लोकतंत्र में सरकार वैचारिक संघर्षों के समाधान का उत्पाद होती है, पर अब अधिकतर लोकतंत्रों में व्यक्ति ही विचारधारा हैं और मतदाता अक्सर उनके राजनीतिक विचारों को अनदेखा कर देते हैं. लखनऊ से लुधियाना तक चुनावी राज्यों में मतदाताओं को लुभाने के लिए नेताओं के बड़े-बड़े पोस्टर-बैनर लगे हैं. वहां कोई राजनीतिक मुहावरा नहीं है, केवल उम्मीदवारों की तस्वीरें हैं.
यदि एक दल दलित नेता का प्रचार कर रहा है, तो दूसरा अपने उम्मीदवार के किसी वंश से न होने की दलील दे रहा है. बीते एक दशक में हर क्षेत्र ने नया स्थानीय इंदिरा, वाजपेयी या मोदी पैदा किया है, जो पार्टी का चेहरा भी है और ताकत भी. जो दल ऐसा नहीं कर पाते, वे पीछे रह जाते हैं. ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, जगन मोहन रेड्डी, एमके स्टालिन और चंद्रशेखर राव जैसे गैर-गांधी व्यक्तित्वों का वर्चस्व ऐसे नेताओं के उदय को इंगित करता है, जो नयी दिल्ली स्थित केसरिया रथ को रोक सकते हैं.
इसलिए अचरज नहीं है कि आगामी विधानसभा चुनावों में पहली बार सभी दलों ने अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किये हैं. कांग्रेस को भी राज्य और राष्ट्र के स्तर पर जीतने लायक चेहरे की जरूरत है. अभी तक दो राष्ट्रीय पार्टियां भविष्य के सारथी का नाम घोषित करने की पक्षधर नहीं थीं. पर अब भाजपा ने अपने शासन वाले चार राज्यों में अपने उम्मीदवार लगभग घोषित कर दिया है. जहां उसने ऐसा नहीं किया है या दो अंकों में जीत की आशा नहीं है, वहां उसने विभिन्न घटकों से गठबंधन किया है ताकि केसरिया पताका लहराती रहे.
अब सवाल यह नहीं है कि कौन पार्टी जीतेगी, बल्कि यह है कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा. गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड और पंजाब जैसे छोटे राज्यों में शासन और नेतृत्व के प्रतीक चरणजीत चन्नी जैसे व्यक्तित्व हैं, जिन्हें कुछ समय पहले ही पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया गया है और वे अमरिंदर सिंह और सुखबीर बादल जैसे वरिष्ठ नेताओं से दौड़ में आगे हैं.
बादल इस चुनाव में पहली बार पूरी तरह से अकाली दल का नेतृत्व करेंगे. आप पार्टी ने भगवंत मान को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाया है. चन्नी और मान पंजाब की आकांक्षा के उभरते प्रतीक हैं, जो इस चुनाव में पीढ़ीगत और सामाजिक बदलाव देख सकता है. इस बार लगता है कि भाजपा और अकाली दल अपनी खास जगह नये व युवा चेहरों द्वारा संचालित पार्टियों को सौंप देंगे.
मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने की मांग ने अधिकतर राज्यों में युवा नेतृत्व को बढ़ावा दिया है. आधे उम्मीदवार पचास साल से कम के हैं- उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ, पंजाब में मान, गोवा में प्रमोद सावंत और अमित पालेकर तथा उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी. बुजुर्गों में पंजाब के अमरिंदर सिंह और मणिपुर के एन बीरेन सिंह शामिल हैं.
साल 1966 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही भारतीय चुनाव व्यक्तित्व आधारित हो गये. अगले एक दशक तक उनके नाम पर या उनके खिलाफ वोट मांगे गये. उन्होंने अपने भरोसमंद लोगों को मुख्यमंत्री बनाया और अपनी मर्जी से उन्हें बदला. राजीव गांधी एवं सोनिया गांधी ने भी इसी नीति का अनुसरण किया और इस कारण अनेक क्षत्रप पार्टी से अलग हो गये. अस्सी के दशक के मध्य में दो-तिहाई से अधिक राज्यों में शासन करनेवाली पार्टी केवल तीन राज्यों तक सिमट गयी.
इसका फायदा भाजपा ने उठाया. वाजपेयी और आडवाणी ने इसका भौगोलिक और सामाजिक आधार बढ़ाया तथा मोदी ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया. साल 2014 में इतिहास बनाने के बाद वे राज्यों को जीतते गये. साल 2018 तक 18 राज्यों में भाजपा एवं उसके सहयोगियों की सरकारें थीं.
मोदी ने सरकार और पार्टी में युवाओं को अहम भूमिकाएं दीं, लेकिन अपार लोकप्रियता के बावजूद वे अरविंद केजरीवाल, नवीन पटनायक और लालू-नीतीश जोड़ी जैसे स्थानीय नेताओं को राज्य के चुनावों में हरा नहीं पाये. साल 2014 के बाद पहले चरण में तो भाजपा ने जीत हासिल की, पर दूसरी बार हार का सिलसिला शुरू हो गया क्योंकि कांग्रेस व अन्य दलों के पास बेहतर नेता थे.
भाजपा ने महाराष्ट्र और पंजाब में सत्ता गंवायी. वह कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान नहीं जीत सकी तथा ममता बनर्जी को नहीं हरा सकी. असम हेमंता बिस्वा सरमा की क्षमता से भाजपा फिर सरकार बना सकी. मतदाता भी अब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री में अंतर करने लगे हैं.
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में 2017 में मोदी कारक के कारण वोट मिला था. अब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के रूप में स्थानीय नेता हैं, जो ईमानदार और निर्णायक माने जाते हैं. प्रचार में मोदी के साथ उनका नाम लेकर भाजपा वोट खींचने की उनकी क्षमता का लाभ उठाना चाहती है. भाजपा के अस्तित्व के लिए इस राज्य में सरकार बनाना जरूरी है. यहां का झटका लोकसभा के लिहाज से न केवल मोदी के ताकत को कम करेगा, बल्कि भविष्य के केसरिया चेहरा होने की योगी की मुहिम को भी खत्म कर देगा.
यह अखिलेश यादव के उदय का संकेत होगा तथा इससे मायावती का पतन पूरा हो जायेगा. यदि भाजपा सभी चार राज्य जीतती है, तो वह भविष्य के लिए युवा नेतृत्व खड़ा करने में सफल होगी. ये परिणाम कांग्रेस और आप की प्रासंगिकता को भी निर्धारित करेंगे. इनसे केंद्र से लेकर राज्यों तक सत्ता समीकरण में बदलाव होगा.