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गांव-देहात से निकलते बड़े खिलाड़ी

हमारे देश में गांव-देहात से निकले गरीब खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं. बेहतर माहौल तैयार हो, तो हम हर खेल में अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं.

खेलों का महाकुंभ ओलिंपिक सालभर की देरी से जापान के टोक्यो शहर में आयोजित होने जा रहा है. इसकी शुरुआत 23 जुलाई को होगी और समापन 8 अगस्त को होगा. कोरोना महामारी के कारण इसे पिछले साल स्थगित करना पड़ा था. अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति और जापान सरकार ने काफी विमर्श के बाद इसके आयोजन पर सहमति दे दी है. हालांकि यह निर्णय भी किया गया है कि जापान के अलावा किसी दूसरे देश के दर्शक टोक्यो जाकर प्रतिस्पर्धाओं को नहीं देख सकेंगे.

भारत में भी ओलिंपिक खेलों के लिए खिलाड़ियों के नामों की घोषणा होने लगी है. किसी भी खिलाड़ी के लिए ओलिंपिक तक का सफर तय करना कोई आसान बात नहीं है. हाल में 16 सदस्यीय महिला हॉकी टीम की घोषणा हुई, जिसमें झारखंड की भी दो बेटियों- डिफेंडर निक्की प्रधान और मिडफील्डर सलीमा टेटे- का चयन हुआ है. निक्की प्रधान का जन्म रांची से लगभग 60 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल जिले खूंटी के हेसल गांव में हुआ.

उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि कोई बहुत मजबूत नहीं है, लेकिन अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर उन्होंने भारतीय हॉकी टीम में जगह बनायी है. इससे पहले निक्की प्रधान का चयन 2016 रियो ओलिंपिक के लिए भी हुआ था. सलीमा टेटे झारखंड के सिमडेगा जिले की रहनेवाली हैं. उनका भी सफर आसान नहीं रहा है. वे पहली बार ओलिंपिक के लिए चुनी गयी हैं. संघर्ष और प्रतिभा के बल पर सलीमा इस मुकाम तक पहुंची हैं.

शुरुआती दौर में वे आसपास खेलकर हॉकी सीखती थीं. बाद में स्कूल के आवासीय प्रशिक्षण के माध्यम से उनकी प्रतिभा में निखार आया. अनेक अंतरराष्ट्रीय मैचों में अपने शानदार प्रदर्शन की बदौलत उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. ओलिंपिक के लिए पुरुष हॉकी टीम की घोषणा भी हुई है, जिसमें वाराणसी के ललित उपाध्याय का चयन हुआ है. ललित फॉरवर्ड खिलाड़ी के रूप में टीम का हिस्सा होंगे. जिस तरह झारखंड हॉकी खिलाड़ियों की खान है, उसी तरह वाराणसी से भी अनेक हॉकी खिलाड़ी निकले हैं.

ललित उपाध्याय वाराणसी से चौथे हॉकी खिलाड़ी हैं, जो ओलिंपिक टीम में शामिल होंगे. इससे पहले वाराणसी के मोहम्मद शाहिद, विवेक सिंह और राहुल सिंह भी ओलिंपिक हॉकी में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. ललित वाराणसी के एक छोटे से गांव से हैं. मेरठ की प्रियंका गोस्वामी ने भी रेस वॉक यानी पैदल चाल में जगह बनायी है. उन्होंने रांची में आयोजित रेस वॉक चैंपियनशिप में राष्ट्रीय रिकॉर्ड के साथ स्वर्ण पदक जीता था.

प्रियंका का जीवन भी मुश्किलों से भरा रहा है. वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक गांव की रहनेवाली हैं. उनके पिता यूपी रोडवेज में परिचालक थे, लेकिन किन्हीं कारणों से उनकी नौकरी चली गयी. उसके बाद मुश्किलों का दौर शुरू हो गया. उनके परिवार से बातचीत पर आधारित मीडिया रिपोर्टों के अनुसार लंबे समय तक प्रियंका एक समय का खाना गुरुद्वारे के लंगर में खाती थीं. साल 2011 में पहला पदक हासिल जीतने के बाद परिस्थितियां बदलीं. प्रियंका ने पटियाला से स्नातक किया और उसके बाद बेंगलुरु साईं सेंटर में उनका चयन हुआ, जहां उन्हें विधिवत प्रशिक्षण मिला.

