विषमता को पाटने का विकास मॉडल
कार्यक्रमों के माध्यम से जब हम क्षेत्रीय विषमता की खाई को पाटने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ते हैं, तो इसमें महिलाओं के स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु दर व गरीबी सहित ग्रामीण भारत की उन अनेक समस्याओं को समाहित कर लेते हैं, जो देश में चल रहे बड़े-बड़े विकास कार्यक्रमों में कहीं पीछे छूट जाती हैं.
देश में समान विकास की बात करते हुए क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अनदेखी नहीं की जा सकती है. अनेक क्षेत्र प्रगति की दौड़ में पीछे छूट गये. देश में कुल 720 से ज्यादा जिले हैं. अवसरों तथा संसाधनों के मामले में क्षेत्रीय विविधताएं बहुतायत हैं. निश्चित ही सभी जिलों के विकास का स्तर समान नहीं हो सकता है. सभी क्षेत्रों की अपनी परिस्थितियां होती हैं. अपनी चुनौतियां तथा प्राथमिकताएं होती हैं. ऐसे में प्रगति का कोई एक ‘सार्वभौम’ मानक लागू करना ठीक भी नहीं होगा.
हालांकि, कुछ बिंदु जरूर हैं, जिन्हें मानक के तौर पर उपयोग में लिया जा सकता है. स्वास्थ्य की स्थिति, कृषि क्षेत्र में संभावना, आधारभूत संरचना का विकास, रोजगार के अवसर, शिक्षा की स्थिति, पोषण तथा मानव जीवन प्रत्याशा, गरीबी उन्मूलन सही मानव विकास सूचकांकों के आधार पर क्षेत्रीय प्रगति का मूल्यांकन किया जा सकता है.
विकास कोई एकीकृत प्रणाली नहीं है, जो देश के भू-भागीय फैलाव में मौजूद संसाधनों तथा वहां की जरूरतों व चुनौतियों की अनदेखी करके हासिल कर ली जाये. जब तक हमारे विकास संकेतकों में विविधताओं वाले क्षेत्रों की स्थिति, वहां की संभावनाओं तथा आकांक्षाओं को शामिल नहीं किया जायेगा, विकास के वास्तविक लक्ष्य को हासिल करना कठिन होगा. भारत को ‘राज्यों के संघ’ के तौर पर आगे ले जाने के पीछे भी यही उद्देश्य रहा होगा.
आजादी के बाद देश विकास के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जिन आर्थिक मॉडल की तरफ बढ़ा, उनमें से महत्वपूर्ण मॉडल था- ट्रिकल डाउन. सांख्यिकी विज्ञानी प्रशांत चंद्रा शायद पंडित नेहरू को यह विश्वास दिला पाये थे कि देश विकास करेगा तो हाशिये के लोग उसमें अपने आप शामिल होते जायेंगे. कुछ हद तक ऐसा होता भी है. लेकिन, भारत जैसे विविधताओं वाले देश में यह रामबाण नहीं साबित हो सकता था. स्वीकार करने से हमें गुरेज नहीं होना चाहिए कि कहीं न कहीं स्थानीय आकांक्षाओं की अनदेखी लंबे समय तक हुई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘नेशनल एंबिशन और रीजनल एस्पिरेशंस’ का नारा दिया था. उनका इशारा राष्ट्र की प्रगति में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की भागीदारी को तय करने को लेकर था. इसके पहले 2018 में ‘आकांक्षी जिला कार्यक्रम’ शुरू किया गया. इसके तहत 115 ऐसे जिलों को सरकार ने चिह्नित किया, जो प्रगति की दौड़ में पिछड़ गये थे. आकांक्षी जिलों की सूची में सभी राज्यों के कुछ न कुछ जिले शामिल हैं.
सर्वाधिक जिले बिहार, झारखंड और ओडिशा के शामिल हैं. इसमें वामपंथी उग्रवाद का दंश झेल रहे उन जिलों को शामिल किया गया है, जो बुनियादी विकास की चुनौतियों से जूझ रहे हैं. ऐसे जिलों को चिह्नित करके उनका मूल्यांकन करने से यह जरूर पता चलता है कि ये क्षेत्र अथवा जिले कहां-कहां और किन-किन कारणों से पिछड़ रहे हैं.
स्वास्थ्य, आधारभूत ढांचा, मानव जीवन प्रत्याशा, पोषण, शिक्षा के अवसर, कृषि तथा पेयजल सहित बिंदुओं को ध्यान में रखकर केंद्र व राज्य सरकारों की योजनाओं को इन जिलों तक पहुंचाने के लिए सरकार द्वारा प्रयास किया गया है. नागरिकों तथा स्थानीय प्रशासन के परस्पर सहयोग के माध्यम से भी स्थानीय चुनौतियों को दूर करने का प्रयास भी इसके तहत हो रहा है. इस कार्यक्रम की एक बड़ी विशेषता यह है कि जिलों के बीच एक सकारात्मक प्रतिस्पर्धा होने से विकास की दौड़ में आगे बढ़ने की संभावनाओं को बल मिल रहा है.
इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि प्रतिस्पर्धा शिथिलता की शत्रु होती है. अत: आकांक्षी जिलों के कार्यक्रम में यथास्थिति से निकलकर आगे बढ़ने की लालसा भी क्षेत्र इकाइयों में अनुभव की गयी है. नि:संदेह इस कार्यक्रम को शुरू हुए अभी तीन वर्ष से थोड़ा अधिक समय हुआ है, लेकिन इसके शुरुआती परिणाम अच्छे दिख रहे हैं. विकास संकेतकों का आंकड़ा बदल रहा है.
जून, 2018 के बाद जनवरी, 2019 में ही महिलाओं के स्वास्थ्य आदि कुछ मानकों में इसका सकारात्मक असर बदलाव के रूप में देखा गया था. अभी हाल के महीने में आयी संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की एक रिपोर्ट में भी भारत के इस पहल को ‘स्थानीय क्षेत्र के विकास का एक अत्यंत सफल मॉडल’ बताते हुए इसकी सराहना की गयी है. रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘ऐसे कई अन्य देशों में भी इसे सर्वोत्तम प्रथा के रूप में अपनाया जाना चाहिए जहां कई कारणों से विकास में क्षेत्रीय असमानता मौजूद हैं.’
दरअसल, इस तरह के कार्यक्रमों के माध्यम से जब हम क्षेत्रीय विषमता की खाई को पाटने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ते हैं, तो इसमें महिलाओं के स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु दर व गरीबी सहित ग्रामीण भारत की उन अनेक समस्याओं को समाहित कर लेते हैं, जो देश में चल रहे बड़े-बड़े विकास कार्यक्रमों में कहीं पीछे छूट जाती हैं. देश का निर्माण छोटी-छोटी क्षेत्रीय इकाइयों, वहां की क्षमताओं, विविधताओं तथा उनके स्थानीय कौशल की भागीदारी से ही होता है.
अगर देश इसे छोड़कर विकास की दौड़ लगाना चाहेगा तो वह विकास के अधूरे लक्ष्यों को ही हासिल कर सकता है. प्रधानमंत्री मोदी द्वारा शुरू किये गये आकांक्षी जिला कार्यक्रम को देश के ‘सर्वांगीण, सर्वसमावेशी तथा सर्वस्पर्शी विकास’ के लिहाज से एक आशावान मॉडल के रूप में देखा जा सकता है. इससे भविष्य में और अच्छी उम्मीद लगायी जा सकती है.