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प्रकृति को सहेजने का लोकपर्व

संभवतः हमारे पूर्वज भविष्य में मनुष्य द्वारा प्रकृति के निरादर के प्रति सशंकित थे, इसलिए उन्होंने इसको धर्म से जोड़ दिया, ताकि लोग धार्मिक विधानों में बंध कर ही सही, प्रकृति का सम्मान व संरक्षण करते रहें.

भारतीय पर्वों की सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वे किसी न किसी आस्था से प्रेरित होते हैं. अधिकाधिक पर्व अपने साथ व्रत अथवा पूजा का संयोजन किये हुए हैं. इसी कड़ी में पूर्वी भारत में सुप्रसिद्ध छठ पूजा भी है. लोकमान्यता के अनुसार इसकी आराध्य देवी छठ मईया हैं, वहीं देवता के रूप में इस पर्व में सूर्य की प्रतिष्ठा है. चाहे जिन देवी-देवताओं की आराधना को माध्यम बनाएं, वास्तव में यह पर्व प्रकृति-पूजन व संरक्षण की सनातन दृष्टि का ही संवहन करता है.

अखिल ब्रह्मांड में, जहां सूर्य स्वयं प्रकृति का एक अंग हैं, वहीं धरती पर अवस्थित प्राकृतिक संपदाओं के पोषक पिता भी हैं. सूर्य की उपासना से छठ पर्व का प्रकृति से जुड़ाव स्थापित हो जाता है. इस पर्व में प्रकृति के महत्व और उपयोगिता का संदेश विद्यमान है. छठ के प्रसाद में लगभग सभी प्रमुख फल होते हैं. सुथनी, शरीफा, गागल जैसे अल्प-प्रचलित फल तक इसमें चढ़ाये जाते हैं. प्रसाद को चढ़ाने के लिए प्रयुक्त पात्र जैसे कि सूप, डलिया आदि भी बांस से बने होते हैं.

आज के दौर में जब लगातार कटते पेड़ों और तेजी से पिघलते ग्लेशियरों के कारण धरती पर संकट बढ़ता जा रहा है, तब छठ से निकलते इस संदेश की प्रासंगिकता व महत्ता और भी बढ़ जाती है. छठ की पूजा मंदिर आदि की बजाय किसी नदी या पोखरे के किनारे प्रकृति की खुली गोद में होती है. यह सामूहिकता का उत्सव होता है और खास बात है कि इसमें समाज में व्याप्त ऊंच-नीच और बड़े-छोटे के सब भेदभाव मिट जाते हैं. सामाजिक समानता की यह भावना छठ-पूजा को मानव कल्याण के धरातल पर बहुत ऊपर प्रतिष्ठित करती है.

जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया जाना छठ का सबसे जरूरी नियम है. आज मानव द्वारा अपने अबाध स्वार्थों के लिए किये जा रहे अंधाधुंध प्राकृतिक दोहन ने जल का संकट भी खड़ा कर दिया है. नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2030 तक पानी खत्म होने के कगार पर पहुंच जाने का अनुमान है. देश के कई इलाकों में जब-तब पानी के लिए त्राहिमाम मचा ही रहता है. हमने जल संचयन के उपायों की उपेक्षा की है, परिणामतः आज जल संकट इतना गंभीर हो चुका है.

जीवन में जल की महत्ता को रेखांकित करते हुए उसके प्रकृति निर्मित और मानव निर्मित, दोनों प्रकार के स्रोतों के संरक्षण व विकास पर ध्यान देने का संदेश छठ पर्व देता है. जल में खड़े होकर सूर्य की किरणों से पोषित हो उपजे अन्न और फल का प्रसाद उन्हें अर्घ्य रूप में अर्पित करने के पीछे शायद यही भाव है कि प्रकृति से सिर्फ लिया ही नहीं जाता, वरन उसको देने का संस्कार भी मनुष्य को सीखने की जरूरत है. केवल लेते रहने से एक दिन प्रकृति अपने हाथ समेट लेगी, तब मनुष्य के लिए कोई चारा नहीं बचेगा.

सामान्यतः लोग उदय सूर्य को उत्तम मानते हुए उसकी आराधना करते हैं. शायद इसकी प्रेरणा से ‘उगते सूरज को दुनिया सलाम करती है’ जैसी कहावत भी समाज में प्रचलित है, लेकिन छठ पर्व इन बातों को चुनौती देता है. इसमें डूबते और उगते दोनों सूर्यों को अर्घ्य दिया जाता है. इसमें भी पहला अर्घ्य डूबते सूर्य को दिया जाता है, जिसका संदेश साफ है कि जो आज डूब रहा है, उसकी अवहेलना न करिए, बल्कि सम्मान के साथ उसे विदा करिए, क्योंकि कल को फिर वही जरा अलग रंग-ढंग के साथ पुनः उदित होगा. दूसरे शब्दों में कहें, तो छठ का यह अर्घ्य-विधान अतीत के सम्मान और भविष्य के स्वागत का संदेश देने की भावना से पुष्ट है.

छठ के गीतों की भी अपनी ही एक छटा होती है. धुन, लय, बोल आदि सभी मायनों में वे एक अनूठा और अत्यंत मुग्धकारी वैशिष्ट्य लिये चलते हैं. इस पर्व में निहित प्रकृति की प्रतिष्ठा का भाव भी छठ के गीतों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. ‘कांच ही बांस के बहंगिया’, ‘मरबो जे सुगवा धनुष से’, ‘केलवा के पात पर’, ‘पटना के घाट पर’ आदि इस पर्व के कुछ सुप्रसिद्ध गीत हैं, जिन्हें तमाम बड़े-छोटे गायकों द्वारा गाया भी जा चुका है. इन गीतों में प्राकृतिक तत्वों को पकड़ कर बड़ा सुंदर और संदेशप्रद अर्थ-विधान गढ़ा गया है.

हमारे पौराणिक ग्रंथों में नदियों, वृक्षों, पर्वतों आदि का मानवीकरण करते हुए उनमें जीवन की प्रतिष्ठा की गयी है. नदियों को माता कहने से लेकर पेड़ और पहाड़ का पूजन करने की भारतीय परंपराओं को पूर्वाग्रहवश कोई अंधविश्वास भले कहे, परंतु ये परंपराएं हमारी संस्कृति के प्रकृति-प्रेमी चरित्र की ही सूचक हैं. संभवतः हमारे पूर्वज भविष्य में मनुष्य द्वारा प्रकृति के निरादर के प्रति सशंकित थे, इसलिए उन्होंने इसको धर्म से जोड़ दिया, ताकि लोग धार्मिक विधानों में बंध कर ही सही, प्रकृति का सम्मान व संरक्षण करते रहें.

छठ से लेकर कुंभ जैसे पर्व हमारे पूर्वजों की इसी दृष्टि का परिणाम प्रतीत होते हैं और अपने निर्धारित उद्देश्यों को कमोबेश साधते भी आ रहे हैं. अतः कथित विकास के वेग में प्राकृतिक विनाश करता आज का आधुनिक मनुष्य छठ आदि पर्वों में निहित प्रकृति से प्रेम के संदेश को यदि सही प्रकार से समझ ले, तो यह धरती सब की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए अनंतकाल तक जीवनयोग्य रह सकती है.

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