फुटबॉल दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल क्यों है, इसकी झलक बीते रविवार हर किसी ने देखा, और साथ में एक कसक भी. आखिर हम क्यों इस लोकप्रिय खेल में बड़े स्टेज पर अपनी ताकत का इजहार नहीं कर पाते, या फिर क्या कभी कर भी पायेंगे? पहले बीते रविवार के लम्हे को फिर से जीते हैं. कोरोना काल ने फुटबॉल को भी उसके हिस्से का दर्द दिया और फुटबॉल के दीवानों को एक अहसास भी. यूरो कप समेत फुटबॉल के बड़े टूर्नामेंट कोरोना की वजह से 2020 में या तो नहीं हुए या फिर अधूरे रह गये.
दुनियाभर में फुटबॉल के करोड़ों दीवानों के लिए खूबसूरत खेल का अलग- अलग हिस्सों में होनेवाला ये मेला जैसे उनके दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है. कोरोना काल ने उन्हें यह अहसास दिलाया कि अगर इस खेल के इन लम्हों को उनकी निजी जिंदगियों से अलग कर दें, तो क्या होगा! शायद इस अहसास ने उनकी दीवानगी को दोगुना कर दिया.
लंदन फुटबॉल के लिए कैसे तैयार होता है, इस बारे में चश्मदीद ही बता और समझा सकते हैं. रविवार सुबह से शोर-शराबा शुरू हो चुका था. वेम्ब्ले पार्क अंडरग्राउंड स्टेशन ‘थ्री लायंस’ और ‘स्वीट कैरलाइन’ की धुन में रमने लगा था. लुक शॉ के गोल के साथ ही जैसे स्टेडियम फट सा गया. यहां से शुरू जोश फाइनल मैच खत्म होने के आखिरी दो मिनट तक जारी रहा.
जैसे ही लगने लगा कि 50 साल से अधिक समय के बाद इंग्लैंड यूरो कप का विजेता बनेगा, अचानक सबकुछ बदल गया. लिओनार्दो बोनिकी के गोल ने मैच को बराबरी पर ला दिया. फिर, पेनल्टी शूट आउट की बारी थी. फ्रांस के बाद इंग्लैंड के पास ऐसी टीम थी, जिसकी जीत तय मानी जा रही थी. लेकिन फिर वही हुआ, जो इंग्लैंड और फुटबॉल का रिश्ता रहा है. इटली जीत गया.
इंग्लैंड के विपरीत लिओनेल मेसी ने अपने करियर में कई जीत देखे- चार बार चैंपियंस लीग, 10 बार ला लीगा, सात बार कोपा डेल रे. लेकिन इसके बावजूद मेसी और उनके दीवानों के बीच इंग्लैंड की ही तरह एक सूखा था. मेसी अपने वतन अर्जेंटीना को एक भी बड़ी ट्रॉफी नहीं दिला सके थे. मेसी महान हैं, इस पर दो राय नहीं, लेकिन इस कमी ने उन्हें शायद महानतम की श्रेणी से एक पायदान नीचे रखा था.
लेकिन रिओ डी जेनेरिओ के मरकाना स्टेडियम ने यह हसरत पूरी कर दी. रविवार रात से पहले वे चार फाइनल मैच हार चुके थे. ब्राजील के खिलाफ फाइनल मैच में भी वे अपने रंग में नहीं थे. पर मैच जीतने के बाद जिस कदर उनके साथी खिलाड़ियों ने उन्हें हवा में उछाला, वह सबूत था कि किस कदर सभी को इस पल का इंतजार था. ‘यह मेरा सपना था, मुझे दुनिया में सबसे अधिक इसकी जरुरत थी. हमने मेसी के लिए यह किया, उनको यह दिया. वे इसके सबसे बड़े हकदार थे’ – अर्जेंटीना के गोलकीपर एमिलिएनो मार्टिनेज का यह बयान इस अहसास का निचोड़ है.
भारत के खेलप्रेमियों ने भी अलग अंदाज में सही, इस एहसास को जिया है. सचिन तेंदुलकर निर्विवाद तौर पर सबसे लोकप्रिय भारतीय क्रिकेटर रहे. लेकिन 2011 वर्ल्ड कप से पहले उनके करियर मे एक कमी थी. सचिन ने 1983 वर्ल्ड कप में भारत की जीत से प्रेरित हो देश के लिए बल्ला थामने का संकल्प लिया था. लेकिन वे एक बार भी वर्ल्ड कप चैंपियन टीम का हिस्सा नहीं रहे थे.
