ट्विटर का खोखलापन और गुलामी
भारतीय राजनेता अपनी बात के प्रसार के लिए अपने पुराने व प्रभावी माध्यम सांगठनिक तंत्र के बजाय सोशल मीडिया पर बहुत अधिक निर्भर हैं.
विडंबना है कि जब भारत स्वतंत्रता के 75 वर्ष का उत्सव मना रहा है, तब हमारे राजनेता डिजिटल गुलाम बन गये हैं. हाल में ट्विटर ने राहुल गांधी का खाता ब्लॉक कर दिया था. कांग्रेस का दावा है कि उसके पांच हजार से अधिक सदस्यों के खाते भी इसलिए ब्लॉक कर दिये गये थे क्योंकि उन्होंने उस नौ वर्षीया बच्ची के माता-पिता से राहुल गांधी के मुलाकात की तस्वीरें साझा की थीं, जिसकी कुछ दिन पहले दिल्ली में कथित रूप से बलात्कार के बाद हत्या कर दी गयी थी.
आक्रोशित गांधी और उनकी टुकड़ी ने ट्विटर पर ‘हमारी राजनीतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने’ का आरोप लगाते हुए कहा कि ‘कंपनी हमारी राजनीति को परिभाषित करने का काम कर रही है.’ दूसरी राजनीतिक पार्टियों ने भी ट्विटर के इस रवैये की आलोचना की. अभी तक जूता दूसरे पांव में था. पहले ट्विटर कई सामाजिक कार्यकर्ताओं, फिल्म स्टार और केंद्रीय मंत्रियों के हैंडल ब्लॉक या निष्क्रिय कर चुका है.
मंत्री पद खोने से कुछ समय पहले रवि शंकर प्रसाद का हैंडल कॉपीराइट उल्लंघन के लिए अस्थायी तौर पर ब्लॉक हुआ था. तब भाजपा ने खूब शाब्दिक हंगामा मचाया था. राजनेताओं की इस कंपनी के प्रति नाराजगी से इंगित होता है कि नेताओं और लोगों के बीच दूरी बढ़ती जा रही है. उस कंपनी के होने का उद्देश्य कुछ वाक्यों का प्रसार भर है. भारतीय राजनेता अपनी बात के प्रसार के लिए अपने पुराने व प्रभावी माध्यम सांगठनिक तंत्र के बजाय सोशल मीडिया पर बहुत अधिक निर्भर हैं.
इसमें कोई शक नहीं है कि मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस ने जनता और कार्यकर्ताओं से सीधा संपर्क खो दिया है. डिजिटल मीडिया पर इसकी अत्यधिक निर्भरता सूचक है कि पार्टी ने आंदोलन, कार्यक्रम और सीधे संपर्क के अन्य पारंपरिक उपायों को छोड़ दिया है. तकनीक के इस तहखाने में अकेले कांग्रेस ही नहीं फंसी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने ही सबसे पहले सोशल मीडिया का फायदा उठाया था. साल 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने भारत के डिजिटल मानस पर पकड़ बनाने के लिए ट्विटर, फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया मंचों के माध्यम को अंगीकार किया.
उनकी नजर में फेसबुक और ट्वीटर उनके संदेश पहुंचाने के सबसे तेज व भरोसेमंद साधन हैं तथा उनके विरोधियों को हाशिये पर डालने के औजार हैं. सोशल मीडिया में बड़े पैमाने पर निवेश से मोदी और उनकी सरकार ने नयी तकनीकी जगह से वैश्विक स्तर पर विरोधियों को हटा दिया. सात करोड़ से अधिक फॉलोअर्स के साथ मोदी पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बाद दूसरे सबसे अधिक फॉलोअर्स वाले राजनेता हैं. पर, वे सर्वाधिक सक्रिय हैं.
बहरहाल, अमेरिका, कुछ पश्चिमी देश और भारत ही सोशल मीडिया के प्रति आसक्त हैं. करीब 330 बड़े ट्विटर अकाउंट में से एक तिहाई से अधिक अमेरिका और भारत में हैं. अमेरिका में सेलेब्रिटी नेताओं से आगे हैं. चुनावी हार और प्रतिबंधित होने से पहले डोनाल्ड ट्रंप सोशल मीडिया के सबसे बड़े आइकन थे. ट्रंप प्रकरण इस बात का सूचक था कि ट्विटर और अन्य राष्ट्रीय मनोविज्ञान को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. उनके ऊपर आरोप हैं कि वे किसी भी विमर्श का परिणाम बदल सकते हैं.
