विचाराधीन कैदियों और गिरफ्तार आरोपितों को जमानत देने के संबंध में सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के कई निर्देश हैं. इसके बावजूद विभिन्न वजहों से या तो जमानत नहीं दी जाती या याचिकाओं पर प्राथमिकता के साथ सुनवाई नहीं होती. एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा है कि जमानत की याचिका पर सुनवाई नहीं करना आरोपित के सुनिश्चित अधिकारों और आजादी का उल्लंघन है.
महामारी के इस दौर में भी ऐसी किसी सुनवाई को टाला नहीं जा सकता है. देश की सबसे बड़ी अदालत को यह निर्देश तब देना पड़ा है, जब ऐसी एक याचिका पर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक साल से अधिक समय से सुनवाई ही नहीं की. अगर उच्च न्यायालयों का ऐसा रवैया है, तो निचली अदालतों की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है.
पिछले साल दिल्ली उच्च न्यायालय ने रेखांकित किया था कि हर मामले में जेल भेजने के बजाय जमानत के विकल्प को अपनाने पर जोर दिया जाना चाहिए. कई मामलों के उदाहरण हमारे सामने हैं, जब बड़ी अदालतों ने बिना ठोस सबूत के लोगों को हिरासत में लेने या बहुत समय बीत जाने के बाद भी जांच पूरी नहीं करने के लिए पुलिस को आड़े हाथों लिया है तथा आरोपितों को जमानत दी है. कुछ दिन पहले ही तीन छात्रों को जमानत देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने तीखी टिप्पणी की है.
हकदार होने के बावजूद गिरफ्तारी के तुरंत बाद जमानत नहीं मिलने से आरोपितों को बेवजह जेल में रहना पड़ता है. हमारे देश की जेलों में बंद कैदियों में लगभग 70 फीसदी कैदी विचाराधीन हैं. इस संदर्भ में समकक्ष लोकतांत्रिक देशों की तुलना में हमारी स्थिति बहुत खराब है. जैसा कि पिछले साल दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा था, कैद मुख्यत: सजायाफ्ता लोगों के लिए है, न कि लोगों को संदेश देने के लिए आरोपितों को हिरासत में रखने की जगह.
जमानत देने में संकोच और कैद में रखने के पुलिस के आग्रह की वजह से हमारी जेलों में क्षमता से बहुत अधिक कैदी हैं. लंबित मामलों की बड़ी संख्या यह इंगित करती है कि यदि जमानत के अधिकार से आरोपितों को वंचित रखा जायेगा, तो जेलों में भीड़ बनी रहेगी और कैदी खराब दशा में रहने के लिए मजबूर रहेंगे. पुलिसकर्मियों, जजों और जेल कर्मचारियों की संख्या आवश्यकता से कम होने से समस्या और भी गंभीर होती जा रही है.
इस संदर्भ में कुछ और तथ्यों का संज्ञान लिया जाना चाहिए. बड़ी संख्या ऐसे विचाराधीन कैदियों की है, जिनके आरोपित अपराधों में कम सजा का प्रावधान है. तीस फीसदी ऐसे कैदी निरक्षर हैं और 70 फीसदी ने स्कूली शिक्षा पूरी नहीं की है. इनमें आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की संख्या भी बहुत है. न्यायिक प्रक्रिया के बढ़ते खर्च और उसकी जटिलता के कारण अधिकतर कैदी निचली अदालत से ऊपर अपील भी नहीं कर पाते हैं. इन पहलुओं के आलोक में हमारी न्यायिक व्यवस्था को अधिक उदार होने की आवश्यकता है.