यह सपना 2011 में वर्ल्ड कप में टीम इंडिया की जीत के साथ पूरा हुआ. विराट कोहली समेत टीम ने उन्हें कंधे पर उठा लिया. कोहली ने कहा- ‘जिस इंसान ने भारतीय क्रिकेट की पूरी जिम्मेदारी करीब 20 साल बखूबी निभायी, क्या हम उनका भार 20 कदम नहीं उठा सकते!’ मार्टिनेज के बयान ने विराट कोहली के बयान की याद ताजा कर दी. यही खेल है और ऐसे ही खेल के दीवाने होते हैं. पर, आखिर कब तक भारतीय दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल की लोकप्रियता को क्रिकेट के चश्मे से समझने को मजबूर होंगे! आखिर कब भारत फुटबॉल में बड़े स्टेज का हिस्सा बन सकेगा!
क्या वह दिन भारतीय खेल के दीवाने देख सकेंगे, जब भारत भी वर्ल्ड कप फुटबॉल खेलेगा! क्या हमारा भी अपना कोई मेसी होगा, कोई रोनाल्डो होगा या फिर नेयमर होगा! सच कहें, तो उनमें और हममें उतना ही फासला है, जितना क्रिकेट और फुटबॉल की लोकप्रियता में. क्रिकेट जबरदस्त खेल है और जीवन से सबसे अधिक मिलता-जुलता खेल है. लेकिन वह 12 से अधिक देशों में नहीं खेला जाता. अगर मजबूत टीमों की बात करें, तो पांच देशों की टीम ही हैं. शायद इसलिए बहुत ही कम समय में इंडियन प्रीमियर लीग ने अंतराष्ट्रीय क्रिकेट के बड़े कैलेंडर को पीछे छोड़ अपनी पहचान बना ली है. लेकिन फुटबॉल एक महासागर है.
इसमें वर्ल्ड कप के लिए जगह है, यूरो कप के लिए जगह है, कोपा अमेरिका समेत कई अंतराष्ट्रीय टूर्नामेंटों के लिए जगह है. साथ में, इंग्लिश प्रीमियर लीग समेत कई लीग भी हैं. करीब 200 देशों में फुटबॉल खेला जाता है और पहले 100 देशों की टीमों के बीच फासला बहुत कम है. फुटबॉल में सभी टीमों के बीच मुकाबला कांटे का है. ऐसे भी भारत के लिए टॉप टीमों में जगह बनाना नामुमकिन तो नहीं, लेकिन कठिन जरूर है.
दरअसल, जहां एक तरफ दुनिया का फुटबॉल आगे गया है, हम कई साल तक पीछे जाते गये. एक दौर था, जब भारत एशिया के स्तर पर फुटबॉल में एक शक्ति था. साल 1950 में भारत वर्ल्ड कप फुटबॉल में भाग लेते-लेते रह गया था, लेकिन हम उस विरासत को आगे नहीं ले जा सके. दुनिया आगे बढ़ते चली गयी. जाहिर तौर पर सबसे मुश्किल परीक्षा को निकालने के लिए एक खास तैयारी की जरूरत होगी. हमने उस दिशा में इंडियन सॉकर लीग के तौर पर कदम भी उठाया है. कॉर्पोरेट भी फुटबॉल को लेकर गंभीर हुए हैं. लेकिन लक्ष्य को हासिल करने के लिए लगातार चौतरफा प्रयास जरूरी है.
पहला, इंडियन सॉकर लीग और दूसरे लीग में दमदार खिलाड़ियों को शामिल किया जाए, जिससे कांटे की टक्कर हो और खेल में पैसा और आकर्षण आये. दूसरा, कॉर्पोरेट जगत को फुटबॉल में निवेश कराने के लिए उन्हें फैसलों के स्तर पर शामिल किया जाना चाहिए. तीसरा, टैलेंट हंट को लगातार व्यापक बनाया जाए. और चौथा, नये टैलेंट को दुनिया के नामी-गिरामी क्लब में भेजने के लिए करार किये जाएं. तब, यह बेहद खूबसूरत खेल भारत के लोगों को भी एक अलग खूबसूरती का एहसास दिला सकेगा.