खेल कोटे से उन्हें 2018 में रेलवे में नौकरी मिली, तब जाकर उनकी जिंदगी थोड़ी पटरी पर आयी. पंजाब के लुधियाना जिले के एक गांव से निकली मुक्केबाज सिमरनजीत कौर ने भी टोक्यो ओलिंपिक के लिए क्वालीफाई किया है. सिमरन गांव एक साधारण ग्रामीण परिवार से हैं. उनकी मां जीविकोपार्जन के लिए काम करती थीं और पिता एक मामूली नौकरी करते थे. कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद सिमरनजीत ने वर्षो की कड़ी मेहनत कर ओलिंपिक टीम में जगह बनायी है. उनकी बड़ी बहन और दो भाई भी मुक्केबाज हैं, पर इनमें से कोई भी सिमरनजीत जितनी कामयाबी हासिल नहीं कर पाया है.

साल 2018 के इंडोनेशिया में आयोजित एशियाई खेलों के दौरान सोशल मीडिया पर एक संदेश ने खासा सुर्खियां बटोरी थीं कि हॉर्लिक्स, बूस्ट और कंप्लान वाले रह गये और बाजरे की रोटी व लहसुन की चटनी वाले पदक जीत गये. दरअसल, उस आयोजन में गांव-देहात के खिलाड़ियों, जिनके पास सुविधाओं का अभाव है, ने पदक जीत कर भारत का परचम लहरा दिया था. इन खेलों में भारत ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया था और 69 पदक जीते थे.

एशियाई खेलों के इतिहास में यह भारत का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था. इस कामयाबी में छोटे स्थानों से आये खिलाड़ियों, खासकर महिला खिलाड़ियों, का बड़ा योगदान रहा था. महिलाओं ने एथलेटिक्स, स्क्वॉश, शूटिंग समेत कई खेलों में पदक जीते थे. अभी तक धारणा यह है कि खेलों में सुविधाओं के कारण समृद्ध देशों के खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहतर रहता है. ये देश अपने खिलाड़ियों को तैयार करने में बड़ी धनराशि राशि खर्च करते हैं. शायद यही कारण है कि कोई भी अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धा हो, वहां अमेरिका और पश्चिमी देशों का दबदबा देखने को मिलता है. लेकिन हमारे देश में गांव-देहात से निकले गरीब खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं.

हमारे प्रसार के तीनों राज्यों- झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल को ही लें, तो यहां हॉकी व फुटबॉल खूब खेली जाती है. कोरोना काल से पहले झारखंड के 15 युवा खिलाड़ियों का चयन ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन की प्रतिभा खोज के तहत नेशनल कैंप के लिए हुआ था. इसमें खूंटी, गुमला, जामताड़ा जैसी छोटी जगहों के नवयुवक शामिल थे. फुटबॉल फेडरेशन की योजना फीफा अंडर-17 वर्ल्ड कप, एशियाई खेल और ओलंपिक के लिए टीम तैयार करना है. यदि युवा खिलाड़ियों को मौका और मार्गदर्शन मिलेगा, तो वे आनेवाले दिनों देश का नाम रौशन करेंगे.

हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे खेल संघों पर नेताओं ने कब्जा कर रखा है. देश में सकारात्मक खेल संस्कृति पनपे, इसके लिए खेल प्रशासन पेशेवर लोगों के हाथ में होना चाहिए. लेकिन हुआ इसके ठीक उलट. नतीजतन अधिकतर खेल संघ राजनीति का अखाड़ा बन गये हैं. खेल संघों में फैले भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार और निहित स्वार्थों ने खेलों और खिलाड़ियों को भारी नुकसान पहुंचाया है. यही वजह है कि हम आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कहीं नहीं ठहरते हैं. हमारे देश में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है. यदि बेहतर माहौल तैयार किया जाए और युवा खिलाड़ियों को उचित मार्गदर्शन मिले, तो हम हर खेल में अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं.

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