देश की वित्तीय राजधानी मुंबई में मूसलाधार बारिश की वजह से फिर एक बार बाढ़ की स्थिति है. देश के उत्तरी भाग में जहां माॅनसून देर से पहुंचा है, वहीं पश्चिमी भारत के तटीय इलाकों में बहुत ज्यादा बरसात हो रही है. विशेषज्ञों का कहना है कि रूक-रूक कर कुछ समय के लिए होनेवाली यह भारी बरसात जलवायु परिवर्तन का परिणाम है तथा समुद्र से लगे पश्चिमी क्षेत्रों को ऐसी स्थिति का सामना करने के लिए तैयार होना होगा.
धरती के तापमान में बढ़ोतरी और मौसम के मिजाज में बदलाव के असर साल-दर-साल हमारे सामने साफ होते जा रहे हैं. देश के बड़े हिस्से में सूखे, बाढ़, लू और शीत लहर की बारंबारता बढ़ती जा रही है. सिंचाई, पेयजल, भूजल, वन्य क्षेत्रों के बचाव आदि के लिए हम मुख्य रूप से माॅनसून पर निर्भर हैं. लेकिन माॅनसून का हिसाब-किताब लगातार बदलता जा रहा है. बिना बारिश के दिनों की संख्या बढ़ रही है, तो थोड़े समय के लिए अत्यधिक वर्षा हो रही है. बीते सालों में शहरों में बाढ़ आने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं.
हिमालय की गोद में बसे कस्बेनुमा शहर हों, ऊंचाई पर बसा श्रीनगर हो, सुदूर दक्षिण में समुद्र किनारे स्थित चेन्नई हो या फिर गंगा तट का शहर पटना हो, तेज बारिश की बाढ़ की चपेट में कई शहर आये हैं. शहरों के प्रबंधन, निकासी, जलाशयों की सुरक्षा आदि अहम तो हैं, लेकिन ठोस समाधान के लिए बुनियादी समस्या पर ध्यान देने की जरूरत है. केवल बाढ़ ही नहीं, सूखा और लू जैसी मुश्किलों से बचाव के लिए भी हमारे पास यही रास्ता है.
बरसात के दिनों में आकाशीय बिजली गिरने की घटनाओं में भी बढ़त हो रही है. हमारे देश में चक्रवातों की तुलना में आकाशीय बिजली कहीं ज्यादा मौतों की वजह बनती है. अध्ययनों में बताया गया है कि यदि धरती के तापमान में एक डिग्री की वृद्धि होती है, तो इसमें 12 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है. जहां अधिक वर्षा से पश्चिमी तट त्रस्त है, वहीं आकाशीय बिजली का कहर पूर्वी तट पर ज्यादा है.
प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला यहीं तक नहीं है. इस साल अप्रैल के पहले पखवाड़े में ही 2020 की तुलना में जंगली आग की दोगुनी घटनाएं हुई थीं. नेपाल और हिमालय में बसे भारतीय राज्यों के वनों की आग न केवल उन क्षेत्रों के लिए, बल्कि देश के बड़े हिस्से के लिए गंभीर संकट का कारण बन सकती है. जल, वायु और भूमि के प्रदूषण ने इन आपदाओं के प्रभाव को और भी घातक बना दिया है.
बाढ़, गर्मी और जंगली आग से अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ पूरी दुनिया जूझ रही है. तात्कालिक रूप से बचाव के उपायों के साथ दीर्घकालिक नीतिगत पहल से ही इन प्रभावों को कमतर किया जा सकता है. जलवायु परिवर्तन समूचे विश्व की सबसे गंभीर समस्या है और इसका समाधान भी सहभागिता से ही संभव है.इस संबंध में विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की राय पर नीति-निर्धारकों को प्राथमिकता से अमल करने के साथ वर्तमान पहलों को अधिक गतिशील बनाने की आवश्यकता है.