ट्विटर पर दुनियाभर में लेफ्ट-लिबरल दृष्टिकोण के प्रति पक्षपाती होने का अक्सर आरोप लगता रहता है. सिनेमा, खेल और अन्य सोशल सेलेब्रिटी को छोड़ दें, तो दस लाख से अधिक फॉलोअर्स के 90 फीसदी से अधिक ट्वीटर हैंडल लेफ्ट झुकाव के लोगों का है. शोधकर्ताओं ने पाया है कि एक बार कोई राजनीति या मीडिया में उच्च स्थान पा लेता है, तो उसे फॉलोअर्स भी मिलते हैं और उसकी बातों को पसंद व साझा भी खूब किया जाता है ताकि उसकी लोकप्रियता और विश्वसनीयता के बारे में झूठी धारणा बनायी जा सके.
वास्तव में ऐसा लगता है कि ट्विटर एक बहुत अधिक विशिष्ट व विभाजक मंच है, जहां अल्गोरिद्म से एकपक्षीय ज्ञान का असंगत वर्चस्व हो सकता है. कई प्रसिद्ध लोगों ने ट्विटर के ऑडिट प्रणाली पर सवाल उठाया है. ट्विटर को पसंद, प्रयास और रचनात्मकता को साझा करने के लिए बनाया गया था, न कि अभद्रता करने या प्रतिष्ठा पर चोट करने के लिए. लेकिन 15 वर्षों में यह आपसी खुन्नस निकालने का अखाड़ा बन गया है.
यह बिना सार्थक संदेश के संदेशवाहक है. लेकिन यह बहुत बड़ा बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशन भी बन गया है, जिसने 2020 में 3.7 अरब डॉलर की कमाई की है, जिसमें 86 फीसदी हिस्सा केवल विज्ञापन से आया है. इसके बावजूद इसने 1.1 अरब डॉलर का नुकसान दिखाया, जो 2017 के बाद पहला सालाना घाटा था. किसी ने हाल में टिप्पणी की कि ‘ट्विटर एक लगातार चलनेवाली शराब पार्टी है, जहां एक साथ सभी बात कर रहे हैं, पर कोई भी कुछ कह नहीं रहा है. यह विरोधाभासी ही है कि यह नेताओं व समर्थकों, मतदाताओं व नेताओं तथा ग्राहकों व उत्पादकों के बीच एक वैकल्पिक सेतु बन गया है.
लेकिन यह व्यावसायिक एवं प्रतिस्पर्द्धात्मक संचार का सीमित विशिष्ट तंत्र है. एक हालिया अध्ययन ने रेखांकित किया है कि 50 फीसदी से अधिक हैंडल कभी ट्वीट नहीं करते. केवल दस फीसदी 80 फीसदी से अधिक कंटेंट देते हैं. ट्रोल करनेवाले फर्जी अकाउंट नियमित रूप से सामने आते रहते हैं. यह संयोग नहीं है कि कंजरवेटिव यूरोप सोशल मीडिया को पसंद नहीं करता. ब्रिटेन में 1.70 करोड़, फ्रांस में एक करोड़, तो स्पेन, कनाडा और जर्मनी में प्रत्येक में केवल 70 लाख अकाउंट हैं. वहां के नेता इनका बहुत कम इस्तेमाल करते हैं.
फिर भी, हमारे नेता ट्विटर के आड़े-छुपे तरीकों की शिकायत करते हैं. सामाजिक रूप से पिछड़ों के कुछ बड़े समूहों ने इस पर आभिजात्य कह कर उनके ट्वीट को रोकने और कुछ ही लोगों को ब्लू टिक देने का का आरोप लगाया है. भारतीय नेता उसकी योग्यता से कहीं अधिक ट्विटर को महत्व देते हैं. वहां केवल 2.20 करोड़ अकाउंट हैं, जो देश के पांच अंग्रेजी अखबारों के पाठकों की संख्या का आधा है. भारतीय नेता उस फर्जी कीमियागर के फेर में पड़ गये हैं, जो शब्दों को दैवी सोने में बदलने का झांसा देता है. कई यूट्यूबर हर दिन 2.50 करोड़ से अधिक दर्शक और हिट पाते हैं.
ट्विटर एक तुष्ट घरेलू बिल्ली की तरह है, जो एक कनिष्ठ नेता के चिल्लाने से चुप हो जाती है. ट्विटर को लोकतंत्र के लिए खतरा बताना बचपना है. ट्विटर एक संकरा कुआं बनता जा रहा है, जहां लगातार ट्वीट करनेवाले अपनी ही आवाज को सुनते हैं, जो दुर्गंधयुक्त होती है. लोकतांत्रिक संवाद को पैसा-आधारित माध्यम की जरूरत नहीं होती.