हूल : समानांतर सरकार गठन की पहली घटना

मार्ग प्रशस्त करते हुए ब्रिटिश शासन में ऐसी लकीरें खींच दीं, जो औपनिवेशिक शासन एवं स्वतंत्रता के उपरांत भी संताल आदिवासियों के वैभव एवं साहस का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए प्रेरित करता है.

By रवींद्रनाथ महतो | June 30, 2021 8:15 AM
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स्वतंत्रता संग्राम में जनभागीदारी, सहयोग और रणनीति के दृष्टिकोण से हूल आंदोलन का स्वरूप एक जन-आंदोलन का था. यह समानांतर सरकार गठन की पहली घटना थी. विशाल और प्रशिक्षित ब्रिटिश सेना के समक्ष जिस प्रकार गुरिल्ला तकनीक का प्रयोग इस आंदोलन में किया गया, वह लंबे समय तक क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा होगा.

संताल शांतिप्रिय, विनम्र लोग हैं. इनका मुख्य पेशा कृषि और आखेट रहा था. आरंभ काल में मानभूम धालभूम, हजारीबाग, मिदनापुर, बांकुड़ा एवं बीरभूम आदि इलाकों में इनकी बसावट थी. इस इलाके में भूमि बंदोबस्ती का गहरा प्रभाव पड़ने के उपरांत बाहरी तत्व सूदखोरों, व्यापारियों, ठेकेदारों और जमीन हड़पने वाली व्यवस्था इतनी मजबूत हो गयी कि अधिकतर संताल समुदाय के लोगों को यहां से पलायन करना पड़ा.

सीधे-साधे लोगों को ऋण के कुचक्र में इस प्रकार फंसाया जाता था कि उन से 50 प्रतिशत से 500 प्रतिशत तक के ब्याज वसूले जाते थे. दुमका के तत्कालीन उपायुक्त एआर थैम्पसन ने लिखा है कि संताल आदिवासी महेशपुर और पाकुड़ के राजाओं से नफरत करते थे, क्योंकि वे गैर आदिवासियों को गांव का पट्टा दे दिया करते थे. कंपनी की न्याय व्यवस्था लचर होने के कारण आदिवासियों की पीड़ा बढ़ती गयी और उनकी इस पीड़ा ने एक बड़े जन आंदोलन की जमीन तैयार की. कंपनी के अधिकारी दीवानी अधिकार तो अपने पास रखते थे, परंतु फौजदारी कानून को लेकर वह एकमत नहीं थे.

इन परिस्थितियों में संताल आदिवासियों के पास व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह के अलावे कोई रास्ता नहीं बचा. वर्तमान साहेबगंज जिले का भोगनाडीह गांव उस ऐतिहासिक घटना का साक्षी बना, जब सिदो, कान्हू चांद और भैरो के नेतृत्व में हजारों-हजार की संख्या में संतालों ने एकत्र होकर डीक शासन (अंग्रेजी हुकूमत) की समाप्ति का आह्वान कर दिया, जिसे आज हम हूल दिवस के रूप में याद कर रहे हैं.

1857 से ठीक पूर्व हूल एक ऐसी क्रांति थी, जिसने उस दौर में औपनिवेशिक सत्ता को हिला कर रख दिया. भोगनाडीह से आदिवासियों ने आह्वान कर दिया कि अब हमारे ऊपर कोई सरकार नहीं, थानेदार नहीं, हाकिम नहीं. अब संताल राज्य स्थापित हो गया. संताल राज्य में स्वतंत्र सरकार की स्थापना हो जाने के उपरांत सिदो को राजा, कान्हू को मंत्री, चांद को प्रशासक और भैरो को सेनापति बनाया गया. जनसाधारण को यह अवगत कराया गया कि इस सरकार को मरांग बुरु (मुख्य देवता ) और जाहेर एरा (मुख्य देवी) की कृपा प्राप्त है. सरकार की अवहेलना करने पर पर मृत्युदंड तक संभव है.

60000 सैनिकों का दस्ता तैयार किया गया. आदिवासी सेना को 1500-2000 टुकड़ियों में बांटा गया. सशस्त्र क्रांति का सूत्रपात संथालों की भीड़ के द्वारा एक थानेदार को मार देने से होती है. अंग्रेजी बस्तियों पर हमला किये गये आक्रमण का मुख्य केंद्र रेलवे स्टेशन, डाकघर, पुलिस चौकी, जमींदार भूमिकर अधिकारी हुआ करते थे. संथालों की सेना ने फूदकीपुर नामक गांव पर आक्रमण कर अनेक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया.

