ऑनलाइन गेम के आदी होते बच्चे
विचारक मार्शल मैक्लुहान ने अपने शोध में सिद्ध किया है कि दृश्य-श्रव्य माध्यम मस्तिष्क को आतंक फैलाने के लिए उकसाते हैं. इन खेलों का हिंसात्मक द्वंद्व बच्चों के मन में खीझ, गुस्सा और मारपीट भर देता है. परिणामस्वरूप, युवा होते बच्चे अपनी संवेदना खोने लगते हैं.
चीन में ऑनलाइन गेम के लिए बनाये गये नये नियमों के अनुसार, 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे सप्ताह में केवल तीन घंटे ही गेम खेल पायेंगे. चीन में अधिकारियों ने ऑनलाइन गेमिंग पर नियम कड़ा करने का फैसला लेते हुए बच्चों व किशोरों को सप्ताह में शुक्रवार से लेकर रविवार की देर शाम आठ बजे से रात नौ बजे के बीच ऑनलाइन गेम खेलने की अनुमति दी है. इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय अवकाश के दिन भी बच्चे व किशोर इसी समयावधि में गेम खेल सकते हैं. इस निर्णय के पीछे बच्चों पर ऑनलाइन गेमिंग के पड़नेवाले नकारात्मक प्रभाव हैं.
इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि तकनीक के इस दौर में हम सभी अपना समय वास्तविक दुनिया से इतर आभासी दुनिया को दे रहे हैं, जो हमारे दिमाग को शनैः-शनैः काबू में कर रही है. इस तथ्य की पुष्टि एमआरआइ स्कैन के उस नतीजे से की जा सकती है जो गेमिंग की दुनिया में डूबे हुए लोगों पर किया गया है. इस शोध के परिणाम बताते हैं कि गेम्स के आदी हो जाने का प्रभाव दवा के दुरुपयोग की तरह है.
यदि बच्चे वीडियो या मोबाइल पर लगातार गेम खेलते रहते हैं, तो इससे नशे के आदी लोगों की तरह उनके दिमाग के काम करने के तरीके और संरचना में बदलाव होता है. इसका नतीजा बच्चों के विकास, व्यवहार और स्वास्थ्य पर पड़नेवाले नकारात्मक प्रभाव की शक्ल में सामने आता है.
वर्ष 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ऑनलाइन गेमिंग को एक मानसिक स्वास्थ्य विकार घोषित किया था. क्या इस मानसिक अस्वस्थता के जिम्मेदार सिर्फ बच्चे या किशोर हैं? क्या हम इसमें अपनी भूमिका को नकार सकते हैं? वर्ष 1920 से 1930 के मध्य दुनियाभर में ‘प्रोग्रेसिव पैरेंटिंग मूवमेंट’ की लहर आयी थी, जिसने 1960 में भारत में भी जोर पकड़ा. बच्चे की सोच, उसकी दिनचर्या, उसकी इच्छाओं के मुताबिक ही माता-पिता के स्वयं को ढाल लेने की प्रवृत्ति ने बच्चों को जिद्दी, असमझौताकारी और असंवेदनशील बना दिया.
बेहतर भौतिक सुविधाएं देना आज परवरिश का मानदंड बन चुका है. मोबाइल और वीडियो गेम इसका अभिन्न हिस्सा बन गये हैं. अमेरिकी अर्थशास्त्री डब्ल्यूडब्ल्यू रोस्टो ने विकास के चरणों की चर्चा करते हुए कहा था, ‘उच्च स्तरीय जन-उपभोग’ में विभिन्न जरूरतें टेक्नोलॉजी से संतुष्ट हो जाती हैं और सामाजिक संबंधों में उपस्थित भावनात्मकता ‘उपभोग’ और ‘व्यवसायीकरण’ के कारण उपेक्षित होती चली जाती है. भारतीय समाज भी उसी चरण से गुजर रहा है जहां भावनाओं का और सामाजिक संबंधों का महत्व शून्य हो गया है. व्यक्तित्व निर्माण, मूल्यों और प्रतिमानों की जगह प्रौद्योगिकी निर्देशित ताकतों से हो रहा है.
अमेरिकन साइकोलॉजी एसोसिएशन की रिपोर्ट दर्शाती है कि ‘हिंसक वीडियो गेम्स के इस्तेमाल और आक्रामकता बढ़ने व संवेदनशीलता कम होने के बीच सीधा संबंध है.’ इस बात को हम उस चौदह वर्षीय किशोर के उदाहरण से समझ सकते हैं जो अमेरिका के सेक्रामेंहो नामक स्थान पर रहता था, उसने एक दस वर्षीय लड़की को हथौड़े की चोट से इसलिए मार दिया क्योंकि ‘किसी की जान लेने की उसकी इच्छा तीव्र हो उठी थी.’ आखिर उस बच्चे के मन में यह मनोविकार उत्पन्न कैसे हुआ?
शोध करने पर पता चला कि वह बच्चा ‘हाइस्कूल गैंगस्टर क्राइम सिटी’ और ‘अमेरिकन हाइस्कूल गैंग’ का आदी था. इस खेल का मुख्य किरदार ‘जैक’ है, जो तरह-तरह के अपराध करता है और विरोध करनेवालों की हत्या कर देता है.
िवचारक मार्शल मैक्लुहान ने भी अपने शोध में यह सिद्ध किया है कि दृश्य-श्रव्य माध्यम मस्तिष्क को आतंक फैलाने के लिए उकसाते हैं. इन खेलों का हिंसात्मक द्वंद्व बच्चों के मन में खीझ, गुस्सा और मारपीट भर देता है. परिणामस्वरूप, युवा होते बच्चे अपनी संवेदना खोने लगते हैं और संवेदनहीनता उनके मन की कोमल भावनाओं एवं सकारात्मकता को कुंद कर देती है.
इंगलैंड के ग्लोबल मार्केट रिसर्च फर्म, एनपीडी ग्रुप के एक अध्ययन के मुताबिक, बच्चों में गेमिंग की लत इस सीमा तक है कि दस में से नौ बच्चे वीडियो गेम खेलते हैं. इनमें से कुछ तो वे होते हैं जिन्होंने अभी अक्षरों को जोड़ कर वाक्य बनाना भी ठीक से समझा नहीं होता है. नतीजतन, 21 से 22 वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते ये बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार हो जाते हैं. आभासी दुनिया से ही अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करते-करते वास्तविकता के संसार से बहुत दूर चले जाते हैं.
समय आ गया है कि परिवार और समाज, ऑनलाइन गेम्स की लत का दोष बच्चों पर मढ़ने की बजाय स्वयं की भूमिका का विश्लेषण करें और उन कमियों को तलाशें, जिनके चलते उनके बच्चे आभासी संसार में सुख पा रहे हैं. क्या यह सच नहीं है कि निरंतर अंतहीन भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भागते-दौड़ते अभिभावक स्वयं अपने बच्चों के हाथों में मोबाइल और वीडियो गेम पकड़ा देते हैं. अभिभावकों का अपने लिए कुछ समय या बच्चों की जिज्ञासाओं से मुक्ति पाने का रास्ता उनके ही बच्चों को एक अंतहीन पीड़ा का मार्ग चुनने का रास्ता देता है.
बच्चों को महंगे संसाधनों से अधिक अभिभावक के समय की जरूरत है. जहां एक-दूसरे के बीच परस्पर संवाद हो, एक-दूसरे की कल्पनाओं के संसार को बुनने और समझने में सहभागिता हो. और बच्चों के सपने, डर को सुननेवाले माता-पिता हों. क्योंकि व्यक्ति की यही संपूर्णता उन्हें आभासी दुनिया के मायावी सुख से दूर रखेगी. और यदि अभिभावक ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो यकीनन अपने बच्चों के मानसिक विकार के जिम्मेदार वे स्वयं होंगे.