राजनीतिक विकल्प बनाने में पेच
मोदी ने खुद को सभी जातियों, समुदायों और मुद्दों के मसीहा के रूप में स्थापित कर दिया है. इंदिरा गांधी के अलावा किसी और नेता को ऐसा स्तर नहीं मिला है.
विजेता शिकारी होते हैं. हर चुनाव के बाद कांग्रेस से लेकर भाजपा तक, राष्ट्रीय पार्टियां बड़े सपने पाले असंतुष्ट और छोटे नेताओं को अपने खेमे में लाती हैं. बंगाल में ममता बनर्जी की बड़ी जीत और हालिया उपचुनाव में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन के बाद केसरिया कवच-कुंडल के मुकाबले के लिए किसी योग्य व्यक्ति या गठबंधन की तलाश हो रही है. जाति व समुदाय आधारित छोटे दलों को साथ लेकर अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी की पैठ बढ़ा रहे हैं.
दीदी आक्रामकता के साथ स्थानीय नेताओं, बौद्धिकों, कलाकारों आदि को जोड़ने का बड़ा अभियान छेड़े हुई हैं, ताकि अपनी भौगोलिक एवं सांस्कृतिक स्वीकार्यता का विस्तार कर सकें. तृणमूल कांग्रेस मेघालय से महाराष्ट्र तक आसान शिकार की खोज में है. ममता बनर्जी का उद्देश्य क्षेत्रीय नेता से अखिल भारतीय राजनीतिक व्यक्तित्व बनने का है. दूसरी दफा कोई दल गंभीरता से भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरी राष्ट्रीय पार्टी बनने की कोशिश में है.
एक दशक पहले एक अन्य महिला मुख्यमंत्री मायावती ने बसपा को दक्षिण समेत अनेक राज्यों में चुनाव लड़ाने का व्यर्थ प्रयास किया था. अपने बंगाली धुन के साथ ममता अलग तरह की हैं. उनके समर्थक समझते हैं कि वे मायावती की तरह अपने पिंजड़े में कैद नहीं हैं, जो अपने दिल्ली या लखनऊ के महलनुमा आवासों से शायद ही बाहर निकलती हैं. दीदी के पास राष्ट्रीय नेता होने के सभी गुण हैं. तीन बार के जनादेश के साथ उनके पास दो दशक से अधिक समय का प्रशासनिक अनुभव है. उन्हें लगता है कि बंगाल से बाहर पर फैलाने का समय आ गया है.
ममता एक लड़ाकू नेता हैं और उन्होंने खुद को भाजपा और उसके सर्वशक्तिमान व लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी के खिलाफ अकेले असली योद्धा के रूप स्थापित किया है. राष्ट्रीय पहचान के लोगों को जोड़ने के साथ वे कांग्रेस नेताओं को भी आकृष्ट कर रही हैं, जिससे अलग होकर उन्होंने 1998 में तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की थी.
बंगाल के चुनाव से पहले उन्होंने पूर्व केंद्रीय मंत्री और अच्छे वक्ता यशवंत सिन्हा को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाने के साथ राष्ट्रीय अभियान शुरू किया था. मोदी के आलोचक रहे सिन्हा ने ममता के अदम्य साहस की खूब प्रशंसा की. बाद में भाजपा के नव निर्वाचित विधायकों समेत मध्यम व निचले स्तर के कई नेता तृणमूल में लौटे, पर ऐसा लगता है कि ममता का मुख्य निशाना कांग्रेस है.
बीते सप्ताह मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा 17 में से 11 कांग्रेस विधायकों के साथ तृणमूल में शामिल हुए. उन्होंने कहा कि यह पार्टी मेघालय, पूर्वोत्तर और शेष भारत के लिए सबसे उपयुक्त अखिल भारतीय विकल्प है. असम की असरदार युवा कांग्रेस नेता सुष्मिता देव के शामिल होने के बाद यह दूसरा बड़ा प्रकरण था. फिर गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता एल फलेरो ने कांग्रेस छोड़ी और तृणमूल ने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता देकर पुरस्कृत किया.
