पुरानी इमारत खंडहर हो गयी. शाहजहांपुर में 1857 के महान लड़ाके मौलवी साहब की कब्र हो या बिस्मिल का मकान, गुमनामी में हैं. शायद देश के हर कस्बे-शहर की यही त्रासदी है. विडंबना है कि जब तब इतिहास को नये तरीके से लिखने का विचार आता है, तो सांप्रदायिक विवादों में घिर जाता है.

अपनी स्थानीयता, अपने शहर और पूर्वजों पर गर्व करनेवाला समाज ही अपने परिवेश और सरकारी या निजी संपत्ति से जुड़ाव महसूस करता है और उसे सहेजने के प्रति संवेदनशील बनता है. यह भी समझना होगा कि अब वह पीढ़ी गिनती की रह गयी है, जिसने आजादी के संघर्ष को या तो देखा या उसके सहभागी रहे. यह देश का कर्तव्य है कि उस लड़ाई से जुड़े स्थान, दस्तावेज, घटनाओं को उनके मूल स्वरूप में सहेजा जाए, वरना इतिहास वही बचेगा, जो राजनीतिक उद्देश्य से गढ़ा जा रहा है.

इतिहास के तथ्यों पर एकमत न होना स्वाभाविक है. इतिहास को नये तरीके से लिखने के लिए इतिहासकार तथ्यों की व्याख्या नये तरीकों से करते हैं, जो अतीत के बारे में हमारी धारणाओं को समृद्ध करते हों. खासकर आजादी का इतिहास लिखने के लिए जरूरी है कि उसकी प्रमुख घटनाओं से जुड़ी इमारतों-स्थानों को सुरक्षित रखा जाए.

आगरा या कानपुर में सरदार भगत सिंह के ठहरने के स्थान को अब नहीं तलाशा जा सकता, झांसी में आजाद सहित कई क्रांतिकारियों के स्थान का कोई अता-पता नहीं, जलियांवाला बाग में गोलियों के निशान दमकते म्यूरल से ढक दिये गये. दस्तावेजों के रखरखाव में भी हम गंभीर नहीं रहे. तभी इतिहास को किंवदंती या अफवाह के घालमेल से पेश करने में कई जिम्मेदार व नामी लोग भी संकोच नहीं करते.

स्थानीय इतिहास को सहेजना व उसका दस्तावेजीकरण असल में देश के इतिहास को फिर से लिखने जैसा है. इतिहास का पुनर्लेखन ऐतिहासिक ज्ञान की वृद्धि का स्वाभाविक पक्ष है, तो हमें सतर्क भी रहना होगा कि तर्कों के मूल में छिपी बातों की कल्पना करना या पूर्वानुमान लगाना, उठाये गये प्रश्नों, ज्ञान को प्रामाणिकता प्रदान करने की प्रक्रिया, विस्तार की गयी कहानी के स्वरूप आदि किस तरह से प्रासंगिक व व्यापक इतिहास से जुड़ें.

उन्नीसवीं सदी के अंतिम दिनों में भारतीय इतिहास को ब्रितानी इतिहासकार सेना में बगावत, किसानों के विद्रोह और शहरी क्षेत्रों में उपनिवेश विरोधी आंदोलनों के नजरिये से लिखने लगे. उसी समय संप्रदाय आधारित लेखन भी शुरू हो चुका था. एक धारा राष्ट्रवादी लेखन की भी थी, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसे लेखकों के मूलभूत सामाजिक-आर्थिक तथ्यों का आधार शासन-प्रदत्त आंकड़े ही रहे. इस आपाधापी में जो अपना इतिहास लिख गया, वह किताबों मे रह गया, लेकिन जो इतिहास कई बड़ी घटनाओं का साक्षी रहा, वह लापरवाही का शिकार हो गया.

स्थानीय समाज जानता ही नहीं था कि उसे इन यादों को कैसे समेटना है तथा बड़े इतिहासकार वहां तक पहुंचना ही नहीं चाहते थे. इसका लाभ उठा कर स्कूली व्यवस्था के बाहर बाजार में स्थानीय व राष्ट्रीय इतिहास पर प्रकाशित लोकप्रिय पुस्तिकाओं ने ऐतिहासिक ज्ञान को दूसरे तरीके से प्रचारित किया. बगैर किसी तथ्य, प्रमाण या संदर्भ के लिखी गयीं इन पुस्तकों के पाठक बड़ी संख्या में थे, क्योंकि ये कम कीमत पर मिल जाती थीं.

बहुत बाद में पता चला कि ऐसी पुस्तकों ने लोकप्रिय ऐतिहासिक संवेदनशीलता को काफी चोट पहुंचायी. अकेले क्रांतिकारी ही नहीं, लेखक-पत्रकार, लोक कलाकार, कलाओं आदि के प्रति भी बेपरवाही ने इलेक्ट्रॉनिक गजट व गूगल पर निर्भर पीढ़ी को अपने आसपास बिखरे ज्ञान, सूचना और संवेदना के प्रति लापरवाह बना दिया है. पीलीभीत में ही बांसुरी महोत्सव में स्थानीय इतिहास व सेनानियों की एक प्रदर्शनी होती, तो लगता कि महोत्सव महज बाजार नहीं है.

ऐसे में उच्चतर माध्यमिक स्तर पर बच्चों में इतिहास के प्रति अन्वेषी दृष्टि विकसित करने का कोई उपक्रम शुरू हो और हर जिले के कम से कम एक विद्यालय में दस्तावेजीकरण का संग्रहालय हो. मुफ्त ब्लॉग पर ऐसी सामग्री डिजिटल रूप से प्रस्तुत कर दी जाए, तो दूरस्थ इलाकों के लोग अपने स्थानीय इतिहास को उससे संबद्ध कर अपने इतिहास-बोध को विस्तार दे सकते हैं.

आजादी की लड़ाई में अपना जीवन खपा देनेवाले गुमनाम लोगों से जुड़े स्थानों को ऐतिहासिक महत्व का पर्यटन स्थल बना सकते हैं. वैसे कक्षा आठ तक जिला स्तर के भूगोल, इतिहास और साहित्य की पुस्तकें अनिवार्य करना चाहिए तथा उनके लिए सामग्री का संकलन स्थानीय स्तर पर ही हो. हमारा वर्तमान अपने अतीत की नींव पर ही खड़ा है और उसी पर भविष्य की इमारत बुलंद होती है. समय आ गया है कि पुरानी नींव को सुरक्षित, संरक्षित व मजबूत बनाया जाए.

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