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दूरस्थ अंचलों के पुस्तक मेले

जिस तरह लोकतंत्र विकल्प देता है अपनी पसंद की विचारधारा को चुन कर शासन सौंपने का, ठीक उसी तरह पुस्तक मेले भी विकल्प देते हैं पाठक को अपने पसंद के शब्द चुनने के.

उत्तर प्रदेश के गांव-गांव जब चुनावी तपिश से सुर्ख हैं, तभी पुराने जीटी रोड पर दिल्ली-कानपुर का लगभग मध्य बिंदु कहलाने वाले एटा शहर में चर्चा थी- किताबों की, कविता की, गीत और विमर्श की. एटा का आर्थिक जुगराफिया भले ही फाइलों में पिछड़ा क्षेत्र अनुदान राशि पाने वाला जनपद हो, लेकिन यहां की जनता पुस्तकों पर खर्चा करती है.

यह पुस्तक मेला बगैर किसी सरकारी मदद के स्थानीय लोग 2016 से लगाते रहे हैं. पत्रकार ज्ञानेंद्र रावत, शासकीय अधिकारी संजीव यादव जैसे उत्साही लोग प्रकाशकों को नि:शुल्क स्टॉल व ठहरने-भोजन की व्यवस्था भी कर देते हैं. इस साल एक दिन पर्यावरण पर गोष्ठी थी, तो एक दिन कौमी एकता सम्मेलन. बच्चों की काव्य, पोस्टर जैसी प्रतियोगिता हुईं और इसमें विजेताओं को पसंद की पुस्तकें खरीदने के वाउचर दे दिये गये.

असल में यह पुस्तकों के साथ जीने, उसे महसूस करने का उत्सव है, जिसमें गीत-संगीत, आलोचना, मनुहार, मिलन, असहमतियां हैं. सही मायने में यह विविधतापूर्ण वैचारिक एकता की प्रदर्शनी भी थी. गांधी, आंबेडकर, सावरकार, नेहरू और दीनदयाल उपाध्याय सभी के विचार एक साथ नजर आये.

आठ जनवरी से 16 जनवरी, 2022 तक दिल्ली के प्रगति मैदान में पुस्तक मेले की तैयारी चल रही है. इसका थीम है- आजादी का अमृत महोत्सव और अतिथि देश फ्रांस है. इस पर करोड़ों का व्यय होता है और हर दिन लाखों पुस्तक प्रेमी, लेखक, विचारक यहां आते हैं. ज्ञान पर आधारित जीवकोपार्जन करने वालों की संख्या बढ़ रही है. जो प्रकाशक बदलते समय में पाठक के बदलते मूड को भांप गया, वह तो चल निकला, बाकी के पाठकों की घटती संख्या का स्यापा करते रहे.

यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि देश की बात क्या करें, दिल्ली में भी पुस्तकें सहजता से उपलब्ध नहीं हैं. गली-मोहल्लों में जो दुकानें हैं, वे पाठ्य-पुस्तकों की आपूर्ति कर ही इतना कमा लेते हैं कि दीगर पुस्तकों के बारे में सोच नहीं पाते. हालांकि, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के वसंत कुंज स्थित बड़े से शो रूम व कश्मीरी गेट तथा विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से पाठकों की पुस्तकों की भूख को शांत करने में मदद मिली है. फिर भी, यह आम शिकायत है कि लोगों को उनकी बोली-भाषा में, प्रामाणिक व गुणवत्तापूर्ण साथ ही किफायती दाम में पुस्तकें मिलती नहीं.

भारत में पुस्तक व्यवसाय की सालाना प्रगति 20 फीसदी से ज्यादा है. इससे लाखों लोगों को रोजगार मिला है. एटा जैसे कस्बों में लोकतंत्र की ज्योति को प्रखर करने में पुस्तक मेले महती भूमिका निभाते हैं. जिस तरह लोकतंत्र विकल्प देता है अपनी पसंद की विचारधारा को चुन कर शासन सौंपने का, ठीक उसी तरह पुस्तक मेले भी विकल्प देते हैं पाठक को अपने पसंद के शब्द चुनने के. छोटे कस्बों और शहरों में इंटरनेट और पेप्सी जैसे उपभोग का चस्का तो बाजार ने लगवा दिया, लेकिन यहां पठन-सामग्री के नाम पर महज अखबार या पाठ्य पुस्तकें ही मिल पाती हैं.

मिल-बैठकर निर्णय करने की समाज की परंपरा को भी सेटेलाइट टीवी और इंटरनेट खा गया. अतीत और भविष्य के प्रामाणिक दस्तावेजीकरण के माध्यम से ही हम बेहतर चुनाव कर सकते हैं- विचारधारा का भी और बाजार के उत्पाद का भी, रिश्तों व समझ का भी. एटा जैसे पुस्तक मेले जाति-धर्म, राजनीतिक प्रतिबद्धता, सामाजिक-आर्थिक भेदभाव से परे एक ऐसा मैदान तैयार करते हैं, जो विचार की धार को दमकाते हैं.

असल में पुस्तक भी इंसानी प्यार की तरह होती हैं जिससे जब तक बात ना करो, रूबरू ना हो, हाथ से स्पर्श ना करो, अपनत्व का एहसास नहीं देती, फिर तुलनात्मकता के लिए एक ही स्थान पर एक साथ इतने सजीव उत्पाद मिलना एक बेहतर विपणन विकल्प व मनोवृत्ति भी है. फिर आंचलिक पुस्तक मेले तो एक त्योहार हैं, पाठकों, लेखकों, व्यापारियों, बच्चों के लिए.

कुछ साल पहले तक नेशनल बुक ट्रस्ट दो साल में एक बार प्रगति मैदान का अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला लगाता था. हर दो साल में किसी राज्य की राजधानी में एक राष्ट्रीय पुस्तक मेला होता था. कई क्षेत्रीय पुस्तक मेले भी होते थे. आज कुछ निजी कंपनियां पुस्तक मेलों का आयोजन कर रही हैं, जहां साहित्यिक आयोजन भी होते हैं.

आज आवश्यकता है कि हर जिले में समाज व सरकार मिलकर पुस्तक मेला समिति बनाये और जिला स्तर पर मेले लगें. भले ही इसमें प्रकाशकों की भागीदारी बीस से पचास तक हो, लेकिन उनके ठहरने, स्थान आदि की व्यवस्था हो. प्रशासन इसका प्रचार-प्रसार करे, जिले के शैक्षणिक संस्थान ऐसे मेलों से अपनी लाइब्रेरी काे समृ़द्ध करें. समाज भी तैयारी करे, बच्चे व मध्य वर्ग के लोग हर दिन एक रुपया जोड़कर पुस्तक मेले से कुछ ना कुछ खरीदने का श्रम करें.

अतीत में भारत की पहचान विश्व में एक ज्ञान पुंज की रही है. आज जानने की लालसा और नया करने की प्रतिबद्धता के लिए जरूरी है कि दूरस्थ अंचलों तक पुस्तकों की रोशनी पहुंचती रहे. जिन कस्बों-शहरों में ऐसी सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियां होती हैं वहां टकराव कम होते हैं. एटा इलाका पिछड़ी कही जाने वाली लोधी और यादव जाति के बाहुल्य का इलाका है. एटा में शांति रहती है. लोग पुस्तक मेले में आकर खुली बहस करने पर यकीन करते हैं.

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