अनुशासित भाजपा में ‘तीर्थयात्री’
दूसरे दलों से आये नेताओं ने भाजपा के हिस्से में कुछ राज्यों की सत्ता जोड़ी है, पर विश्वासियों की आत्मा में कांटे भी चुभाये हैं.
शीर्ष पर मजबूती से एकताबद्ध पार्टी भाजपा में मध्य और निचले स्तर पर मतभेद उभर रहे हैं. शायद ही ऐसा कोई राज्य है, जहां पार्टी आंतरिक संघर्ष में रत नहीं हैं. हालांकि केंद्रीय नेतृत्व दावा करता है कि पार्टी ने देश को स्वच्छ, स्थायी और मजबूत सरकार दी है, पर लगभग सभी भाजपाशासित राज्यों में सरकार और पार्टी नेताओं पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का आरोप है.
बीते दो दशकों में चार आम चुनाव और दो-तिहाई राज्यों में जीत हासिल करनेवाली पार्टी मतभेद और अवज्ञा से ग्रस्त है. केरल में इसके अध्यक्ष के विरुद्ध रिश्वतखोरी के लिए मामला दर्ज किया गया है, जो संघ परिवार की संस्कृति के विरुद्ध है. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, दिल्ली और गोवा में विद्रोही सक्रिय हैं.
बीते दो दशक में भाजपा ने वैकल्पिक एजेंडा, संस्थान और विचारधारा के आधार पर जनादेश जीता. स्थानीय नेताओं पर नियंत्रण करने या उन्हें संघीय सत्ता में समुचित भागीदारी देने में असफल होने के बाद कांग्रेस सिकुड़ने लगी. उसे छोड़नेवाले अपने विभिन्न राजनीतिक रूपों में फल-फूल रहे हैं, पर 135 साल पुरानी कांग्रेस एक छोटे बिंदु में सीमित हो गयी है.
व्यक्तिगत झगड़ों से कहीं अधिक विचारधारात्मक टकराव से भाजपा को नुकसान हो रहा है. इसने छोटे दलों के व्यापक विलयों या जातिगत/सामुदायिक आधारवाले आकांक्षी व्यक्तियों को साथ लेकर अपना दायरा बढ़ाया है. विभिन्न राज्यों में झगड़े का असली कारण कांग्रेस, टीएमसी, बसपा, जेडीएस आदि दलों से आये नेताओं को बहुत अधिक महत्व दिया जाना है.
निश्चित रूप से दूसरे दलों से आये इन राजनीतिक तीर्थयात्रियों ने भाजपा के हिस्से में कुछ राज्यों की सत्ता जोड़ी है, पर उन्होंने विश्वासियों की आत्मा में कांटे भी चुभाये हैं. एक अनुशासित पार्टी में असंतोष के कुछ उदाहरणों को दे देखें. पूर्व अध्यक्ष और मुख्यमंत्री रहे वरिष्ठ भाजपा नेता कुरुबा शरणप्पा ईश्वरप्पा, जो अब मंत्री मात्र हैं, ने पार्टी में अफरातफरी मचा दी है.
इस अनुभवी नेता को लगता है कि उन्हें हाशिये पर रखा गया है, क्योंकि कर्नाटक के मुख्यमंत्री येद्दीयुरप्पा कांग्रेस और जेडीएस से आये नेताओं को अधिक महत्व देते हैं. भाजपा के इतिहास में पहली बार किसी मंत्री ने राज्यपाल से औपचारिक रूप से मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार और मंत्रालय में हस्तक्षेप की शिकायत की है. जो विधायक बाहर से आये नेताओं को मंत्री बनाने की वजह से जगह न पा सके, वे येद्दियुरप्पा के लिए परेशानी खड़ी कर रहे हैं.
केंद्र से पूर्ण समर्थन होने के बावजूद लगातार आंतरिक खतरों से उनकी सरकार बिखरी हुई है और ठीक से काम नहीं कर पा रही है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध स्पष्ट विद्रोह के कारण उत्तर प्रदेश चर्चा में नहीं है. अनेक भाजपा विधायकों ने सरकार की कमियों की आलोचना की है, खासकर महामारी की दूसरी लहर के दौरान. कुछ ने जातिगत वर्चस्व के विरुद्ध बोला है, लेकिन केंद्रीय नेताओं के लगातार लखनऊ जाकर विधायकों व मंत्रियों से अलग-अलग बैठकें करने से प्रशासन पर जोखिम बढ़ गया है.
