सत्ता के गलियारे के जटिल पेच
प्रधानमंत्री कार्यालय निरंतर परिवर्तनशील है. प्रधानमंत्री शासन के नये प्रयोग करना और नये नियम बनाना पसंद करते हैं.
कार्यभार संभालने के पहले ही दिन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शासन से जुड़े लगभग हर संस्था को पुनर्परिभाषित और पुनर्संरचित कर रहे हैं. योजना आयोग समाप्त हुआ तथा अहम कैबिनेट कमिटियों का स्वरूप बदला गया. असंबद्ध मंत्रालयों का बंटवारा हुआ. ऐसे कई उदाहरण हैं, लेकिन राजधानी के खिलाड़ियों को उम्मीद थी कि वे विदेश मंत्रालय के सात दशकों के संस्थागत एकाधिकार को बने रहने देंगे. बीते सप्ताह कूटनीतिक से राजनेता बने एस जयशंकर को विदेश यात्रा में प्रधानमंत्री के प्रतिनिधिमंडल के केवल एक हिस्से के रूप में नहीं, बल्कि उन्हें प्रधानमंत्री के प्राय: साथ-साथ भी देखा गया. यशवंत सिन्हा और सुषमा स्वराज जैसे पूर्व विदेश मंत्री कभी-कभार ही वाजपेयी या मोदी प्रतिनिधिमंडल में होते थे.
मोदी के अधिकतर कूटनीतिक अभियानों में विदेश सचिव को शामिल कर एक और परंपरा को तोड़ा गया है. पहले विदेश मंत्री या क्षेत्र विशेष के सचिव को ही यह सम्मान हासिल था. विदेश मंत्री तभी साथ होते थे, जब गंतव्य देश की जिम्मेदारी सीधे उनके हाथ में होती थी. दशकों तक मंत्रालय के सभी सचिव स्वायत्त विभाग संभालते थे और सीधे मंत्री को रिपोर्ट करते थे.
सेवानिवृत्ति से तीन दिन पहले जयशंकर के विदेश मंत्री बनने के साथ यह व्यवस्था बदल गयी. वे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री तक पहुंचने का एकमात्र माध्यम बन गये. वे और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल हमेशा मोदी के दल में रहते हैं. जयशंकर ने अमेरिका और चीन यात्राओं के दौरान मोदी से नजदीकी बना ली थी. विदेशी कूटनीतिकों के आचार-व्यवहार को जानने के कारण पूर्व विदेश सचिव अनिवार्य बन गये, पर उनमें शायद ही कुछ ठोस था.
घरेलू राजनीतिक दर्शकों के लिए शायद ही उन्होंने कभी विदेश नीति पर चर्चा की है. उन्हें अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ निकटता का फायदा भी मिला है. कूटनीतिक विमर्श में उनके एकाधिकार ने कूटनीति में राजनीतिक तत्व के समावेश में बड़ी कमी की है. विदेश मंत्रालय के कई लोग यह महसूस करने लगे हैं कि दूसरे देशों के मंत्री भारतीय विदेश मंत्री के साथ बहुत गर्मजोशी से पेश नहीं आते. इसका मतलब है, भारत की कमजोरी और कूटनीति में अक्सर गलती करना. इसे पीएम मोदी को अपने ढंग से संभालना चाहिए.
प्रधानमंत्री कार्यालय निरंतर परिवर्तनशील है. प्रधानमंत्री शासन के नये प्रयोग करना और नये नियम बनाना पसंद करते हैं. यहां हमेशा से सेवानिवृत्त नौकरशाहों का वर्चस्व रहा है, जिन्हें शासन के आंतरिक और व्यापक ज्ञान के कारण चुना जाता है. हाल में उच्च शिक्षा एवं सूचना एवं प्रसारण सचिव के रूप में पदमुक्त हुए अमित खरे को सचिव रैंक के साथ प्रधानमंत्री का दूसरा सलाहकार बनाया गया है. अन्य सलाहकार भास्कर कुल्बे हैं.