फलेरो के बयान से दीदी की विस्तारवादी रणनीति का पता चलता है. उन्होंने कहा कि उन्होंने 40 वर्षों तक कांग्रेस के सिद्धांतों व विचारधारा को बचाने के लिए काम किया. कांग्रेस अब शरद पवार, ममता बनर्जी और जगन रेड्डी की पार्टियों में बंट गयी है. उन्होंने कहा कि अब फिर से भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस परिवार को एकजुट करना होगा.
कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़नेवाली पूर्व अभिनेत्री नफीसा अली ने भी ममता बनर्जी को नया कांग्रेस कहते हुए तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया. पूर्व कूटनीतिक पवन वर्मा, टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस और कुछ पूर्व नौकरशाहों जैसे भाग्य की तलाश करनेवाले भी तृणमूल कांग्रेस में चले गये हैं. वे इस पार्टी को कांग्रेस का उभरता हुआ विकल्प मानते हैं. कुछ को अहम जिम्मेदारी भी दी गयी है.
राष्ट्रीय राजनीति के मुख्य रूप से व्यक्तित्व केंद्रित होते जाने के साथ भारत एक वैकल्पिक नेता की तलाश में है, जो मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा से राजनीति एवं शासन का बेहतर मॉडल दे सके. मोदी ने देश के बड़े हिस्से में सामुदायिक और जातिगत जुड़ावों को तोड़ दिया है तथा खुद को सभी जातियों, समुदायों और मुद्दों के मसीहा के रूप में स्थापित कर दिया है. इंदिरा गांधी के अलावा किसी और नेता को ऐसा स्तर नहीं मिला है.
वे केवल एक बार हारी थीं और वह भी अपने अहंकार, भ्रष्टाचार और आपात काल के कारण. वह इसलिए संभव हो सका था कि विपक्ष के पास जय प्रकाश नारायण जैसा व्यक्तित्व था, जिन्होंने कांग्रेस विरोधी सभी समूहों को एकजुट किया था. वे शीर्षस्थ कांग्रेस नेता जगजीवन राम और हेमवंती नंदन बहुगुणा को पार्टी छोड़ने के लिए तैयार कर सके थे. जेपी आंदोलन ने वैकल्पिक नेता नहीं, बल्कि सहमति के रूप में एक बेहतर व समावेशी राजनीतिक गठबंधन दिया था, जो आपसी खींचतान के कारण बिखर गया.
राजीव गांधी को बड़ा बहुमत मिला, पर पार्टी एकजुट न रह सकी और उन पर भ्रष्टाचार के बड़े आरोप लगे. वे नेहरू-गांधी परिवार के पहले ऐसे सदस्य साबित हुए, जो दूसरा कार्यकाल हासिल नहीं कर सका. यह इसलिए हो सका कि वीपी सिंह उत्तर से दक्षिण तक, सभी दलों को स्वीकार्य थे.
वहीं से गठबंधन युग की वास्तविक शुरुआत हुई. पीवी नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार दल-बदल और छोटे दलों के विलय से कार्यकाल पूरा कर सकी थी. भाजपा ने कांग्रेस को अपदस्थ किया, क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी की करिश्मा और विश्वसनीयता के कारण 20 छोटी पार्टियां एक साथ रहीं. फिर भी, कुछ भाजपा नेताओं के अहंकार के साथ क्षेत्रीय दलों के अलग होने के कारण उनकी पार्टी हार गयी.
ममता बनर्जी जेपी, वीपी, अटल या फिर सोनिया गांधी नहीं हैं, जो एक राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में उभरीं और 2004 में उनके इर्द-गिर्द राष्ट्रीय वैकल्पिक आख्यान बना था. ममता एक क्षेत्रीय क्षत्रप हैं, जिन्हें अभी राष्ट्रीय जनादेश के चुंबक के रूप में सामने आना है. शरद पवार जैसा बड़ा नेता भी क्षेत्रीय छवि से मुक्त नहीं हो सके. दीदी के प्रचारक भूल रहे हैं कि 200 से अधिक सीटों पर कांग्रेस ही भाजपा को टक्कर दे सकती है. अगर वे कुछ कांग्रेस नेताओं को लुभाती भी हैं, तो इससे भाजपा विरोधी मतों में ही विभाजन होगा और वे अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारेंगी. यदि वे कांग्रेस को साथ नहीं लेंगी, तो अपनी पार्टी को राष्ट्रीय बनाने के उनके अभियान के सफल होने पर संदेह पैदा हो सकता है.