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बरकरार है कांग्रेस की तानाशाही प्रवृत्ति

कांग्रेस ने जिस तानाशाही प्रवृत्ति के कारण आपातकाल लगाया गया था, वह आज भी ठीक वैसी ही है और यह अक्‍सर उभर कर सामने आ जाती है.

इस बात को 46 साल बीत चुके हैं, जब भारतीय लोकतंत्र ने अब तक का सबसे काला दिन देखा था- आपातकाल की शुरुआत. आपातकाल और लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर इसका हमला, न केवल भारतीयों के लिए बल्कि कानून के शासन, लोगों के शासन और संवैधानिकता को महत्व देने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक काला दिन है. आपातकाल के दौरान हमारे देश पर कई बुराइयां थोपी गयी थीं. इसने हमारे संविधान और हमारी संस्थाओं को जो आघात पहुंचाया, उसे यहां दोहराये जाने की आवश्यकता नहीं है.

1960 के दशक में भारत और चीन पर एक बहस के दौरान, जब नेतृत्व के बारे में सवाल किया गया, तो स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा कि चीन के खिलाफ तैयारियों पर सवाल उठाना, राष्ट्र के मनोबल को कमजोर करने जैसा होगा. एक परिवार को दूसरों पर विशेषाधिकार देना भी, पंडित नेहरू के साथ शुरू हुआ, जब इंदिरा गांधी को 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया था. नेहरू-गांधी वंश के दृष्टिकोण को नहीं मानने वाले कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेता बार-बार अपमानित हुए और पार्टी एक परिवार की एकमात्र संपत्ति बन गई.

चाहे मोरारजी देसाई हों, के कामराज हों, अतुल्य घोष हों, चरण सिंह हों, देवी लाल हों, बाबू जगजीवन राम हों, ऐसे लोगों को पार्टी पर एक परिवार का राज कायम करने का रास्ता बनाने के लिए एक तरफ धकेल दिया गया, जिसने अंततः देश पर एक पार्टी के शासन के प्रयास का मार्ग प्रशस्त किया. हर कोई जानता है कि सोनिया गांधी के लिए रास्ता बनाने के लिए सीताराम केसरी को कैसे अपमानित गया था. और बाद में, जितेंद्र प्रसाद को कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने पर कैसे निशाना बनाया गया था, जबकि उन्हें चुनाव लड़ने का पूरा अधिकार था. इसी तरह, अब कांग्रेस में हर उस युवा नेता को पीछे धकेलने की कोशिश की जा रही है, जिसे राहुल गांधी के प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जा सकता है.

सत्ता के केंद्रीकरण की भूख ने नेहरू-गांधी परिवार के जेहन में लोकतांत्रिक रूप से चुने गये अन्य नेताओं के प्रति तिरस्कार की भावना को जन्म दिया है. जब केंद्र में कांग्रेस की सरकारें थीं, तब विभिन्न राज्यों में 80 से अधिक बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया. इसका एक परिणाम यह हुआ कि राजभवन का इस्तेमाल वास्तविक रूप से कांग्रेस पार्टी के मुख्यालय के रूप में किया जाने लगा. यह सब हाल के यूपीए के शासनकाल में भी हुआ. केंद्र में भी, कांग्रेस हमेशा ‘सिंहासन के पीछे से सत्ता चलाने के दृष्टिकोण’ से संचालित रही है. उसके इस दृष्टिकोण ने एक भी गठबंधन सरकार, जिन्हें ‘बाहर से समर्थन’ प्राप्त था, को अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया.

सत्ता के लिए कांग्रेस की भूख से पैदा हुई दुर्गंध दूर-दूर तक फैली. यहां तक कि इसकी दुर्गंध न्यायपालिका तक भी पहुंची. इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने ही ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ का आह्वान किया था और यहां तक कि उसने ऐसी न्यायपालिका बनाने का काम भी किया. योग्य न्यायाधीशों को उनके पद से हटाकर उनकी जगह पर अपने मनपसंद लोगों को बिठाना, न्यायमूर्ति एच आर खन्ना जैसे न्यायाधीशों, जो उनके मुताबिक चलने में विफल रहे, को सजा देना और बहरुल इस्लाम का मामला, जिन्हें कांग्रेस में राजनीतिक पद और न्यायिक नियुक्तियां स्वीकार करने का कोई मलाल नहीं था, इसके कुछ उदाहरण हैं.

