लोकप्रिय पर्व करवा चौथ पर दशकों बाद शायद ऐसा हुआ कि दिल्ली के आसपास इलाकों में भयंकर बरसात थी और चंद्रमा नहीं निकला. भारत के लोक पर्व, आस्था, खेती-अर्थ तंत्र सभी कुछ मानसून पर केंद्रित हैं. जिस तरह मानसून परंपरा से भटक रहा हैं, वह हमारे लिये खतरे की घंटी है. इस बार सर्वाधिक दिनों तक मानसून भले ही सक्रिय रहा हो, लेकिन बरसात अनियमित हुई.
बीते दिनों केरल में आया भयंकर जलप्लावन भले ही धीरे-धीरे छंट रहा हो, लेकिन वह पूरे देश के लिए चेतावनी है. उत्तराखंड में तो बादल कहर बन कर बरसे हैं. बरसात का 126 वर्षों का रिकॉर्ड टूट गया. अभी तक 50 लोग मारे जा चुके हैं और बड़े स्तर पर संपत्तियों का नुकसान हुआ है. नैनीताल में जलभराव हो गया. जिस पहाड़ के पत्थर और पानी हम उजाड़ रहे हैं, वे जलवायु परिवर्तन के चलते तेजी से प्रतिकार कर रहे हैं.
अचानक चरम मौसम की मार, तटीय इलाकों में भयानक चक्रवातों का आना, बिजली गिरने की घटनाओं में इजाफा, से स्पष्ट है कि तापमान बढ़ोतरी और जलवायु परिवर्तन का खतरा अब दुनिया के साथ-साथ भारत के सिर पर सवार हो गया है.
अकेले अक्तूबर के पहले 21 दिनों में उत्तराखंड में औसत से 546 फीसदी अधिक बरसात हुई, तो दिल्ली में 339 प्रतिशत. बिहार में 234, हरियाणा में 139 और राजस्थान में औसत से 108 फीसदी अधिक बरसात खेती के लिए तबाही साबित हुई. आषाढ़ ठीक बरसा, लेकिन औसत बारिश से 92 फीसदी कम पानी गिरा.
सावन में 1901 के बाद छठी बार इस साल अगस्त में सूखा महीना गया. इसमें 24 फीसदी कम बारिश हुई. जब शेष भारत में सूखे का खतरा मंडरा रहा था, तो हिमालय का क्षेत्र जलमग्न हो उठा. बारिश से उत्तराखंड और हिमाचल में गांव के गांव बह गये. दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून जाते-जाते तबाही मचा गया. जाहिर है कि बरसात का चक्र बदल रहा है.
दिल्ली से सटे नोएडा-गाजियाबाद में एक महीने से कूड़ा निस्तारण का काम रुका हुआ है. कूड़े को हिंडन नदी में डंप करने से लेकर चोरी-छिपे जलाने तक का काम जोरों पर है. यही कारक जलवायु परिवर्तन की मार को धार दे रहे हैं. यह केवल असामयिक मौसम बदलाव तक सीमित नहीं रहने वाला, यह इंसान के भोजन, जलाशयों के पानी की शुद्धता, प्रजनन क्षमता से लेकर जीवन के सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है.
जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा है. इसके चलते वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है. हॉर्वर्ड टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है.
आइपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गयी है. कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं. इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे. दरअसल, 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौह तत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौधों से होती है. 1.4 अरब लोग लौह तत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है.
भारत के संदर्भ में यह तो स्पष्ट है कि हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचाई की दोषपूर्ण परियोजनाएं हैं. एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी है.
सिंचाई के लिए भी स्थानीय तालाब, कुंओं पर आधारित रहने की अपनी पुरानी आदतों की ओर लौटना होगा. यह स्पष्ट है कि बड़े बांध जितने महंगे व अधिक समय में बनते हैं, उनसे उतना पानी तो मिलता नहीं है, वे नयी-नयी दिक्कतों को उपजाते हैं, सो छोटे तटबंध, कम लंबाई की नहरों के साथ-साथ रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिस्तान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है.
देश में बीते 40 सालों के दौरान बरसात के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि इसमें निरंतर गिरावट आ रही है. बीसवीं सदी के प्रारंभ में औसत वर्षा 141 सेंटीमीटर थी जो नब्बे के दशक में कम होकर 119 सेंटीमीटर रह गयी है. उत्तरी भारत में पेयजल का संकट साल-दर-साल भयावह रूप लेता जा रहा है. तीन साल में एक बार अल्प वर्षा यहां की नियति बन चुकी है. उस पर देश की सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियों के उद्गम ग्लेशियर बढ़ते तापमान से बैचेन हैं.
विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि यदि तापमान में दो डिग्री सेंटीग्रेड के लगभग वृद्धि होती है, तो गेहूं की उत्पादकता में कमी आयेगी. अनुमान है कि तापमान के एक डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ने पर गेहूं के उत्पादन में चार से पांच करोड़ टन की कमी होगी. इसके अतिरिक्त, वर्षा आधारित फसलों को अधिक नुकसान होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्रा कम होगी, जिसके कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पायेगा.