हेमवती नंदन बहुगुणा ने इंदिरा गांधी को 1974 के बिहार आंदोलन के संबंध में पत्र लिख कर चेताया था कि जयप्रकाश नारायण फकीर हैं. उनके पास खोने के लिए लंगोटी के सिवाय कुछ भी नहीं है, लेकिन आपके पास खोने के लिए पूरा साम्राज्य है. उनसे लड़ना ठीक नहीं, पर इंदिरा जी ने इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया. साल 1974 की लड़ाई मूलत: कांग्रेसी इंदिरा सरकार से नहीं थी. जेपी की लड़ाई सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए थी. बिहार के छात्र आंदोलन में जेपी की अगुवाई एक ऐतिहासिक संयोग था.
बिहार का छात्र आंदोलन पहली बार 18 मार्च,1974 को अखबारों की सुर्खियों में आया, जब छात्र संघर्ष समिति गठित कर महाविद्यालयों के छात्र पटना की सड़कों पर उतर गये. सरकार की दमनकारी नीतियों के चलते छात्रों में उबाल था. छात्र नेता जेपी के पास उनके नेतृत्व के लिए गये. उन्होंने कहा, अगर मेरा नेतृत्व चाहते हैं, तो किसी भी स्थिति में मेरा निर्णय अंतिम होगा. जेपी के इस निर्णय का छात्रों ने स्वागत किया.
आश्चर्य होता है कि सरकार सत्ता के मद में इतनी चूर थी कि जेपी के चेताने के बाद भी उसके कान पर जूं तक नहीं रेंगी. नतीजा हुआ कि छात्रों की मांग से शुरू हुए आंदोलन ने भ्रष्टाचार, महंगाई, कुशिक्षा जैसे अनेक मुद्दों के साथ व्यापक आयाम ले लिया. राज्य भर में जगह-जगह धरना, प्रदर्शन आदि शुरू हो गये. राजधानी की सड़कों पर जुलूस निकलने लगे. विधानसभा का घेराव होने लगा. जेपी की अपील पर विधायक विधानसभा से इस्तीफा देकर आंदोलन के साथ आ गये. गांव-गांव जनता सरकार गठित होने लगी.
जेपी ने पांच जून, 1974 को गांधी मैदान की महती सभा को संबोधित किया, जिसमें लगभग तीन लाख लोग इकट्ठा हुए थे. जेपी ने संपूर्ण क्रांति का विचार उस सभा में प्रकट किया और उसी दिन पूरा छात्र आंदोलन संपूर्ण क्रांति आंदोलन में तब्दील हो गया. निरंकुश सरकार की तानाशाही और पुलिस के बर्बर कारनामों की दास्तान गुलाम भारत में ब्रिटिश हुकूमत की याद दिलानेवाला था- बात-बात पर आंसू गैस, लाठीचार्ज, जेल यातना. पटना की सड़कें साक्षी हैं कि जब पुलिस की लाठियां जुलूस में चलते समय जेपी के सिर पर पड़ीं और खून फूट पड़ा था. उस समय उनकी उम्र 75 वर्ष थी.
जनता के हक-हकूक के लिए लड़नेवाले ढेरों नाम हैं, मगर जेपी जैसा व्यक्तित्व दुर्लभ है. दिल्ली के रामलीला मैदान में 24 जून, 1975 को जेपी ने बड़ी सभा को संबोधित किया. उसकी चिनगारी कांग्रेस के कनात में गयी और उसी रात इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल घोषित कर दिया. जेपी को गिरफ्तार कर चंडीगढ़ जेल भेज दिया गया. उसके बाद तो देशभर में आंदोलनकारियों की गिरफ्तारियां शुरू हो गयीं.
जेपी का विश्वास था कि मनुष्य का सत्य पराजित नहीं हो सकता, चाहे उसे कितना ही क्यों न दबाया जाए. हुआ भी वही. कई महीनों बाद उन्हें मरा जानकर पेरोल पर छोड़ा गया. लगभग साल भर बाद इमरजेंसी हटी और चुनाव की घोषणा हुई. उस चुनाव में कांग्रेस का सफाया हो गया और जनता पार्टी अजेय बहुमत से सत्ता में आ गयी.
जेपी ने दिल्ली के राजघाट पर जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं को शपथ दिलायी, पर कुछ ही दिन बाद सत्ता में पहुंचे नेताओं के रंग-ढंग दिखने लगे. प्रतिनिधि वापसी (राइट टू रिकॉल) जैसे मुद्दे को नकार दिया गया. वे आंदोलन के मुद्दे और जेपी की बातें भूल गये. वे अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ने लगे. डायलिसिस पर भी जेपी को चैन से नहीं रहने दिया.
जेपी ने उन्हें संभलने का बहुत मौका दिया, मगर संकीर्णतावादी लोग खुद को बदल न सके. जेपी को समझना उनके लिए दूर की कौड़ी थी. जेपी खोजी प्रवृति के व्यक्ति थे. अपने आखिरी दिनों में भी वे खोज रहे थे उस आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था की, जहां कोई व्यक्ति या समूह, कोई संसद या न्यायालय की निष्ठा अंधी निष्ठा में तब्दील न हो जाए.
वर्ष 1977 में इंदिरा गांधी का पराभव तथा इमरजेंसी का हटना जेपी के जीवन की सबसे प्रमुख घटना है, जिसकी सर्वाधिक चर्चा होती है. उन्हीं के नेतृत्व के कारण भारत में लोकतंत्र को बचाया जा सका. मार्च, 1977 में जैसे ही चुनाव के परिणाम आये कि अमेरिकी प्रशासन में हलचल मच गयी कि जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को बचा लिया. अमेरिकी राष्ट्रपति को अमेरिकी जनता की ओर से तत्क्षण बधाई संदेश देना चाहिए, पर दुविधा यह थी कि यह कैसे हो. जेपी न तो ‘हेड ऑफ स्टेट’ थे, न ही ‘हेड ऑफ गवर्नमेंट’.
अमेरिकी कांग्रेस की स्टैंडिंग कमेटी ने तुरंत प्रोटोकॉल में संशोधन किया और राष्ट्रपति जिमी कार्टर का फोन जेपी के छोटे से घर पटना के कदमकुआं में महिला चरखा समिति में पहुंचा कि मिस्टर नारायण, मैं अमेरिकी जनता की ओर से आपका अभिवादन करता हूं तथा बधाई देता हूं कि आपने लोकतंत्र को भारत में बचा लिया. हमारे दौर के लोकतंत्र के सबसे बड़े सेनानी हैं आप.