राजनीति में सिद्धांत के हिमायती
डॉ लोहिया का मानना था कि चुनाव प्रत्याशियों की हार-जीत से कहीं आगे पार्टियों द्वारा अपनी नीतियों व सिद्धांतों को जनता के बीच ले जाने के सुनहरे अवसर होते हैं.
अलबेले समाजवादी चिंतक और राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के जनक डॉ राममनोहर लोहिया के गृह प्रदेश उत्तर प्रदेश में उनकी राजनीतिक विरासत पर सबसे बड़ा दावा अभी भी समाजवादी पार्टी का है, भले ही अब वह समाजवादी संघर्षों में पहले जैसी सक्रिय नजर नहीं आती. लेकिन अंबेडकरनगर (पहले फैजाबाद) जिले के मुख्यालय अकबरपुर में स्थित लोहिया की जन्मभूमि में, सच पूछिये तो, उनके बस एक ही निर्दंभ वारिस थे- उनके बचपन के साथी बंसी नाई. डॉ लोहिया की मां उन्हें जन्म देने के थोड़े ही समय बाद चल बसी थीं. उनके पीछे जिन विशालहृदया ने उन्हें पाला, वह इन्हीं बंसी की दादी थीं. तब बंसी और राममनोहर साथ-साथ रहते, खेलते-कूदते व खाते-पीते थे.
बड़े होने तक दोनों की राहें अलग हो गयीं, लेकिन दोनों के साझा बचपन की यादें शतायु होकर इस दुनिया से गये बंसी के दिलो-दिमाग में अंतिम दिनों तक रची-बसी थीं. बीमारी व वृद्धावस्था के बावजूद बंसी बिना नागा हर सुबह उठकर अपने शहर में लगी डॉ लोहिया की प्रतिमा तक जाते, स्वच्छ पानी से उसे धोते और पुष्पांजलि अर्पित करते रहे.
गुजर-बसर का कोई ठीक-ठाक जरिया न होने के बावजूद उन्होंने कभी इस श्रद्धा का कोई प्रतिफल या प्रतिदान नहीं चाहा. तब भी नहीं, जब प्रदेश में डॉ लोहिया को अपना ‘राजनीतिक आराध्य’ बतानेवाली सपा की सरकारें बनीं और शुभचिंतकों ने बंसी को सुझाया भी कि वे ‘फायदा’ उठा लें. बंसी ने उनसे साफ कह दिया कि वे अपनी दादी के दूध की कीमत मांगने जाने से पहले चाहेंगे कि धरती फट जाये और वे उसमें धंस जायें. इन सरकारों ने बंसी के जीते-जी उनकी खोज-खबर लेना जरूरी नहीं समझा.
प्रदेश में कई बार ‘समाजवादी’ सरकारें बनने के बावजूद डॉ लोहिया अपनी जन्मभूमि में आमतौर पर बेगाने ही नजर आते रहे हैं और बंसी के निधन के बाद तो पूरी तरह लावारिस हो गये हैं. उनसे जुड़े शोधों के लिए करोड़ों की लागत से बना लोहिया संस्थान भी उनकी स्मृतियों के संरक्षण में कोई भूमिका नहीं निभा पा रहा. कभी जाॅर्ज फर्नांडीज चाहते थे कि अकबरपुर को ‘लोहिया धाम’ नाम से जिला बनाया जाये.
पर बात बनी नहीं और सपा-बसपा का गठबंधन टूटा, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने सितंबर, 1995 को उसे डॉ अंबेडकर के नाम से जिला बना दिया. फिर सपा व बसपा ने लोहिया और अंबेडकर को अपना-अपना आराध्य बनाकर अस्मिता की ऐसी राजनीति शुरू कर दी कि ये दोनों महापुरुष परस्पर दुश्मन से नजर आने लगे. उन्होंने यह ‘दुश्मनी’ तब तक चलायी, जब तक भाजपा की तेज बढ़त ने दोनों को ही किनारे नहीं लगा दिया.
बहरहाल, अब हालत यह है कि भले ही अंग्रेजी हटाना डॉ लोहिया के एजेंडे में सबसे ऊपर रहा हो, फैजाबाद के डॉ राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय में न भाषाओं का विभाग है, न ही डॉ लोहिया के कामों को आगे बढ़ाने का कोई अकादमिक उपक्रम होता है. उसमें उनके नाम की कोई पीठ तक नहीं है.
फैजाबाद में लोग अभी भी याद करते हैं कि डॉ लोहिया ने चुनावी हार-जीत को कभी ज्यादा महत्व नहीं दिया. उनका मानना था कि चुनाव प्रत्याशियों की हार-जीत से कहीं आगे पार्टियों द्वारा अपनी नीतियों व सिद्धांतों को जनता के बीच ले जाने के सुनहरे अवसर होते हैं. इतिहास गवाह है कि 1962 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू को चुनौती देने के लिए उनके निर्वाचन क्षेत्र फूलपुर से वे खुद प्रत्याशी बने, तो इस ‘सुनहरे अवसर’ का भरपूर इस्तेमाल किया था.
अकबरपुर में उनके एक अभिन्न सहयोगी थे चौधरी सिब्ते मोहम्मद नकवी. मई, 1963 में फर्रुखाबाद के कांग्रेस सांसद मूलचंद के निधन के बाद जब उस सीट के लिए उपचुनाव घोषित हुआ, तो डॉ लोहिया अपने उन समर्थकों के दबाव में एक बार फिर चुनाव मैदान में उतरे, जिनके अनुसार देश की जटिल होती जा रही स्थिति के मद्देनजर उनका संसद में होना जरूरी था. उपचुनाव के दौरान वे सिब्ते को लेकर अकबरपुर से फर्रुखाबाद जा रहे थे, तो रास्ते में किसी साथी ने कह दिया कि सिब्ते भाई के चलते मुसलमानों के वोट हमें आसानी से मिल जायेंगे.
इतना सुनना था कि डॉ लोहिया ने सिब्ते को उतारा और अकबरपुर लौट जाने को कह दिया. साथियों से बोले, ‘जो भी वोट मिलने हैं, हमारी पार्टी की नीतियों व सिद्धांतों के आधार पर मिलें, तो ठीक. किसी कार्यकर्ता के धर्म या जाति के नाते वोट मिले, तो क्या मिले! इस तरह वोट बढ़ाकर जीतने से बेहतर होगा कि मैं फूलपुर की तरह यह मुकाबला भी हार जाऊं.’सिब्ते और साथियों ने उनसे बहुत कहा कि इस बाबत वे एक बार फिर सोच लें, लेकिन वे अपने फैसले पर अडिग रहे और सिब्ते को अकबरपुर लौट जाना पड़ा. लेकिन उनकी ऐसी नैतिकताएं अब उनके विरोधियों को तो क्या, उनके अनुयायियों को भी रास नहीं आतीं.