13.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

संकल्प व सेवा के बीच बड़ा फासला

सफलताओं की कहानियों पर लहालोट होना भी चाहिए. इससे भावी पीढ़ियों का उत्साह बड़ता है, लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सफलता की ये कहानियां अपने रचे जाने के दौर में कैसे सपने दिखाती हैं और बाद में वे कैसी हो जाती हैं.

सफलताएं दुनिया को आकर्षित ही नहीं, प्रेरित भी करती हैं. इन अर्थों में संघ लोक सेवा आयोग की 2020 की परीक्षा में शीर्ष पर रहे बिहार के कटिहार निवासी शुभम की कहानियों से युवाओं का लहालोट होना स्वाभाविक है. मौजूदा टॉपर बिहार के छठें निवासी हैं, जिन्होंने देश की सबसे चुनौतीपूर्ण परीक्षा में शीर्ष स्थान हासिल किया है. बिहार में नागरिक सेवा के प्रति अरसे से उत्साह रहा है. माता-पिता की कॉलर ऊंची तभी होती है, जब उनका बेटा या बेटी सिविल सेवा में जाता है.

अगर बच्चा सिविल सेवा में नहीं जा सका, तो दूसरी सरकारी नौकरियां उसके गर्वबोध का जरिया बनती हैं. बिहार में सिविल सेवा और सरकारी नौकरियों के प्रति रुझान ज्यादा है. हर साल बिहार के बहुत सारे लड़के-लड़कियां सिविल सेवा, पुलिस सेवा, विदेश सेवा, अन्य सेवा आदि में शामिल होते हैं. परीक्षा में सफलता नहीं मिलती तो पड़ोसी राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि की राज्य प्रशासनिक सेवा में छात्र कामयाब कोशिशें करते हैं.

कुछ साल पहले दिल्ली से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक की एंकर स्टोरी याद आ रही है. उस स्टोरी में आंकड़ों के जरिये बताया गया था कि 2025 आते-आते देश के सभी जिलों के डीएम या एसपी या दोनों बिहारी मूल के छात्र होंगे. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रशासनिक सेवाओं को लेकर बिहार में किस कदर आकर्षण है. यहां सवाल उठता है कि इतनी संख्या में बिहारी मूल के नौकरशाहों के होने के बावजूद बिहार की स्थिति तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा जैसी क्यों नहीं है?

मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड, मिस एशिया पैसिफिक, मिस इंडिया जैसी प्रतियोगिताओं के फाइनल में पहुंचनेवाली सुंदरियों का जिस तरह एक ही जवाब होता है, मां की तरह दयालु बनना, समाज की सेवा करना, मदर टेरेसा से प्रभावित होना, उसी तरह सिविल सेवा के इंटरव्यू में पहुंचे छात्र भी अपना प्रमुख उद्देश्य समाज को बदलना और उसकी सेवा बताते हैं. जिस तरह प्रतियोगिता जीतते ही सुंदरियां मदर टेरेसा को भूल जाती हैं, उसी तरह सिविल सेवा में चयनित युवा मसूरी लाल बहादुर शास्त्री प्रशासन अकादमी में पहुंचने के बाद अपने उस उद्देश्य को भूलने लगते हैं, जिसका बखान वे साक्षात्कार बोर्ड के सामने कर चुके होते हैं.

कुछ एक अपवादों को छोड़ दें, तो उनके अंदर वही आत्मा समाहित होने लगती है, जो अंग्रेजों द्वारा स्थापित इंडियन सिविल सेवा के अधिकारियों में थी. सफलता की इन कहानियों में हुकूमत का भाव भरने लगता है.

अगर ऐसा नहीं होता, तो समाज बदलने की उनकी प्रतिज्ञाएं समाज को बेहतर बना चुकी होतीं. प्रशासनिक अधिकारियों के सामने जाने के लिए लोगों में हिचक नहीं होती. या फिर समाज ही ऐसा हो गया है कि साल-दर-साल बदलाव का दावा करने वालों के झांसे में नहीं आता, समाज ही खुद बदलने से इनकार कर देता है.

यहां याद आती है संविधान सभा में अनुच्छेद-310 और 311 को लेकर हुई बहस. पहले अनुच्छेद के तहत सिविल सेवकों के अधिकार तय किये गये हैं. दूसरे अनुच्छेद के तहत उन्हें चुनने वाले लोक सेवा आयोग की व्यवस्था है. बहस में संविधान सभा के कई सदस्यों ने आशंका जतायी थी कि सिविल सेवकों को गांधी जी के सपनों के मुताबिक लोक सेवक बनाने के लिए संवैधानिक संरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे भी अंग्रेज अधिकारियों जैसा तानाशाही रुख अपनायेंगे. सरदार पटेल ने उम्मीद जतायी थी कि स्वाधीन भारत में प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अपनी लोकभूमिका को समझेंगे, वे जीवन और स्वाधीन भारत के मूल्यों को समझेंगे. पटेल ने उन्हें संवैधानिक संरक्षण देने की वकालत करते हुए तर्क दिया था

कि चूंकि मौजूदा राजनीतिक पीढ़ी स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों से विकसित हुई है, इसलिए वह अपनी जिम्मेदारी समझती है, लेकिन इस बात की गारंटी नहीं है कि आनेवाली राजनीतिक पीढ़ी भी वैसे ही मूल्यों से प्रेरित होगी. पटेल भावी अधिकारियों को लेकर आश्वस्त थे, लेकिन अपने समुदाय यानी राजनीति के लोगों के प्रति आशंकित थे. उन्होंने कहा था कि अगर भावी राजनीतिक पीढ़ी भ्रष्ट हुई, तो वह नौकरशाही को तंग करेगी.

नौकरशाही को जर्मन विचारक मैक्सवेबर ने व्यवस्था का स्टील फ्रेम कहा है. सरदार की वकालत पर नौकरशाही को मिले संवैधानिक संरक्षण ने कहीं ज्यादा मजबूत बना दिया है. हमारी शासन प्रणाली काफी हद तक ब्रिटिश संसदीय पद्धति की फोटोस्टेट प्रति जैसी है. ब्रिटेन में नौकरशाही के बारे में कहा जाता है, येस मिनिस्टर. भारत में भी कुछ ऐसा ही है.

आम धारणा भी बन गयी है कि राजनीतिकों को बिगाड़ने में नौकरशाही ने ज्यादा भूमिका निभायी है. गांधी की लोकसेवक बनने की धारणा अब सिर्फ किताबों की बातें हैं. सफलताओं की कहानियों पर लहालोट होना भी चाहिए. इससे भावी पीढ़ियों का उत्साह वर्धन होता है, लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सफलता की ये कहानियां अपने रचे जाने के दौर में कैसे सपने दिखाती हैं और बाद में वे कैसी हो जाती हैं.

संघ लोक सेवा आयोग या राज्य लोक सेवा आयोगों की परीक्षाओं से उभरी सफल गाथाएं अक्सर किताबी ही क्यों रह जाती हैं, इस पर भी चर्चा होनी चाहिए. नौकरशाहों के घरों पर पड़ने वाले छापों और वहां से निकलने वाली अकूत संपत्तियों की कहानियां भी याद रखनी होगी. तभी सफलता की कहानियों को उन लक्ष्यों के प्रति जागरूक रखा जा सकेगा, जिनका जिक्र आयोग के साक्षात्कार बोर्ड के सामने किया गया है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें