‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून; पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून’- जाने-माने कवि रहीम दास ने करीब चार-सवा चार सौ साल पहले कई अर्थों में यह दोहा रचा था. पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में विनम्रता से है. दूसरा अर्थ आभा से है, जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं. तीसरा अर्थ जल से है, जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है. भारी बारिश के बावजूद हम हर साल जल संकट से जूझते हैं. गांवों को तो छोड़ ही दें, शहरों में भी पेयजल की उपलब्धता की कमी हो जाती है.
जो पानी उपलब्ध भी होता है, वह दूषित होता है, लेकिन ओडिशा के पुरी शहर ने सराहनीय पहल की है. पुरी देश का पहला ऐसा शहर बन गया है, जिसने शहर भर में गुणवत्तापूर्ण पानी की आपूर्ति सुनिश्चित कर दी है. पुरी अब अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, सिंगापुर जैसे विकसित देशों की कतार में खड़ा हो गया है. पुरी के ढाई लाख लोगों को अब स्वच्छ जल के लिए बोतलबंद पानी खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी और उन्हें पेयजल नल के जरिये मिलेगा. हाल में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने नल द्वारा 24 घंटे स्वच्छ जल की आपूर्ति योजना को पुरी के नागरिकों को समर्पित किया.
पुरी में हर वर्ष आनेवाले लाखों श्रद्धालुओं को भी बोतल बंद पानी नहीं खरीदना होगा. ऐसा अनुमान है कि नल जल योजना शुरू हो जाने से पुरी में सालाना 400 मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरे में भी कमी आयेगी. ओडिशा सरकार 16 शहरों के 40 लाख लोगों को पीने का शुद्ध पानी मुहैया कराने की योजना पर काम कर रही है. अगर यह व्यवस्था देश के हर शहर में संभव हो जाए, तो लोगों को बड़ी राहत मिलेगी.
संयुक्त राष्ट्र ने एक सर्वेक्षण में पाया है कि दुनिया के लगभग 400 से ज्यादा शहरों में पीने के पानी की भारी किल्लत हैं. जल संकट से जूझनेवाले 20 प्रमुख शहरों में चार भारत के भी हैं. अक्सर देखने में आया है कि जो पानी उपलब्ध भी होता है, वह इतना दूषित होता है कि उसे पीने से लोग बीमार पड़ सकते हैं. पानी की कमी के विषय में हम तभी सोचते हैं, जब समस्या सिर पर आ खड़ी होती है. अगर गर्मी में पानी की कमी से बचना है, तो बारिश के दिनों में हमें इस बारे में सोचना होगा और जल संचयन के उपाय करने होंगे.
जल विशेषज्ञों का मानना है कि 2030 तक विश्व स्तर पर पेयजल की मांग और आपूर्ति में भारी अंतर आ जायेगा. इसके तीन प्रमुख कारण हैं- जलवायु परिवर्तन, बेतरतीब विकास और जनसंख्या वृद्धि, लेकिन हमारी सरकारें और समाज अभी तक इसे लेकर चेते नहीं हैं. कुछ समय पूर्व संयुक्त राष्ट्र के सर्वे में पाया गया कि बेंगलुरु शहर ऐसे ही संकट का सामना करने जा रहा है. बंगलूरू एक तरह से देश की तकनीकी राजधानी है, लेकिन मैंने जितनी भी राजनीतिक बहसें सुनी हैं, उनमें इसका जिक्र तक नहीं होता है.
राज्य का झंडा कैसा हो, इस पर बहस चल सकती है. भाषाई मुद्दे को हवा दी जा सकती है. लिंगायत समाज को विशेष व्यवस्था मिले, क्योंकि इस समाज के वोट बहुत हैं, ऐसे मुद्दे चर्चा में रहते हैं, मगर दुर्भाग्य है कि जल संकट दूर करने के उपाय का खाका कोई दल पेश नहीं करता है. लोग भी इसे लेकर उदासीन हैं. यह बात हमें समझनी होगी कि समस्या कम बारिश की नहीं, बल्कि जल संरक्षण की है. हमने अपने तालाबों को पाट दिया है. शहरों में तो उनके स्थान पर बहुमंजिली इमारतें और मॉल खड़े हो गये हैं.
