सुनील बादल
वरिष्ठ पत्रकार
झारखंड को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में फादर कामिल बुल्के का नाम अग्रणी है, जिन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति को संपूर्णता में देखा और विश्लेषित किया. बुल्के ने हिंदी प्रेम के कारण अपनी पीएचडी थीसिस हिंदी में ही लिखी. उन्होंने लिखा है, ‘मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं वर्ष 1935 में रांची पहुंचा और मुझे यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है, बल्कि अंग्रेजी का भी बोलबाला है. मेरे देश की भांति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है.
इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया.’ आलोक पराड़कर द्वारा संपादित ‘रामकथा- वैश्विक संदर्भ में’ का लोकार्पण करते साहित्यकार केदारनाथ सिंह ने कहा था कि फादर बुल्के के शोध ग्रंथ ‘राम कथा’ से हिंदी में तुलनात्मक साहित्य और देश-विदेश में रामकथा के तुलनात्मक अध्ययन की शुरुआत होती है. हिंदी क्या, संभवतः किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है. हिंदी पट्टी में इस लोकप्रिय विषय पर ऐसे वैज्ञानिक अन्वेषण से धर्म और राजनीति के अनेक मिथक खंडित हो जाते हैं और शोधकर्ताओं को एक दिशा भी मिलती है.
फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के फ्लैंडर्स प्रांत के रम्सकपैले नामक गांव में एक सितंबर, 1909 को हुआ. लूवेन विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग कॉलेज में उन्होंने 1928 में दाखिला लिया और वहीं पढ़ाई के क्रम में उन्होंने संन्यासी बनने का निश्चय किया. वर्ष 1930 में वे गेंत के नजदीक ड्रॉदंग्न नगर के जेसुइट धर्मसंघ में दाखिल हो गये. वहां दो वर्ष रहने के बाद वे हॉलैंड के वाल्केनबर्ग के जेसुइट केंद्र में भेज दिये गये, जहां उन्होंने लैटिन, जर्मन और ग्रीक आदि भाषाओं के साथ-साथ ईसाई धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन किया.
वर्ष 1934 में उन्होंने देश में रहकर धर्म सेवा करने के बजाय भारत जाने का निर्णय किया. वर्ष 1935 में जब वे भारत पहुंचे, तो उनकी जीवनयात्रा का एक नया दौर दार्जिलिंग के संत जोसेफ कॉलेज और आदिवासी बहुल गुमला के संत इग्नासियुश स्कूल में विज्ञान शिक्षक के रूप में शुरू हुआ. जल्दी ही उन्हें महसूस हुआ कि जैसे बेल्जियम में मातृभाषा फ्लेमिश की उपेक्षा थी और फ्रेंच का वर्चस्व था, वैसी ही स्थिति भारत में थी.
इसी भावना से उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए किया और फिर वहीं से 1949 में रामकथा के विकास शोध किया, जो बाद में ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ के रूप में पूरी दुनिया में चर्चित हुई. विज्ञान के इस पूर्व शिक्षक की रांची के प्रतिष्ठित संत जेवियर्स कॉलेज के हिंदी विभाग में 1950 में उनकी नियुक्ति विभागाध्यक्ष पद पर हुई और इसी वर्ष उन्होंने भारत की नागरिकता ली.
वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो अब तक प्रकाशित कोशों में सबसे प्रामाणिक माना जाता है. मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘द ब्लू बर्ड’ का ‘नील पंछी’ नाम से बुल्के ने अनुवाद किया. उन्होंने बाइबिल का हिंदी अनुवाद भी किया. वे लंबे समय तक संस्कृत तथा हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे. बाद में सुनने में परेशानी के कारण कॉलेज में पढ़ाने से अधिक उनकी रुचि गहन अध्ययन और स्वाध्याय में होती चली गयी. इलाहाबाद के प्रवास को वे अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे.
डॉ बुल्के का अपने समय के हिंदी भाषा के चोटी के सभी विद्वानों से संपर्क था, जिनमें धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त, रामस्वरूप, रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि शामिल थे. भारतीयता (भारत की स्वस्थ परंपराओं) के अनन्य भक्त कामिल बुल्के बौद्धिक और आध्यात्मिक होने के साथ-साथ प्रभु ईसा मसीह के भी परम भक्त थे. साथ ही गोस्वामी तुलसीदास की राम भक्ति के सात्विक और आध्यात्मिक आयाम के प्रति उनके मन में बहुत आदर था.
उनका कहना था, ‘‘जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूं, तो मुझे लगता है ईसा, हिंदी और तुलसीदास- ये वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए इन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं है, बल्कि गहरा संबंध है जहां तक विद्या तथा आस्था के पारस्परिक संबंध का प्रश्न है, तो मैं उन तीनों में कोई विरोध नहीं पाता. मैं तो समझता हूं कि भौतिकतावाद मानव जीवन की समस्या का हल करने में असमर्थ है. मैं यह भी मानता हूं कि ‘धार्मिक विश्वास’ तर्क-वितर्क का विषय नहीं है.’’
आकाशवाणी रांची में उनकी एक दुर्लभ भेंटवार्ता संग्रहित है, जिसमें फादर बुल्के की भाषा और उच्चारण की शुद्धता आज भी नये प्रसारकों के लिए मानक व मार्गदर्शक की तरह है. रांची के लोग उनको एक अच्छे प्राध्यापक ही नहीं, एक अच्छे इंसान के रूप में हमेशा याद रखेंगे, जिनका संस्मरण और संग्रह पुरुलिया रोड के मनरेसा हाउस में संग्रहित है. विदेशी मूल के इस विद्वान ने जो इतिहास रचा, उसे आगे बढ़ाने या नया इतिहास रचने के लिए जो प्रयास गंभीरता से करने की आवश्यकता थी, वह कम दिखाई पड़ती है. दिल्ली में 17 अगस्त 1982 को उनके निधन से साहित्य और समर्पण के एक अध्याय का अंत हो गया.