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ठोस नियम बनें

सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से ऐसा समझौता पत्र बनाने को कहा है, जिसके तहत निर्माताओं और एजेंटों के साथ ग्राहकों का स्पष्ट समझौता हो.

By संपादकीय | January 19, 2022 2:19 PM

तेज शहरीकरण के साथ आवास की जरूरत भी बढ़ती जा रही है. साथ ही, रियल इस्टेट कारोबार भी बढ़ता जा रहा है. इससे एक ओर जहां हर आय वर्ग के लिए आवास की उपलब्धता बढ़ रही है, वहीं अक्सर कारोबारियों द्वारा ग्राहकों के साथ मनमाना व्यवहार करने की शिकायतें भी बढ़ती जा रही हैं. रियल इस्टेट कंपनियां और एजेंट भ्रामक शर्तों एवं जटिल अनुबंधों के जरिये ग्राहकों से अधिक कीमत वसूल रहे हैं.

ऐसे मामले भी बड़ी संख्या में सामने आते हैं, जिनमें समय पर निर्मित आवास आवंटित नहीं किये जाते. इससे ग्राहकों को वित्तीय क्षति तो होती ही है, उन्हें मानसिक परेशानियों से भी गुजरना पड़ता है. इस समस्या से निजात पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से कहा है कि एक समझौता पत्र तैयार किया जाना चाहिए, जिसके तहत भवन निर्माताओं और एजेंटों के साथ ग्राहकों का स्पष्ट समझौता हो.

पहले केंद्र सरकार ने कहा था कि कानून के अनुसार आवंटन और गुणवत्ता से संबंधित मामलों की निगरानी करना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है. वर्ष 2016 में आवास बनानेवाली कंपनियों तथा ग्राहकों के हितों की रक्षा करने और खरीद-बिक्री की प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से रियल इस्टेट नियमन एवं विकास कानून लागू किया गया था. इससे अनेक मुश्किलें तो दूर हुई हैं, पर अब भी ग्राहकों से कई बहानों की आड़ में घोषित कीमत से अधिक वसूला जाता है.

समय पर घर आवंटित नहीं करने की समस्या भी बनी हुई है. उल्लेखनीय है कि ऐसे घरों को सामान्य ग्राहक बैंकों से मिले कर्ज से खरीदता है और साथ में अपनी जमा-पूंजी भी लगा देता है. उसे उम्मीद रहती है कि जल्दी ही उसके पास अपना घर होगा और वह धीरे-धीरे बैंकों का पैसा लौटा देगा. लेकिन कीमत बढ़ जाने से उसे अतिरिक्त पूंजी की व्यवस्था करनी पड़ती है. यदि निर्धारित समय पर उसे घर नहीं मिलता, तो उसे बैंकों का ब्याज भी देना पड़ता है और किराया पर भी रहना पड़ता है.

यह ग्राहकों की क्षमता से अक्सर बाहर होता है कि वे ऐसी शिकायतों को अदालत लेकर जाएं. इस स्थिति में सरकार का ही सहारा बचता है. राज्य सरकारों की अपनी समस्याएं हैं और उनके कानून भी अलग-अलग हैं. शर्तों की जटिलता से भी ग्राहकों को परेशानी होती है. ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश उचित है और केंद्र सरकार को इस पर सकारात्मक रुख अपनाना चाहिए. देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह निर्देश कई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए दिया है.

इन याचिकाओं में कहा गया है कि ग्राहकों के हितों की रक्षा के लिए मौजूदा कानून में समुचित प्रावधान जोड़े जाने चाहिए. जिन राज्यों ने मानक समझौते नहीं बनाये हैं, उन्हें भी अपनी गलती का अहसास होना चाहिए. सरकारें आम लोगों को भवन बनानेवाली कंपनियों के हवाले छोड़कर अपनी जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकती हैं. उम्मीद है कि जल्दी ही इस बाबत कोई ठोस नियमन होगा.

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