संथाल विद्रोह के पूरे घटनाक्रम पर नजर डालने से 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गठित समानांतर सरकारें संथाल हूल के घटनाक्रम की पुनरावृत्ति प्रतीत होती हैं. संथाल विद्रोह की इस सशस्त्र क्रांति में 10,000 से अधिक संथाल आदिवासी मारे गये. निरीह आदिवासियों ने जिस तरह विद्रोह में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और बलिदान दिया उस अनुपात में इतिहास की किताबों में उन्हें जगह नहीं दी गयी.

संताल विद्रोह को मात्र स्थानीय विद्रोह समझा गया, भले ही इसका कारण दस्तावेजों की कमी हो सकती है या फिर कहें कि आंदोलनकारियों के किसी भी प्रकार के लिखित साक्ष्य का अभाव हो सकता है, परंतु इतिहास के पन्ने दर पन्ने पलटने के उपरांत भी भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में मुझे इससे पहले प्रथम स्वतंत्र समानांतर सरकार के गठन के साक्ष्य नहीं दिखाई पड़ते हैं.

विश्व के ख्यातिप्राप्त चिंतक और इतिहासकार कार्ल मार्क्स ने भले ही संताल विद्रोह को भारत का प्रथम जन विद्रोह कहा हो, परंतु संताल विद्रोह और उसके आंदोलनकारियों को उचित सम्मान से नवाजे जाने के लिए अब भी बहुत कुछ करना शेष है.

एक सुदूरवर्ती इलाकों में इस आंदोलन की पूरी घटना घटित हुई, परंतु आंदोलन की शुरुआत हूल से हो और उसका अंत अंग्रेजी हुकूमत द्वारा मार्शल लॉ से किया जाए, तब अंजाम से उपजे परिणाम को भी साधारण ढंग से नहीं देखा जाना चाहिए. वस्तुत: इसके दूरगामी परिणाम पर भी मीमांसा होनी चाहिए. हूल जैसी क्रांति की पुनरावृति अंग्रेजी हुकूमत में दोबारा न हो, इसके लिए तत्कालिक वायसराय डलहौजी ने अपने क्षेत्रीय अधिकारियों को नीतियों में परिवर्तन के ऐसे स्पष्ट निर्देश दिये, जिसने न केवल स्वतंत्रता प्राप्ति तक के लिए आदिवासियों को राहत दी, बल्कि स्वतंत्रता के बाद भी यह जनजातीय क्षेत्र एवं आदिवासियों के लिए एक मैग्नाकार्टा के रूप में स्थापित हुआ.

विद्रोह के तुरंत बाद गवर्नर जेनरल ने इस क्षेत्र को अपने अधीन लेते हुए विशेष सुविधा उपलब्ध कराने के निमित्त दामिन ए कोह को एक्सक्लूडेड एरिया (अधिसूचित क्षेत्र) के रूप में घोषित किया. इसी शुरुआत के मद्देनजर शायद हमारे संविधान निर्माताओं ने भी संविधान के अनुच्छेद 244(1) के तहत आदिवासी क्षेत्र के लोगों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए, जो जनजातीय क्षेत्र से आच्छादित है, संसद द्वारा बनाये गये विधान के अधीन रहते हुए राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गयी कि वह किसी क्षेत्र को अधिसूचित क्षेत्र घोषित कर सकें. ऐसे क्षेत्रों के प्रशासन का विशेष उपबंध हमारे संविधान की पांचवीं एवं छठी अनुसूची में वर्णित है.

झारखंड का संताल परगना टेनेंसी एक्ट एवं छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट जैसे कानून को भी इसी कड़ी के रूप में जोड़ कर देखा जा सकता हैं, कंपनी की सरकार में अधिनियम पारित कर संपूर्ण संताल आदिवासियों के इलाके को मिलाकर एक नया जिला बनाने की घोषणा की, जो संताल परगना के नाम से जाना गया.

हूल बाहरी शासकों के खिलाफ एक सशस्त्र विद्रोह था, निश्चित ही इसका क्षेत्रीय विस्तार बहुत वृहद नहीं था, इसके बावजूद इस क्रांति ने देश के अनेक आंदोलनों के मार्ग प्रशस्त करते हुए ब्रिटिश शासन में ऐसी लकीरें खींच दीं, जो औपनिवेशिक शासन एवं स्वतंत्रता के उपरांत भी संथाल आदिवासियों के वैभव एवं साहस का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए प्रेरित करता है. संताल हूल की बात फूलो और झानो का उल्लेख किए बिना समाप्त नहीं की जा सकती है. इन वीरांगनाओं ने जिस प्रकार अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया, निश्चय ही वे न केवल इस क्षेत्र के लिए वरन पूरे देश के लिए प्रेरणा की स्रोत हैं.

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