झारखंड में अच्छी बारिश हो रही है. वैसे भी यहां साल में लगभग 1400 मिलीमीटर बारिश होती है, लेकिन बारिश का पानी बह कर निकल जाता है, उसके संचयन का कोई उपाय नहीं है. इसे चेक डैम अथवा तालाबों के जरिये रोक लिया जाए, तो साल भर खेती और पीने के पानी की समस्या नहीं होगी.
महज 20 साल पहले तक बिहार में लगभग ढाई लाख तालाब हुआ करते थे, लेकिन यह संख्या सिर्फ 93 हजार रह गयी है. शहरों के तालाबों पर भू माफिया की काली नजर पड़ गयी और एक झटके में डेढ़ लाख से अधिक तालाब काल कवलित हो गये. उनके स्थान पर इमारतें खड़ी हो गयीं. फलस्वरूप शहरों का जलस्तर तेजी से घटने लगा है. दरभंगा जैसे शहर में, जहां कभी बहुत कम गहराई पर पानी उपलब्ध होता था, वहां भी जलस्तर दो सौ फीट नीचे तक चला गया है. यही स्थिति अन्य शहरों की भी है. बिहार के तालाबों में सैकड़ों किस्म की मछलियां होती थीं, वे भी खत्म हो गयीं.
अगर केंद्र व राज्य सरकारों और समाज ने जल व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया, तो ज्यादातर बड़े शहरों में कुछ बरसों में पानी उपलब्ध नहीं होगा. मैं बार-बार सरकारों के साथ समाज का जिक्र इसलिए करता हूं कि यह केवल सरकारों के बूते की बात नहीं है. समाज को भी आगे आना होगा. हम लोग गांवों में जल संरक्षण के उपाय करते थे, उसे भी हमने छोड़ दिया है.
तालाबों पर बहुत काम करनेवाले प्रसिद्ध पर्यावरणविद दिवंगत अनुपम मिश्र का मानना था कि जल संकट प्राकृतिक नहीं, मानवीय है. हमारे देश में बस्ती के आसपास तालाब, पोखर आदि बनाये जाते थे. यह काम प्रकृति के अनुकूल किया जाता था. इस काम के विशेषज्ञ थे, लेकिन वे जनसामान्य लोग ही थे. आज तालाबों को दोबारा जिंदा करने की जरूरत है. भूजल स्तर जिस तरह से नीचे जा रहा है, उसे रोकने का उपाय केवल जल संरक्षण ही है.
पर्यावरण संरक्षण और जल संकट से बचने के लिए जनभागीदारी बढ़ाने की जरूरत है. इसके लिए नीतियां जनोपयोगी बनें और वे पर्यावरण के अनुकूल हों, इसके लिए प्रबुद्ध लोगों को हस्तक्षेप करने की जरूरत है. पानी के लिए धरती का दोहन करने के बजाय सतह के जलाशय को संरक्षित करने की जरूरत है. सिर्फ सरकार के भरोसे पर्यावरण संरक्षण का काम नहीं हो सकता है.
इसकी शुरुआत घर से करनी होगी. बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में तालाबों का संरक्षण बेहद जरूरी है. स्कूलों में पर्यावरण संबंधी जानकारी बच्चों को देनी होगी. सबको संकल्प लेना होगा कि न केवल पेड़ लगायेंगे, बल्कि इसे बचायेंगे भी. पर्यावरण संरक्षण से संबंधित नीतियों-कानूनों का पालन सही ढंग से हो, इसके लिए दबाव बनाना होगा. जनसंख्या का जल स्रोतों पर दबाव बढ़ रहा है, सो जनसंख्या नियंत्रण पर भी हमें सोचना होगा. हम सभी को जल संचय का संकल्प लेना होगा, वरना यह आपदा का रूप ले लेगा.