सोनिया गांधी के दौर में मुख्य न्यायाधीशों का मनमाने ढंग से तबादला किया गया, जिसे स्वर्गीय अरुण जेटली ने न्यायाधीशों के बीच आतंक पैदा करने का एक सुनियोजित प्रयास बताया था. कांग्रेस पार्टी की तानाशाही और शैतानी प्रवृत्ति सबसे निचले स्तर तक सिमट जाने के बाद भी खत्म नहीं हुई.

राहुल गांधी ने एक मुख्य न्यायाधीश पर महाभियोग चलाने की कोशिश सिर्फ इसलिए की क्योंकि उन्होंने अदालतों के जरिए एक घटिया राजनीतिक एजेंडा चलाने के कांग्रेस पार्टी के प्रयासों का समर्थन नहीं किया. जो कोई भी चुनावों में बार-बार विफल होने वाले वास्तविक नेतृत्व जैसे कि राहुल गांधी से असहमति व्‍यक्‍त करता है उसे दरकिनार कर दिया जाता है.

‘जी-23’ का हालिया उदाहरण आपके सामने है. नेहरू-गांधी परिवार पंजाब और राजस्थान में अपनी ही पार्टी के मजबूत क्षेत्रीय नेताओं का कद छोटा करने के तरीके के रूप में आंतरिक दांव-पेंच का इस्‍तेमाल करता है. कांग्रेस के अपने ही विधायक यह कहते हुए पार्टी छोड़ रहे हैं कि ‘प्रथम परिवार’ से यहां तक कि कुत्ते को भी उनसे कहीं ज्यादा तवज्जो मिलती है.

कांग्रेस के छल-कपट के ठीक विपरीत प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी हैं, जो राष्ट्र को सदैव हर चीज से ऊपर रखते हैं, यह विशिष्‍ट सोच दरअसल भाजपा की राजनीतिक परंपरा से उत्‍पन्‍न हुई है जिसने सत्ता छोड़ दी, लेकिन कभी भी संवैधानिक सिद्धांतों के खिलाफ नहीं गयी. जहां एक ओर कांग्रेस सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर सकती है, वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी ने जम्मू-कश्मीर में गठबंधन से हाथ खींच लिया, क्योंकि गठबंधन की सहयोगी पार्टी डीडीसी चुनावों में अड़ंगा लगा रही थी, यह जमीनी स्‍तर पर लोकतंत्र को राजनीतिक सत्ता से ऊपर रखने की उत्‍कृष्‍ट प्रवृत्ति को दर्शाता है.

प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में ही जीएसटी परिषद में सहकारी संघवाद के मामले में उल्‍लेखनीय उपलब्धि हासिल हुई है, जहां राज्यों को विशेष महत्व दिया जाता है। इसी तरह यह सुनिश्चित करने के लिए नियमों में संशोधन किया गया है कि विपक्ष के नेता सीबीआई में नियुक्तियों से संबंधित प्रमुख बैठकों में भाग ले सकें. राजनीतिक विरोधियों के साथ कांग्रेस का व्यवहार सर्वविदित है. स्‍वयं सोनिया गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने अटल बिहारी वाजपेयी जैसी बड़ी शख्सियत का निरादर किया था.

वहीं, दूसरी ओर गुलाम नबी आजाद की संसद से विदाई होने के समय प्रधानमंत्री मोदी का भावुक भाषण और उनकी आंखों में छलक आये आंसू भाजपा के उच्‍च नैतिक मूल्यों का प्रतीक हैं. कांग्रेस की सत्तावादी या तानाशाही एवं सत्ता-लोलुप प्रवृत्ति और कांग्रेस विरोधी ताकतों के लोकतांत्रिक दृष्टिकोण के बीच के मुख्य अंतर को कभी भी नहीं भूलना चाहिए. कांग्रेस ने जिस तानाशाही प्रवृत्ति के कारण आपातकाल लगाया गया था, वह आज भी ठीक वैसी ही है और यह अक्‍सर उभर कर सामने आ जाती है. फर्क सिर्फ इतना है कि केंद्र की राजनीतिक सत्ता अब उसके हाथों में दूर-दूर तक नहीं है, और यह इस लिहाज से निश्चित तौर पर बेहतर है.

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