यूक्रेन मसला और हथियार कारोबार
युद्ध अर्थव्यवस्था बढ़ने का मुख्य कारण दुनियाभर में रक्षा खर्च में भारी बढ़त है. हर सौ डॉलर की वैश्विक आय में से लगभग तीन डॉलर सैन्य मदों में खर्च होता है.
यदि कूटनीति अन्य साधनों के माध्यम से किया जानेवाला युद्ध है, तो युद्ध कपटपूर्ण साधनों से बड़ी कमाई करना है. जब कूटनीति असफल हो जाती है और राष्ट्रों के बीच युद्ध छिड़ जाता है, तो हथियार कारोबारी, निर्माता और सरकार की ओर से माहौल बनानेवाले अंधेरे तहखाने से बाहर निकलते हैं और कमाई के लिए मौत की मशीनें बेचते हैं. उनकी कीमत अरबों में होती है और उसे दुख व मौत से चुकाया जाता है.
अब जब तालिबान अपनी बंदूकों और विचारों के साथ लौट आये हैं, ऐसा लगता है कि कालाबाजारी से खरीदे गये हथियारों से लड़ा गया आतंक के विरुद्ध युद्ध थम-सा गया है. सरकारों, आतंकी इकाइयों, गुरिल्ला समूहों, अलग हुए गुटों तथा लड़ाकू गिरोहों तक पहुंच रखनेवाला हजारों मुंहों का दुनिया का बड़ा जीव हथियार लॉबी है और इन्हें आगे बढ़ानेवाले वही देश हैं, जो रोज कसमें खाते हैं कि कारोबार में रहना उनका कारोबार नहीं है.
साल 1939 के बाद पहली बार यूरोप को युद्ध की कगार पर लानेवाला रूस-यूक्रेन तनाव हथियार कारोबार से जुड़ा सबसे कपटी प्रकरण है. इसके खिलाड़ी रूस और अमेरिकानीत नाटो हैं. अधिकतर नाटो देशों में बड़ी हथियार कंपनियां हैं, जो ऐसे देशों को साजो-सामान निर्यात करती हैं, जिन्होंने न कभी युद्ध लड़ा है और न ही भविष्य में ऐसा होने की संभावना है. संघर्ष भौगोलिक सीमाएं बदल देता है और युद्ध साम्राज्य के धन को कई गुना बढ़ा देता है.
युद्ध अर्थव्यवस्था बढ़ने का मुख्य कारण दुनियाभर में रक्षा खर्च में भारी बढ़त है, जिसके पीछे ब्लैकवाटर जैसी निजी लड़ाकू कंपनियां, सीआइए की गतिविधियां तथा अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की प्राकृतिक संपदा पर पश्चिमी कारोबारियों की गिद्ध दृष्टि है. हर सौ डॉलर की वैश्विक आय में से लगभग तीन डॉलर सैन्य मदों में खर्च होता है. महामारी के पहले साल में वैश्विक जीडीपी में 4.4 फीसदी के बावजूद देशों ने दो हजार अरब डॉलर सेना पर खर्च किया था.
सैन्य खर्च के मामले में 2020 में अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरा सबसे बड़ा देश था. चीन और पाकिस्तान के साथ भारत का हमेशा से अघोषित शीत युद्ध रहा है, पर कारगिल के बाद इसका कोई संघर्ष नहीं हुआ है. फिर भी भारत का रक्षा व्यय लगभग 75 अरब डॉलर हो चुका है, जो 2016 में 56 अरब डॉलर था. वैश्विक सैन्य खर्च में अमेरिका की 39 फीसदी, चीन की 13 फीसदी और भारत की 3.7 फीसदी हिस्सेदारी रही थी.
इन आंकड़ों के साथ स्टॉकहोम स्थित संस्था सिपरी की रिपोर्ट में यह दिलचस्प तथ्य भी रेखांकित किया गया है कि एशियाई देशों द्वारा बीते एक दशक में लगभग 50 फीसदी हथियारों की खरीद हुई है, जिसमें चीन और भारत की बड़ी हिस्सेदारी है. ये देश सीधे युद्ध में भी शामिल नहीं है. खाड़ी देशों ने सैन्य साजो-सामान पर सौ अरब डॉलर से अधिक खर्च किया है. इनमें सबसे बड़े आयातक सऊदी अरब ने अपनी 70 फीसदी खरीद अमेरिका से की, जो इजरायल की 92 फीसदी और जापान की 95 फीसदी जरूरत को भी पूरा करता है.