बीते दो माह में योगी और राज्य के प्रमुख नेताओं ने दिल्ली में मोदी समेत शीर्ष नेताओं से मुलाकातें की हैं. सेवानिवृत्त नौकरशाह एके शर्मा को चुनाव से सालभर पहले राज्य की राजनीति में लाने से ऐसी अफवाहों को बल मिला है कि योगी के अधिकारों में कटौती की जा रही है या उन्हें हटाया जा सकता है. शर्मा गुजरात में मोदी के भरोसेमंद सचिव रहे थे और प्रधानमंत्री कार्यालय में भी उनकी अहम उपस्थिति थी. हाल तक राहुल गांधी के करीबी जितिन प्रसाद को पार्टी में लाने को योगी को कमजोर करने की व्यापक रणनीति के एक हिस्से के रूप में देखा जा रहा है.
उत्तर प्रदेश में बहुत कुछ दांव पर लगा है और उसके नतीजे 2024 के लोकसभा चुनाव तथा राज्यसभा की स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं. योगी सांगठनिक मामलों में शायद ही सक्रिय हैं. चुनाव के करीब आने के साथ ही केंद्रीय नेतृत्व ऐसे लोगों को ठिकाना देने की जल्दी में है, जो योगी समर्थक नहीं हैं. पंचायत चुनाव में भाजपा के निराशाजनक प्रदर्शन से भी मुख्यमंत्री के विरुद्ध मुखर होने में असंतुष्टों को मदद मिली है.
मध्य प्रदेश में पहले कांग्रेस की तरह मुख्यमंत्री के समर्थक व विरोधी धड़ों का झगड़ा विश्वासघात का अखाड़ा बन गया है. शिवराज सिंह चौहान को तभी गद्दी मिल सकी, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के करीब दो दर्जन विधायकों के साथ भाजपा में आये. सिंधिया को अभी केंद्रीय मंत्री बनाना बाकी है, पर उनके अधिकतर विधायकों को वरिष्ठ व असली भाजपा नेताओं की उपेक्षा कर मंत्री बना दिया गया है.
कांग्रेस सरकार का तख्तापलट करनेवाले गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदार थे. उनके समर्थकों को मंत्री भी नहीं बनाया गया. बीते कुछ सप्ताह से असंतुष्ट बैठकें कर रहे हैं और नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा कर रहे हैं, पर केंद्र से उन्हें समर्थन नहीं मिल रहा है. त्रिपुरा और गोवा में भी असली और बाहर से आये धड़ों में लड़ाई है.
कुछ दिन पहले एक शीर्ष राष्ट्रीय नेता को बिप्लब देब के खिलाफ विद्रोह रोकने के लिए अगरतला जाना पड़ा था. वे बड़ी संख्या में टीएमसी विधायकों के भाजपा में आने के बाद ही मुख्यमंत्री बन सके थे. टीएमसी में मुकुल रॉय की वापसी के बाद त्रिपुरा सरकार में उनके विश्वासपात्र भाजपा छोड़ना चाहते हैं. वे अधिक ताकत और बेहतर मंत्रालय पाने के लिए दबाव दे रहे हैं. गोवा में मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत को स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे चुनौती दे रहे हैं. एक दर्जन से अधिक कांग्रेसियों के आने के बाद भाजपा ने सरकार बनायी थी.
विश्वजीत पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री प्रताप सिंह राणे के पुत्र हैं. धड़ों की इस लड़ाई ने महामारी के दौरान भाजपा को लकवाग्रस्त कर दिया था. इसके नये-पुराने अतिथि नेता-समर्थक पीड़ितों की मदद करने में अनुपस्थित थे. यह साफ है कि दलबदल का खेल भाजपा के लिए उलटा पड़ रहा है. इसके 25 प्रतिशत से अधिक विधायक और सांसद दूसरे दलों से आये लोग हैं. बंगाल में इसके 80 प्रतिशत से अधिक विधायकों ने दूसरी पार्टियों में राजनीति का ककहरा सीखा है.
आगे ये झगड़े और गहरे होंगे. किसी भी तरह जीतने और सत्ता में रहने की कोशिश में शीर्ष नेतृत्व को छोड़कर भाजपा में व्यापक विचारधारात्मक कमी आयी है. मुख्य मूल्यों से समझौता आंतरिक तनाव को और बढ़ायेगा. यह भाजपा बनाम भाजपा नहीं है, बल्कि असली लड़ाई प्रामाणिक स्वयंसेवकों और बहुरंगी अवसरवादियों के बीच है. एकरंगे केसरिया ब्रह्मांड में विभिन्न रंगों के लिए कोई जगह नहीं है.