गैरकानूनी कार्रवाई

यहां बात केवल 66ए की नहीं है, बल्कि कमोबेश यही स्थिति सुप्रीम कोर्ट के अन्य महत्वपूर्ण फैसलों को लागू करने में भी दिखती है.

By संपादकीय | August 4, 2021 2:22 PM
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दो साल पहले विपक्षी दल की एक कार्यकर्ता को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री का कार्टून साझा करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था. उन पर आइपीसी धारा-500 और आईटी अधिनियम, 2000 के अनुच्छेद-66ए और 67ए के तहत मामले दर्ज किये गये थे. मीम साझा करने के आरोप में गिरफ्तार करना और 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेजना, केवल उदाहरण भर नहीं है.

दरअसल, आइटी अधिनियम, 2000 के अनुच्छेद-66ए के तहत दर्ज होनेवाले मामलों की एक लंबी फेहरिस्त है. अमूमन, विरोधी आवाजों को दबाने के लिए इसका इस्तेमाल होता रहा है. आश्चर्यजनक है कि जिस कानून की आड़ में उत्पीड़न का यह चलन जारी है, उसे छह साल पहले ही सुप्रीम कोर्ट असंविधानिक करार दे चुका है. मार्च, 2015 में श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम अदालत ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम- 2000 की धारा-66ए को गैरकानूनी मानते हुए कहा था कि यह संविधान की धारा-19(1)ए का उल्लंघन करता है, 19(2) के तहत इसे संरक्षण नहीं दिया जा सकता.

इसे पूर्णतः ऐच्छिक और असंगत मानते हुए कोर्ट ने कहा था कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में दखल है, साथ ही इस अधिकार तथा यथोचित रोक का संतुलन बाधित होता है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों और उच्च कोर्टों के महापंजीयकों को नोटिस जारी कर धारा-66ए के तहत लगातार दर्ज होते मामलों पर आपत्ति जाहिर की है. जस्टिस आरएफ नरीमन और बीआर गवई की खंडपीठ ने एक जनहित की सुनवाई करते हुए कहा कि इस असंविधानिक प्रावधान को रोकना अति आवश्यक है.

बीते महीने सुप्रीम कोर्ट को दिये जवाब में केंद्र ने पुलिस और कानून-व्यवस्था को राज्य का विषय बताते हुए इस कानून के संदर्भ में राज्यों की जिम्मेदारी पर सवाल उठाये थे. हालांकि, केंद्र ने राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों को पत्र भेजकर प्रवर्तन एजेंसियों को संवेदनशील बनाने और रद्द कानूनी प्रावधानों के तहत दर्ज होते मामलों को रोकने के लिए कहा है. सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों की लगातार अवहेलना गंभीर सवाल खड़े करती है.

इससे इंगित होता है कि राज्य मशीनरी प्रवर्तन अधिकारियों को संवेदनशील बनाने और समय रहते कार्रवाई की मांग को पूरा करने में असफल हो रही है, जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट आगाह करता रहा है. यहां बात केवल 66ए की नहीं है, बल्कि कमोबेश यही स्थिति उच्चतम कोर्ट के अन्य प्रभावशाली फैसलों को लागू करने और जमीन पर उतारने में दिखती है.

अनुच्छेद 66ए के कानूनी दुरुपयोग से सामान्य मानवीय बैद्धिकता को अंधेरे में धकेला जा रहा है. तात्कालिक तौर पर राज्यों को सख्त व्यवस्था बनाते हुए इस कानून और ऐसे अन्य प्रावधानों के दुरुपयोग को रोकने तथा सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों को लागू करने के लिए आगे आना चाहिए. अन्यथा, अनेक निरपराध इस गैरकानूनी फांस का शिकार होते रहेंगे.

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