वर्ष 1971 में भारत पर पाकिस्तानी आक्रमण से उत्पन्न संकट का मुकाबला करने के लिए धारा-352 के तहत देश में पहले से एक इमरजेंसी लागू थी. फिर 25 जून, 1975 को देश की सुरक्षा पर संकट के नाम पर एक और इमरजेंसी थोपने का क्या औचित्य था? क्या वास्तव में आंतरिक अराजकता के कारण देश की सुरक्षा खतरे में थी? यदि 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द नहीं करता तथा 23 जून को सुप्रीम कोर्ट संसद में मतदान करने के अधिकार से वंचित नहीं करता, तो संभवत: देश पर दूसरी इमरजेंसी नहीं थोपी जाती. सत्ता में बने रहने के लिए विपक्ष और मीडिया का मुंह बंद करना आवश्यक था.
अतः जेपी समेत एक लाख 10 हजार राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेलों में बंद कर दिया गया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया. धरना, प्रदर्शन, बंद जुलूस निकालने पर रोक थी. कांग्रेस के लोग ‘इंदिरा ही भारत है, भारत ही इंदिरा’ के नारे लगा रहे थे. पूरे देश में भय और आतंक का महौल पैदा कर दिया गया, ताकि कोई सरकार को चुनौती न दे सके.
बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स की समाप्ति और गोलकनाथ-केशवानंद भारती मुकदमे में सरकार के खिलाफ निर्णय के बाद सरकार और न्यायपालिका में टकराव बढ़ने लगा. न्यायाधीशों को सबक सिखाने के लिए वरिष्ठतम जजों को दरकिनार कर अनुकूल और कनिष्ठ जज को मुख्य न्यायाधीश बनाया जाने लगा. फिर खेल प्रारंभ हुआ संविधान और जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में सही ठहराये गये आरोपों को निष्प्रभावी बनाने का.
वे सारे संशोधन किये गये, जिससे इंदिरा गांधी का अवैध चुनाव न्यायालय के निर्णय के पूर्व ही वैध हो जाये. इंदिरा गांधी पर आरोप था कि उन्होंने निर्धारित सीमा से ज्यादा खर्च किया है. तीन अक्तूबर, 1974 को अमरनाथ चावला केस में कोर्ट के द्वारा चुनावी खर्च संबंधी निर्णय से इंदिरा गांधी का न्यायालय में लंबित मुकदमा प्रभावित हो सकता था. अतः 21 दिसंबर, 1974 को जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-77 में एक स्पष्टीकरण भूतलक्षी प्रभाव से जोड़ा गया, जिसके द्वारा किसी राजनीतिक दल, मित्र, समर्थक द्वारा किया गया खर्च उम्मीदवार के खर्च में शामिल नहीं होगा.
इमरजेंसी लगाने के साथ ही सरकार ने संविधान की धारा-359(1) के तहत आदेश निर्गत कर दिया कि कोई भी व्यक्ति मौलिक अधिकारों से जुड़े प्रावधान-14, 21 और 22 को लागू कराने के लिए न्यायालय नहीं जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट में अटॉर्नी जनरल नीरेन डे ने कहा कि ‘यदि किसी व्यक्ति को गोली मार दी जाये तो भी न्यायालय इमरजेंसी में पीड़ित की कोई मदद नहीं कर सकता है.’ सुप्रीम कोर्ट ने 4-1 के बहुमत से नौ उच्च न्यायालयों के निर्णय को खारिज कर फैसला दिया कि मीसा के तहत गिरफ्तार कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय में रिट दाखिल नहीं कर सकता है.
इंदिरा गांधी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होने के पहले सारे संशोधन करवा लेना चाहती थीं. 21 जुलाई, 1975 को संसद का सत्र आहूत किया गया. विपक्ष के सभी प्रमुख नेता जेल में बंद थे. प्रश्नकाल स्थगित कर दिया गया. सबसे पहले 38वां संविधान संशोधन लाकर धारा-352 को संशोधित किया गया, जिसके अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा इमरजेंसी लगाये जाने के निर्णय को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी.
4 अगस्त, 1975 को निर्वाचन कानून (संशोधन) बिल, 1975, संसद में पेश किया गया, जिसके द्वारा आधे दर्जन संशोधन कर भूतलक्षी प्रभाव से इंदिरा गांधी की चुनाव याचिका से जुड़े सभी आरोपों को निष्प्रभावी बना दिया गया. जिन मामलों का निष्पादन कोर्ट ने कर दिया था, उन पर भी ये संशोधन लागू कर दिये गये. अयोग्यता समाप्त करने या कम करने का अधिकार भी चुनाव आयोग से लेकर राष्ट्रपति को सौंप दिया गया. 11 अगस्त, 1975 को सर्वोच्च न्यायालय में चुनाव से जुड़े मुकदमे की सुनवाई से पहले चुनाव याचिका को पूर्णतया निष्प्रभावी कर दिया गया.
39वां संविधान संशोधन विधेयक सात अगस्त को लोकसभा से, आठ अगस्त को राज्यसभा से और नौ अगस्त को पहले से आहूत 17 राज्य विधानसभाओं से चंद घंटों में पारित करा कर 10 तारीख की रात्रि तक राष्ट्रपति की सहमति ले ली गयी.
इसमें विशेष प्रावधान किया गया कि प्रधानमंत्री, स्पीकर, राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति के विरुद्ध चुनाव याचिका से जुड़े किसी मामले में यदि न्यायालय ने इस संशोधन के पूर्व दोषी पाया है, तो भी वह चुनाव अवैध नहीं माना जायेगा. संसद के अंतिम दिन यानी 9 अगस्त, 1975 को कानूनमंत्री गोखले ने एक और संविधान संशोधन बिल लाकर सबको चौंका दिया. इसमें प्रावधान था कि राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री द्वारा पद ग्रहण करने के पूर्व एवं कार्यकाल के दौरान किये गये किसी आपराधिक कृत्य के लिए उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकेगा. इस बिल की व्यापक आलोचना होने के कारण इसे कभी संसद से पारित नहीं कराया गया.
28 अगस्त, 1976 को कोर्ट की शक्ति को सीमित करनेवाला 42वां संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया. इसमें प्रावधान था कि किसी भी कानून की संवैधानिकता का निर्णय न्यूनतम सात जजों की बेंच ही कर सकेगी और किसी कानून को 2/3 के बहुमत से ही असंवैधानिक घोषित किया जा सकेगा. केशवानंद भारती के मामले में मूलभूत ढांचे के सिद्धांत को बलि चढ़ाते हुए प्रावधान किया गया कि धारा-368 के तहत सभी संविधान संशोधन वैध माने जायेंगे. संसद का कार्यकाल पांच साल से बढ़ाकर छह साल कर दिया गया.
यद्यपि सात नवंबर, 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्टाचार से जुड़े सभी आरोपों से बरी कर दिया, परंतु 39वां संविधान संशोधन खारिज कर दिया. प्रधानमंत्री पद पर आसीन एक व्यक्ति सत्ता बचाने के लिए किस प्रकार संविधान का दुरुपयोग कर सकता है, इसका शर्मनाक उदाहरण था आपातकाल. वर्ष 1977 में इंदिरा गांधी चुनाव हार गयीं. जनता पार्टी की सरकार ने 43वां और 44वां संविधान संशोधन कर ऐसे प्रावधान किये, ताकि भविष्य में कोई संवैधानिक तानाशाही न कर सके. आजाद भारत के इंतिहास में इमरजेंसी एक ऐसा बदनुमा धब्बा है, जिसकी बड़ी कीमत इस देश को चुकानी पड़ी.