वेल्स के भक्ति गीतकार जॉर्ज हर्बर्ट के शब्दों में, ‘कौशल और विश्वास अपराजेय सेना हैं.’ राम मंदिर के साथ भाजपा उत्तर प्रदेश में अभी भक्ति के भाव में इस गीत को गा रही है. महामारी से जुड़ी नकारात्मक छवि से बेपरवाह इसके नेतृत्व ने 2022 के विधानसभा चुनाव में जीत की पटकथा पहले ही लिख दी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भारत के सबसे बड़े राज्य में अपनी पार्टी की संभावना को लेकर ईर्ष्या करने लायक भरोसा दिखाते हैं. बंगाल की बड़ी हार के बावजूद पार्टी की चुनावी क्षमता में उनका भरोसा बहाल है.
चुनाव अभी नौ माह दूर है. फिर भी पूरा केसरिया नेतृत्व चुनावी रंग में है. विपक्षी पार्टियां जहां जमीनी स्तर पर अनुपस्थित हैं, वहीं भाजपा पंचायत स्तर तक अपने समर्थकों को लामबंद करने में लगी है. योगी ने लगभग हर जिले की यात्रा की है और वे सभी लंबित परियोजनाओं को पूरा करने तथा सभी गुटों के नेताओं को साथ लाने पर ध्यान दे रहे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी के निर्देश पर पार्टी के राज्य प्रभारी व पूर्व केंद्रीय मंत्री राधा मोहन सिंह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक व राज्य भाजपा के संगठन सचिव सुनील बंसल के साथ हर जिले में नियमित बैठकें कर रहे हैं तथा सभी मुद्दों पर सांसदों, विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों की राय ले रहे हैं. हालांकि उनका मुख्य उद्देश्य अपने कार्यकर्ताओं को यह भरोसा दिलाना है कि पार्टी अब भी सभी समुदायों व जातियों के समर्थन के साथ लोगों की मुख्य पसंद बनी हुई है.
उन्हें सांप्रदायिक प्रचार से इतर केंद्र व राज्य स्तर पर भाजपा के प्रभावी नेतृत्व के प्रचार पर ध्यान देने की सलाह दी गयी है. संभवत: यह चुनावी नारा होगा- ‘मोदी के नाम पर, योगी के काम पर.’ आम कार्यकर्ताओं से लेकर राज्य इकाई के अध्यक्ष तक को मोदी व योगी की स्वच्छ छवि के प्रचार के लिए कहा गया है, क्योंकि उनके सभी विरोधी दागदार हैं. इसके अलावा, करीब 100 मौजूदा दागी विधायकों को फिर टिकट नहीं मिलेगा. लखनऊ में वापसी 2024 में मोदी की जीत का आधार बनेगी.
संघ परिवार अयोध्या में हुए जमीन के विवादित सौदों से होनेवाले चुनावी नुकसान का आकलन गंभीरता से कर रहा है. नेताओं एवं अधिकारियों द्वारा हर सौदे को कानूनी व नैतिक आधारों पर परखा जा रहा है. अभी तक शीर्ष नेताओं ने यही तर्क दिया है कि हर खरीद बाजार की कीमत से कम पर हुई है, लेकिन बड़े मुनाफे के लिए जल्दी में हुए सौदों पर स्थानीय नेता विश्वसनीय स्पष्टीकरण नहीं दे पाये हैं. टैक्स देने में कोताही की जांच के लिए बेचनेवालों के आयकर दस्तावेज खंगाले जा रहे हैं.
भरोसा बनने में दशकों लगते हैं, पर वह कुछ सेकेंड में टूट जाता है और उसे दोबारा बहाल करने में सदियों लग जाते हैं. सात दशकों के कानूनी, सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष के बाद राम भक्तों को दैवी प्रासाद बनाने का अवसर मिला है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी बाधाओं को हटा देने के तुरंत बाद केंद्रीय व राज्य प्रशासन संघ परिवार के दशकों पुराने सपने को साकार करने में जुट गया था. मंदिर निर्माण के अधीक्षण के लिए बेहद स्वच्छ छवि के भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी नृपेंद्र मिश्रा की नियुक्ति हुई थी.