पहले कार्यालय के तीन अधिकारी कैबिनेट रैंक के होते थे, पर अब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार समेत दो ही इस श्रेणी में हैं. खरे की भूमिका पर सबकी निगाह है. नयी शिक्षा नीति और डिजिटल व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए नये निर्देश चूंकि शीर्ष प्राथमिकताएं हैं, सो सहज-सुलभ स्वभाव के खरे से प्रधानमंत्री और मीडिया के बीच संपर्क बनने की अपेक्षा है. मोदी ने कोई मीडिया सलाहकार नियुक्त नहीं किया और मीडिया प्रबंधन का काम गुजरात के उनके विश्वस्त सहयोगियों के जिम्मे है.
जांच एजेंसियों के पीछे पड़े होने और हिरासत में लिये जाने के बावजूद भारतीय बैंकर एक सुपरस्टार से प्रेरित हो सकते हैं, जो हर सरकार का चहेता रहा है और उसे सत्ता व सुर्खियां मिलती रहती हैं. वह न तो थकता है और न ही पदमुक्त होता है, जबकि लगभग हर सरकारी पद के लिए आयु सीमा तय है. पूर्व बैंकर केवी कामथ, जो 73 साल के हैं, को हाल में नये बने नेशनल बैंक ऑफ फाइनेंसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर एंड डेवलपमेंट का अध्यक्ष बनाया गया है. जैसे ही वे सेवानिवृत्त होते हैं, सरकार उन्हें बड़ा पद दे देती है.
उन्हीं के कार्यकाल में भारत के बड़े बैंक बिना औपचारिक सरकारी स्वीकृति के भारतीय स्वामित्व के विदेशी बैंक बने. कामथ एक ही साथ आइसीआइसीआइ बैंक और इंफोसिस के अध्यक्ष रह चुके हैं. साल 2015 में जब इंफोसिस का कार्यकाल खत्म हुआ, तो मोदी ने उन्हें तब शंघाई में नये बने ब्रिक्स डेवलपमेंट बैंक का प्रमुख बना दिया. पांच साल वहां रहने के बाद उन्हें वित्तीय क्षेत्र के अहम पैनलों का मुखिया बना दिया गया. ब्रिक्स बैंक में उनसे भारी कोष जुटाने की अपेक्षा थी.
हालिया रिपोर्टों के अनुसार, बैंक ने इंफ्रास्ट्रक्चर विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए 15 अरब डॉलर का निर्धारण किया था, लेकिन दिसंबर, 2019 तक इसमें से केवल 10 फीसदी यानी डेढ़ अरब डॉलर का ही भुगतान हो सका था. उम्र के इस पड़ाव पर कामथ को जिम्मेदारी दी गयी है कि वे 20 हजार करोड़ रुपये से पैसे की कमी से जूझते भारत के इंफ्रा सेक्टर को उबारें. इस कोष के त्वरित वितरण के लिए नयी व्यवस्था बनायी गयी है, जो सीएजी के लेखा परीक्षण या सीबीआइ या ईडी की जांच से परे है. एमवी कामथ को हर मौसम और कारोबार का बैंकर माना जाता है, क्योंकि वे फार्मा, तेल और आइटी की अंतरराष्ट्रीय कंपनियों में निदेशक रहने के साथ कई अकादमिक संस्थानों के बोर्ड में भी रहे हैं.
बहरहाल, राजनीतिक चेतावनियां भी वातावरण में हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है तथा चुनाव विश्लेषक परिणामों का कयास लगाने में जुट गये हैं. अनेक एजेंसियों द्वारा ओपिनियन पोल को अनौपचारिक रूप से बंद करने के कारण राजनीतिक दल अपनी संभावनाओं की परख के लिए अपने स्तर पर एजेंसियों की सेवाएं ले रहे हैं. एक हालिया सर्वे में बताया गया है कि यदि भाजपा के जनाधार में जातिगत समर्थन में और कमी न आए, तो उसे अधिक-से-अधिक 245 सीटें मिलेंगी.
इसमें यह भी संकेत है कि एक दर्जन से अधिक मंत्री चुनाव हार सकते हैं. सर्वे का निष्कर्ष है कि योगी आदित्यनाथ के समर्थ, स्वच्छ और ठोस छवि के कारण भाजपा दुबारा सत्ता पाकर 1989 से चली आ रही उस परंपरा को तोड़ सकती है कि राज्य में किसी को लगातार दूसरा मौका नहीं मिलता है. पार्टी को सबसे अधिक नुकसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हो सकता है यानी किसानों का गुस्सा असर कर रहा है, भले ही नेतृत्व इस संभावना को नजरअंदाज कर रहा हो.