सैन्य खर्च में अजीब बढ़त की वजह वैचारिक या आर्थिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच असली लड़ाई से कहीं अधिक विक्टर बाउट जैसे मौत के सौदागर हैं. साल 2012 में अमेरिका में इसे 25 साल की कैद हुई थी. इसने अफ्रीकी समूहों को पुराने सोवियत जहाज व हथियार बेचा था. संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेजों के अनुसार, इसने हीरों के बदले लाइबेरिया के कुख्यात तानाशाह चार्ल्स टेलर को हथियार दिया था.
बाउट ने जनसंहार करनेवाले मध्य व उत्तरी अफ्रीका के सरगनाओं के साथ-साथ अंगोला के गृहयुद्ध में दोनों खेमों को हथियारों की आपूर्ति की थी. बीते दो दशकों की सभी लड़ाइयों के साथ बाउट का संबंध रहा है. उस पर 2005 में ‘लॉर्ड ऑफ वार’ नामक फिल्म भी बन चुकी है. दुनिया के शीर्षस्थ सौ हथियार ठेकेदारों की सालाना आमदनी 400 अरब डॉलर है, जिसमें एक दशक से भी कम समय में 25 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.
अफ्रीका और एशिया में 19वीं सदी से जारी हथियारों की आमद उन देशों में सत्ता संतुलन को साधने का राजनीतिक और व्यावसायिक हथियार बनी, जहां विकसित देशों के कॉरपोरेट हित जुड़े हैं. ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार, तीसरी दुनिया में हथियारों के जखीरे में सबसे बड़ी बढ़त 1978 से 1985 के बीच हुई, जब सरकारों ने 258 अरब डॉलर के साजो-सामान खरीदे.
स्पष्ट है कि दीर्घकालीन शांति हथियार कारोबारियों और उनके सरकारी लॉबी करनेवालों के लिए स्वास्थ्यप्रद नहीं है. अब जब अमेरिकी और यूरोपीय नेता रूस के साथ जुबानी जंग कर रहे हैं, तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि ‘क्या यह सब शोर केवल हथियारों की खरीद को बढ़ाने के लिए है या फिर यह महज संयोग है कि शीर्ष पश्चिमी नेता सचमुच यह मानते हैं कि कभी भी यूक्रेन पर हमला हो सकता है?’ अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने तो दिन और समय भी बता दिया था, जो गलत साबित हुए.
यूरोपीय संघ अमेरिकी चिंताओं को आगे बढ़ाने में जुटा हुआ है. रूस और पश्चिम के लिए सैन्य संघर्ष बाजार के विस्तार का एक तरीका है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कोई बड़ा अंतरराष्ट्रीय युद्ध नहीं हुआ है. लेकिन लोगों का जीवन बेहतर करने की बजाय युद्धों की भविष्यवाणी पर या युद्धोन्माद फैलाने पर बहुत अधिक समय और धन खर्च किया गया है.
अमेरिका ने लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर अफगानिस्तान और पश्चिमी एशिया में युद्धों पर खरबों डॉलर खर्च किया है. अफगानिस्तान में वह जिन लोगों को खत्म करना चाहता था, उन्हीं के पास ढेर सारे हथियार और लड़ाकू जहाज छोड़कर अफगानिस्तान से उसे शर्मिंदगी के साथ पीछे हटना पड़ा. युद्ध और जनसंहार बहुत लाभप्रद व्यवसाय है.
निजी सुरक्षा कंपनियां आतंकियों और छोटी सरकारों से लड़ने के लिए पूर्व सैनिकों को नियुक्त करते हैं. निजी सैन्य व सुरक्षा कंपनियों के बनाये समूहों को शोधकर्ता अदृश्य सेना की संज्ञा देते हैं. माना जाता है कि निजी सेनाओं का कारोबार 200 अरब डॉलर का है. साल 2011 में अमेरिका ने देश के बाहर ऐसी तैनातियों पर 120 अरब डॉलर से अधिक खर्च किया था. लगता है कि जब सीमा पर तैनात सैनिक नशे में होते हैं या सोये होते हैं या उन्हें घूस दे दी जाती है, तब दुनियाभर में आतंकियों को हथियार पहुंचाये जाते हैं. युद्ध ऐसा कारोबार है, जो कभी सोता नहीं है.