सोमनाथ मंदिर के अलावा पहले कभी केंद्र सरकार द्वारा बनाये गये न्यास के प्रबंधन में किसी धार्मिक निर्माण पर इतना भारी खर्च नहीं हुआ है. तब से केसरिया विचारधारा का उद्भव और विस्तार राम मंदिर अभियान से संचालित हुआ है. राम के विचार का सक्रिय समर्थन करनेवाले राजनीतिक हिंदू की रचना के लिए भाजपा और संघ साथ आये. ‘मंदिर वहीं बनायेंगे’ केवल नारा नहीं था, बल्कि आस्था का प्रकटन था. अयोध्या में हुए जमीन के विवादित सौदों में शामिल कई मुख्य भाजपा नेताओं को दंडित कर आलाकमान उनके नकारात्मक असर को बेअसर कर सकता है.
इसी बीच भाजपा के विरोधी मंदिर के स्थान पर हुए सौदों के संबंध में और मसाला जुटाने में लगे हैं.अत्यधिक दुकानदारी का अक्सर नतीजा बड़ी असफलता के रूप में हो सकता है. उदाहरण के लिए, शरद पवार के दिल्ली निवास पर हाल में हुई ‘समान सोच के व्यक्तियों’ की बैठक को लें.
यह केवल सामाजिक और राजनीतिक रूप से संगत योग्य कुछ लोगों की मुलाकात थी, लेकिन राजनीतिक दलों को उत्पाद के तौर पर बेचनेवाले कौशल व प्रभावी विक्रेता प्रशांत किशोर ने जनसंपर्क की दोस्ताना एजेंसियों और चुनिंदा मीडिया के जरिये ऐसा माहौल बनाया कि सभी भाजपा और मोदी विरोधी पार्टियों को एक मंच पर लाना उनका विचार था. मोदी से ममता तक जीतनेवाले पक्ष से जुड़े होने के कारण राजनेताओं तक उनकी पहुंच आसान है.
वे मुंबई में पवार से मिले और ममता की मदद से मोदी को हटाने की उनकी कोशिशों की खबरें मीडिया में आ गयीं. बहुत ध्यान से सबकी बात सुननेवाले पवार तभी अपने दिमाग का खुलासा करते हैं, जब उनका घोड़ा दौड़ में होता है. पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा एक साझा मंच बनाने के लिए पवार और कांग्रेस समेत अन्य पार्टियों के नेताओं के संपर्क में हैं, जो भविष्य में भड़काऊ मुद्दे उठायेगा.
उन्होंने पहले एक गैर-पार्टी राष्ट्र मंच बनाया था और पवार से उसकी पहली बैठक की मेजबानी का आग्रह किया था, जिसे उन्होंने खुशी से स्वीकार कर लिया था. उसमें हर रंग- भरोसेमंद, अप्रासंगिक और जिन पर कोई ध्यान नहीं देता- के नेता शामिल हुए थे. उसमें किशोर को नहीं बुलाया गया था और वे वहां थे भी नहीं. पवार और सिन्हा ने स्पष्ट किया कि वह मोदी का विकल्प बनाने का प्रयास नहीं था. मजे की बात यह कि दो घंटे की बतकही में चतुर मराठा ने एक शब्द नहीं बोला, पर सबके लिए खाने-पीने का बढ़िया इंतजाम जरूर किया था.
नौकरशाही सरकार का स्थायी स्वामी है. नेता आते-जाते हैं, पर अफसरों का सुविधापूर्ण गिरोह हर शासन में फलता-फूलता रहता है. मौजूदा सरकार के अनेक अधिकारी बार-बार सेवा विस्तार या नये पद पा रहे हैं. हाल में सरकार ने नीति आयोग के सीइओ को एक साल का तीसरा सेवा विस्तार दिया है, जो 65 साल की आयु पार कर चुके हैं. आम अधिकारियों को ऐसी सुविधा नहीं मिलती. एलसी गोयल को चौथा सेवा विस्तार मिला है. कुछ अधिकारी अपने बंगले बरकरार रखने में सफल रहे हैं. अचरज की बात नहीं कि ऐसे अधिकारियों के पास सेवानिवृत्ति के बाद अपने लिए बड़े-बड़े घर बनाने के लिए सरकार को मनाने की सुविधा है.