26.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

अफगान संकट का समाधान

बातचीत से भारतीय हितों को सुरक्षित किया जाना चाहिए और यह स्पष्ट संदेश देना चाहिए कि भारत-विरोधी किसी गतिविधि को समर्थन नहीं देना तालिबान के हित में है.

अफगानिस्तान के घटनाक्रम के कई जटिल संदेश हैं, पर सबसे अहम बिंदु यह है कि धन, हथियार और सैनिकों की अंतहीन आपूर्ति भी बीहड़ को न तो सुरक्षित कर पायी और न ही उसके लड़ाकों को समाप्त कर सकी. पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह कहा करते थे कि आप केवल धन के सहारे कोई चुनाव नहीं जीत सकते.

युद्दों और दखल के बारे में यही कहा जा सकता है कि आप कोई मोर्चा धन, बंदूक या तकनीक की कमी से हार सकते हैं, लेकिन आप केवल इसलिए नहीं जीत सकते कि धन, तकनीक, लोगों या बहुत अधिक वेतन पर काम करनेवाले सलाहकारों और सिद्धहस्त लड़ाकों तक आपकी पहुंच है. तब असल सवाल यह है कि आखिर कोई सेना लड़ने को उद्धत क्यों होती है?

अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित अफगान सेना से उसे यह उम्मीद थी कि वे अंतत: सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल लेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ और वह भी तब, जब तालिबान की वापसी हमेशा संभावित थी. इस सेना के होने का एकमात्र लाभ यह था कि पैसे की आमद बनी रही और उसने सैनिकों को अधिक भ्रष्ट और कमजोर बनाया. तालिबान, जिन्हें वीर नहीं बनाया जाना चाहिए, के पास अभी भी कुछ प्रेरणा और दिशा है. अमेरिका-समर्थित सैनिकों ने उन गोरे सैनिकों के लिए केवल भूरे लड़ाकों का काम किया, जो निजीकृत होते जाते अमेरिका के युद्ध के कारोबार से आयातित होते थे.

अमेरिकियों को ये बातें किसी और से कहीं अधिक पता थीं. तालिबान की वापसी पर अमेरिकी प्रशासन की चाहे जितनी लानत-मलानत हुई हो या अचरज जताया गया हो, जो स्थिति पर नजर रखे हुए थे, उन्हें कोई शक नहीं था कि ऐसा ही होगा. अमेरिकी नजरिये से तो यह बिलकुल ही पता था कि यही होना है. ऐसा इसलिए कि अमेरिका को अब तक समझ में आ गया था और उसने तालिबान के भीतर संपर्क भी स्थापित कर लिया था. कम-से-कम एक दशक से इस वापसी के संकेत दुनिया के सामने थे.

सैन्य विश्लेषक जॉन कुक ने 2012 में अपनी किताब ‘अफगानिस्तान: द परफेक्ट फेलियर’ में रेखांकित किया था: ‘अगर (अफगान) सैनिक अपनी टुकड़ी से बाहर जाना चाहते हैं, तो आराम से चले जाते हैं और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती. अगर वे वापस आना चाहते हैं, तो आ जाते हैं. अगर नहीं आते, दूसरे लोगों की भर्ती हो जाती है. वे सेना में बस एक वजह से हैं- पैसे के लिए.’ उन्होंने लिखा है कि अफगान सेना और ऊर्जावान व प्रतिबद्ध तालिबान के बीच के अंतर को समझना आसान था, पर उसे ठीक करना असंभव था.

समय के साथ स्थिति बदतर होती गयी. बीते दो साल सबसे खराब थे और जैसे ही ट्रंप प्रशासन ने साफ कर दिया कि अमेरिका आखिरकार लौटेगा, पतन की गति तेज हो गयी. अफगान सैनिकों ने अपनी चौकियां तालिबान के आने से पहले से खाली कर दीं. तालिबानियों को भी अफीम व्यापार से धन की आमद जारी थी. इस साल आयी इंस्टीट्यूट ऑफ पीस की रिपोर्ट के अनुसार, अफगानिस्तान अफीम का दुनिया का सबसे बड़ा अवैध आपूर्तिकर्ता है.

