22.7 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

गरीब कब तक बने रहें वोट बैंक

आजादी के अमृत वर्ष में भारतीय लोकतंत्र को इस सवाल से जूझना होगा कि आखिर वे कौन से विचार हैं, जो वंचित समुदायों, मलिन और गंदी बस्तियों के लोगों को वोट बैंक बनने को मजबूर करते रहे हैं?

मौजूदा विधानसभा चुनावों के दौरान आर्थिक रूप से खुशहाल राज्य पंजाब हो या फिर पिछड़ा उत्तर प्रदेश, एक कॉमन तथ्य की तरफ ध्यान गया. उम्मीदवार और उनके समर्थक जिन जगहों को थोक वोट बैंक का केंद्र बता रहे थे, संयोग से वे झुग्गियां थीं या घनी बस्तियां. यहां सामान्य कालोनियों और इलाकों की तुलना में ज्यादा जनसंख्या निवास करती है.

ये लोग आर्थिक रूप से निचले पायदान पर खड़े हैं. भारतीय लोकतंत्र में एक स्पष्ट धारणा है. यहां वोट बिकता है, कुछ पैसों के दम पर इनके वोट का सौदा किया जा सकता है. एक और मान्यता है कि बस्तियों के वोटरों को लुभाने वाली सबसे सहज चीज शराब है.

तो, क्या मान लिया जाए कि गरीबी ऐसी सीढ़ी है, जिसके जरिये राजनीतिक दल सत्ता की ऊंचाई हासिल करते हैं? आजादी के पहले हुए केंद्रीय असेंबली या फिर राज्यों की सभाओं के चुनाव, 1937 में हुए आठ राज्यों के चुनाव या फिर आजादी के बाद से अब तक के सभी चुनावों में हर बार किसान, मजदूर और बेरोजगार मुद्दा रहा, यानी हर चुनाव में गरीब और गरीबी मुद्दा बना. इन वर्गों की हालत सुधारने का वादा होता रहा है.

अब तक जितनी सरकारें बनी हैं, सभी ने इन वर्गों की स्थिति सुधारने का वादा किया. इन्हें राजनीतिक दल थोक वोट बैंक के रूप में देखते रहे हैं. आजादी का अमृत वर्ष मनाया जा रहा है. बीते 75 वर्षों में देश ने अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं. आर्थिक, सैन्य, शैक्षणिक आदि मोर्चों पर देश ने उल्लेखनीय प्रगति की है, लेकिन इन उपलब्धियों को गरीबी और मलिन बस्तियां मुंह चिढ़ाती रही हैं.

अव्वल तो इन्हें पूरी तरह खत्म करने की कोशिश होनी चाहिए थी, लेकिन उल्टे राजनीतिक दलों ने इस वर्ग को थोक वोट बैंक के तौर पर स्थापित कर दिया. जिन्होंने मलिन बस्तियों पर कब्जा कर लिया, चुनाव उसकी मुट्ठी में आ गया. नये-पुराने सभी दल मलिन बस्तियों को थोक वोट बैंक के तौर पर ही देखते हैं. सवाल है कि क्या राज्य चलानेवाला राजनीतिक तंत्र जानबूझकर मलिन और गझिन बस्तियों के समाज को सिर्फ वोट बैंक ही बनाये रखना चाहता है? हालातों से तो ऐसा ही लगता है.

संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में राज्य से अपेक्षा की गयी है कि वह अपने नागरिकों के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक उत्थान के लिए काम करेगा. नीति निर्देशक तत्वों को लेकर राजनीतिक दलों की नैतिक जवाबदेही तो है, लेकिन वैधानिक जवाबदेही नहीं है. संविधान सभा में चर्चा के वक्त कई सदस्यों का मानना था कि इन्हें लागू करने के लिए राज्य को जवाबदेह बनाया जाए.

हालांकि, संविधान सभा ने इस राय को खारिज कर दिया. चूंकि, तब आजादी के आंदोलन की तपिश बाकी थी, इसलिए माना गया कि राज्य और उसे चलानेवाले राजनीतिक दल देश की तसवीर बदलने के लिए काम जरूर करेंगे. हालांकि, ऐसा नहीं हो पाया. संविधान सभा ने समान और वयस्क मतदान के अधिकार को लोकतंत्र की बुनियाद के रूप में स्वीकार किया.

भारत के आसपास कई उपनिवेशों ने आजादी हासिल की, लेकिन वहां लोकतंत्र की जड़ें भारत जितनी गहरी नहीं हुईं. वोट तंत्र के लिए यह आम धारणा है कि ज्यादा पढ़ा-लिखा या आर्थिक रूप से खाया-अघाया वर्ग मतदान में उस उत्साह से भागीदारी नहीं करता, जितना कम पढ़ा-लिखा और आर्थिक रूप से कमजोर तबका करता है.

इसकी बड़ी वजह है कि हाड़तोड़ मेहनत करनेवाले कमजोर तबके की आंखें हर वक्त सुनहरे भविष्य की कल्पना से भरी रहती हैं. मतदान का मौका उन्हें इन सपनों की तरफ बढ़ने की सीढ़ी लगता है, इसलिए वे इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर होती है, तो हो सकता है कि चंद रुपये का लालच उन पर भारी पड़ जाता हो, लेकिन यह भी सच है कि अगर वे थोक वोट बैंक बनने को मजबूर हैं, तो इसकी वजह उनकी हालत और उस हालत को बदलने के लिए देखे जानेवाले सपने हैं.

ज्यादातर सरकारों के गठन के पीछे जो समर्थन होता है, उसका सबसे बड़ा आधार आर्थिक या शैक्षिक रूप से वंचित वर्ग का वोट होता है. चुनावों के बाद ज्यादातर फायदा उस वर्ग को मिलता रहा है, जिसकी मतदान में भूमिका कम रही है. गलती वंचित वर्ग की भी है, जिसने हर बार खुद को वोट बैंक बनने दिया. किसी खास वर्ग के वोट बैंक बनने की चिंता संविधान सभा में भी जतायी गयी थी.

इसे ध्यान में रखते हुए पूर्वी पंजाब से चुनकर आये संविधान सभा के सदस्य ठाकुर दास भार्गव ने मतदाता साक्षरता को बढ़ाने की बात की थी. मतदाता को साक्षर बनाने का मतलब उन्हें अपने मतदान की अहमियत को जानने से था. संविधान सभा ने इस विचार को नामंजूर कर दिया था. इस विचार को स्वीकार किया गया होता, तो मलिन और गंदी बस्तियों के लोग थोक वोट बैंक बनने से खुद को खारिज कर देते और अपने हित-अनहित को जानते.

आजादी के अमृत वर्ष में भारतीय लोकतंत्र को इस सवाल से जूझना होगा कि आखिर वे कौन से विचार हैं, जो वंचित समुदायों, मलिन और गंदी बस्तियों के लोगों को वोट बैंक बनने को मजबूर करते रहे हैं? बहुमत की बुनियाद बनने वाले कब तक इस्तेमाल होते रहेंगे? इस सवाल का भी जवाब ढूंढ़ना होगा कि क्या राजनीतिक तंत्र ने जानबूझकर मलिन और गंदी बस्तियों और उनमें रहने वालों को यथास्थिति में रहने दिया, ताकि उस थोक वोट बैंक का वे अपने हित में इस्तेमाल करते रहें?

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें