अब सामान्य व्यक्ति भी मानने लगा है कि जिस इलाके में चुनाव होगा, वहां राजनीतिक आंच में घी डाली ही जायेगी. लखीमपुर खीरी की दुखद घटना के पीछे भी राजनीति के तार आसानी से खोजे जा रहे हैं. चूंकि, उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं, लिहाजा हर राजनीतिक दल अपना समर्थक आधार तैयार करने की कोशिशों में जुट गया है. लखीमपुर की आग पर राजनीतिक रोटी सेंकने वाले भी इसे गहराई से समझते हैं.
बेशक योगी सरकार ने जिस तरह फौरी कदम उठाये हैं, उससे मामला शांत होता नजर आ रहा है. मारे गये किसानों के लिए 45-45 लाख रुपये के मुआवजे का ऐलान हो या फिर मामले की जांच कराने का फैसला या केंद्रीय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्र के आरोपी बेटे पर केस दर्ज करना, इन फैसलों से योगी सरकार मामले को कुशलता से संभालती नजर आयी है.
चाहे किसान मारे गये हों या फिर स्थानीय पत्रकार रमन कश्यप समेत चार लोगों की जान गयी हो, सभी इसी देश के नागरिक थे. लोगों के बीच मतभिन्नताएं हो सकती हैं. इसका यह मतलब नहीं है कि किसी की हत्या कर दी जाए. राजनीति का एक मकसद लोक का व्यापक हित होता है, लेकिन दुर्भाग्यवश राजनीति व्यापक हित की चिंताओं की बजाय अपनी चिंताओं में ही डूबी नजर आती है. चिंता इस बात की होनी चाहिए कि आंदोलन हिंसक न हो.
भारतीय जनता पार्टी के थिंक टैंक रहे गोविंदाचार्य ने इस घटना के बाद राजनीतिक दलों से अपील की थी कि वे ऐसा कार्य न करें, जिससे अव्यवस्था उत्पन्न हो. शायद राजनीति समझती है कि अगर वह ऐसी घटनाओं का फायदा नहीं उठाए, तो वह अप्रासंगिक हो जायेगी, लेकिन वह भूल जाती है कि ऐसी घटनाओं पर जब राजनीति होती है, तो उससे उपजी चिंगारी शोले बनने लगती है, जिसकी तपिश सबको चपेट में ले लेती है.
सुप्रीम कोर्ट ने किसान कानूनों के खिलाफ सुनवाई करते हुए कहा है कि जब भी ऐसी घटनाएं हो जाती हैं, कोई उनकी जिम्मेदारी नहीं लेता. जो आठ जानें गयी हैं, उनके बदले में सरकारें चाहे जितना भी मुआवजा दें, सामाजिक संगठन उनके लिए चाहे जितनी मोटी रकम जुटा लें, लेकिन रकम किसी भी जिंदगी के बराबर नहीं हो सकती. जो लोग इस घटना में मारे गये हैं, आगामी जिंदगी में असल कीमत उनके परिवारों को चुकानी है.
इस तथ्य को राजनीति को तो समझना ही चाहिए, आंदोलनरत किसान संगठनों को भी सोचना चाहिए. किसान संगठनों का आरोप है कि केंद्रीय गृहराज्य मंत्री के बेटे ने गाड़ी भगाने की कोशिश की, जिसके बाद गाड़ी पलट गयी और उससे दबकर चार किसानों की मौत हो गयी. प्रतिक्रिया स्वरूप ड्राइवर समेत तीन लोगों पर हमला हुआ.
जो वीडियो सोशल मीडिया में दिख रहा है, उसमें खेत में गिरे एक व्यक्ति को कुछ लोग निर्दयता से पीट रहे हैं. सोशल मीडिया में सभी पक्ष अपने-अपने तथ्यों को प्रसारित करने लगते हैं. आज की लड़ाइयां सोशल मीडिया में छवि बनाने और बिगाड़ने की भी हो गयी हैं. अरब क्रांति का जरिया बना सोशल मीडिया अपनी मूल भूमिका में आगे निकल गया है. किसान आंदोलन समर्थक और उनके विरोधी कई तरह के तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं.
कुछ तत्व अपने फैसले भी सुना रहे हैं. पक्ष और विपक्ष के दांवों के बीच असल तथ्य कहीं छुप गये हैं. इसलिए योगी सरकार ने ठीक ही किया है कि हाइकोर्ट के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश से पूरे मामले की जांच कराने का फैसला किया है. उम्मीद है, जांच में पूरे तथ्य सामने आयेंगे और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी. वैसे जिस तरह कुछ लोगों को निर्दयता पूर्वक पीटते हुए वीडियो सोशल मीडिया पर सामने आये हैं, उससे साफ है कि बदले की आग में निर्दय हत्याएं की गयीं और इसके लिए जिम्मेदार लोगों को अपराधी माना जाना चाहिए और कानून को उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए.
लखीमपुर की घटना उत्तर प्रदेश पुलिस पर भी सवाल उठाती है. जहां उपमुख्यमंत्री का कार्यक्रम होना हो, वहां उपद्रव की आशंका का पता अगर पुलिस नहीं लगा पाती है और एहतियातन कदम नहीं उठा सकती है, तो यह उसकी नाकामी ही है. उत्तर प्रदेश पुलिस आंदोलनकारियों की मंशा और उनकी संख्या का सही अंदाजा लगाने में असफल रही है. नहीं तो वह एहतियातन वहां पुलिस बल का इंतजाम रखती. उत्तर प्रदेश सरकार को इस पर भी ध्यान देना होगा. चूंकि राज्य में चुनाव होने हैं, लिहाजा यहां राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेंकने के लिए अपनी रवायत के मुताबिक आगे आते रहेंगे. ऐसे में राज्य के प्रशासन और पुलिस की चुनौती बढ़ जाती है कि ऐसी राजनीति को हिंसक न होने देने के लिए कदम उठाए.
आखिर में एक और तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए. इस पूरे घटनाक्रम को सिर्फ कानून और व्यवस्था का विषय ना समझा जाना चाहिए, बल्कि इसके गहरे निहितार्थों, लक्ष्यों और दूरगामी प्रभावों का भी ख्याल किया जाना चाहिए. तभी भविष्य में ऐसी घटनाओं को होने से पहले ही रोका जा सकेगा. किसान संगठनों को भी सावधान रहना होगा कि उनके समर्थक भी हिंसक ना हों. हिंसा अंतत: हर पक्ष के लिए नुकसानदायक होती है. लेकिन, बड़ा सवाल है कि बक्कल उतारने की भाषा का इस्तेमाल करने वाला किसान आंदोलन का नेतृत्व इस तथ्य को समझने की कोशिश करेगा?