खेतों में ही फसल से तीन अरब डॉलर की कमाई हो जाती है, जो लगभग छह लाख पूर्ण रोजगार मुहैया कराने के बराबर है. यह अफगान सेना के सैनिकों की संख्या से अधिक है. अफगान पुनर्निर्माण के विशेष महानिरीक्षक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अक्टूबर, 2019 में ‘शत्रु के हमलों’ की संख्या प्रति दिन 90 तक थी और उस तिमाही में कुल 8204 हमले हुए थे, जो पूरे दशक में सर्वाधिक थे. इस स्थिति में अक्सर नशे में धुत और लापरवाह अफगान सैनिकों ने केवल 31 प्रतिशत कार्रवाइयां की थीं. शेष अमेरिकी सेना द्वारा किया गया था.

अब सवाल यह है कि जब हालात तेजी से बिगड़ रहे थे और यह सभी देख रहे थे, तब भारत क्या सोच और कर रहा था तथा क्या रणनीति बना रहा था. अक्टूबर, 2019 में गुटनिरपेक्ष बैठक में उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी को कहा था कि देश में स्थिरता और समृद्धि तभी आयेगी, जब बीते 18 वर्षों की उपलब्धियों को सहेजा जायेगा.

उसी समय स्ट्रेटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज सेंटर ने चेतावनी दी थी कि संसदीय चुनाव के बाद अफगान सरकार का अस्तित्व अनिश्चित हो गया है क्योंकि अफगान संसद कमजोर है, जो वह शुरू से ही थी. बाद में अमेरिका ने कहा (इंस्टीट्यूट ऑफ पीस रिपोर्ट, 2021) कि तालिबान एक अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन नहीं है और अमेरिका पर हमला करने का उसका कोई इरादा नहीं है.

पिछले साल भारत ने तालिबान के साथ संपर्क स्थापित किया, लेकिन देर से हुआ यह प्रयास हिचक और कम दिलचस्पी की वजह से उन खिलाड़ियों पर विशेष प्रभाव नहीं बना पाया, जो अफगानिस्तान पर नियंत्रण करनेवाले थे, जबकि अन्य शक्तियों ने अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली है.

पिछले ही महीने विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि हम पहले से ही स्पष्ट थे कि अफगानिस्तान में बातचीत से राजनीतिक समाधान निकाला जाना चाहिए, इसका कोई सैन्य समाधान नहीं हो सकता है, अफगानिस्तान पर बलपूर्वक कब्जा नहीं हो सकता और ऐसी किसी भी स्थिति को भारत स्वीकार नहीं करेगा. यह वही समय था, जब तालिबान के साथ चीन औपचारिक बैठक कर रहा था.

अफगान सरकार से लड़ने की उम्मीद करना असल में अफगानिस्तान पर अमेरिका के कब्जे के जारी रहने पर निर्भर रहना था.अभी भारत एक असुविधाजनक स्थिति में है. खबरों के मुताबिक, तालिबान ने भारत से दूतावास बनाये रखने का आग्रह किया था. यह एक अच्छा संकेत है. आखिरकार, भारत जैसी बड़ी राजनीतिक और सैन्य शक्ति किनारे कैसे रह सकती है, जब अमेरिका, चीन, पाकिस्तान, यहां तक कि रूस भी बातचीत कर रहे हैं, व्यापार शुरू कर रहे हैं और तालिबान से सहयोग की तैयारी कर रहे हैं?

बातचीत से भारतीय हितों को सुरक्षित किया जाना चाहिए और यह स्पष्ट संदेश देना चाहिए कि भारत-विरोधी किसी गतिविधि को समर्थन नहीं देना तालिबान के हित में है. कूटनीति की मांग है कि संवाद के रास्ते खुले रहें, भरोसा बहाल हो और तालिबान के साथ सीधे संपर्क से सहयोग के क्षेत्रों की पहचान हो, भले ही वह कितना भी नागवार हो. यही एक उपाय है, जिससे भारत अफगानिस्तान से जुड़ा रह सकता है, अपने हितों की रक्षा कर सकता है और अब तक के निवेशों को बचा सकता है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें