पंडित बिरजू महाराज का निधन भारतीय शास्त्रीय परंपरा के लिए अपूरणीय क्षति है. लखनऊ शास्त्रीय परंपरा के शीर्ष स्तंभों- कालका जी, द्वारका ठाकुर प्रसाद, बिंदादीन जी महाराज, शंभू महाराज, अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और बिरजू महाराज- से एक उत्कृष्ट परंपरा बनती है. पंडित बिरजू महाराज के पिता अच्छन महाराज बहुत अच्छे नर्तक, शंभू महाराज कत्थक के बड़े चितेरे और लच्छू महाराज प्रवीण कलाकार रहे.
लच्छू महाराज फिल्मों के साथ भी जुड़े थे तथा उन्होंने ‘मुगल-ए-आजम’ और ‘पाकीजा’ जैसी नामचीन फिल्मों के लिए नृत्य निर्देशन किया. इसी परंपरा में बिरजू महाराज ने घर-घर में कत्थक की व्याप्ति की, जिस प्रकार भजनों को एमएस सुबुलक्ष्मी, सितार को पंडित रविशंकर और फिल्म संगीत को लता मंगेशकर ने बड़ा विस्तार दिया. कत्थक के तोड़े-टुकड़े, पद्म, तत्कार, निकास, गति भाव, मुद्राएं, भंगिमाएं, गतियां आदि सबको बहुत सहजता और मानवीयता से पिरोनेवाला चितेरा का नाम था बिरजू महाराज. लय पर अद्भुत पकड़ और उतने ही सुरीले थे वे. बृज श्याम नाम से वे पद लिखते थे.
बिरजू महाराज की ऐसी ख्याति थी कि उन्होंने अपने समय के सबसे बड़े फिल्म निर्देशक सत्यजित रे की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के लिए कत्थक आधारित दो गीतों का निर्देशन किया. उसमें एक गीत ‘कान्हा मैं तोसे हारी’ उन्होंने खुद गाया और उनकी शिष्या शाश्वती सेन ने नृत्य किया. बाद में वे संजय लीला भंसाली की फिल्मों के महत्वपूर्ण अंग बन गये और ‘देवदास’ व ‘बाजीराव मस्तानी’ जैसी फिल्मों में नृत्य निर्देशन किया.
‘डेढ़ इश्किया’ फिल्म में ‘हमरी अंटरिया पे आ जा संवरिया’ गीत भला किसे भूल सकता है! वे कई तरह की प्रतिभाओं के खान थे. वे कविता लिखते थे, चित्रकारी करते थे, सरोद बजाते थे, राधा-कन्हाई के किस्सों की बात करते थे. उनका पूरा नृत्य ही कविता होना था. शिष्य-शिष्याओं की लंबी परंपरा दी उन्होंने और लखनऊ घराने को ईश्वरीय बनाया.
उन्होंने शास्त्रीय माध्यम से तमाम तरह के लोकप्रिय तत्व भी गूंथे. पिता और चाचाओं से मिली सीख को उन्होंने विकसित किया और उसमें नवाचार भरा. जिस प्रकार ब्रह्मा की रची सृष्टि को प्रजापति सजाता है, पंडित बिरजू महाराज का काम कुछ ऐसा ही रहा.
अगर आप हालिया एक-डेढ़ दशक के टेलीविजन कार्यक्रमों को देखें, जिनमें उन्हें आमंत्रित किया जाता था, तो जो वे बैठकर भाव नृत्य करते थे, वह अद्भुत होता था. स्त्री भाव के साथ उनका जो राधा और नायिका का प्रदर्शन है, साथ ही कृष्ण के जो भाव अभिव्यक्त होते हैं, उसे देखना अनोखा अनुभव है. कई सारे भावों का इस प्रकार व्यक्त करना उनकी विशिष्टता रही.
उनकी व्यापक लोकप्रियता के संदर्भ में चर्चा करें, तो मैंने अपनी पुस्तकों और लेखों में यह रेखांकित करने की निरंतर कोशिश की है कि जो समीक्षक या मर्मज्ञ कलाओं के बारे में शुद्ध शास्त्रीय और व्यावसायिक या लोकप्रिय का अंतर स्थापित करते हैं, वह ठीक नहीं है. जनता के दिल में जो बैठ जाए, वही शास्त्र है. कबीर की कविता बैठ गयी है, तो उसे कुमार गंधर्व भी गा रहे हैं और उसे प्रह्लाद टिप्पनिया भी गा रहे हैं.
अपने नृत्य के माध्यम से बिरजू महाराज ने यही किया. आज कोई युवा-किशोर ‘देवदास’ में माधुरी दीक्षित का नृत्य देखकर यह समझ सकता है कि फिल्मी नृत्य में भी औदात्य, सौंदर्य और गरिमा का समावेश हो सकता है. इसका प्रतीक थे बिरजू महाराज. यह कहा जाना चाहिए कि सिनेमा की ओर से भी कोशिश है कि उसमें शास्त्रीयता आए तथा शास्त्रीयता की भी कोशिश है कि वह जनता तक पहुंचे.
आज बिरजू महाराज के निधन का समाचार आने के बाद सोशल मीडिया पर जिस तरह से उन्हें श्रद्धांजलि दी जा रही है और उन्हें याद किया जा रहा है, उससे इंगित होता है कि नयी पीढ़ी में भी किस कदर उनकी पैठ थी. नयी पीढ़ी समझदार है और वह समझना व गुनना चाहती है. वह खोज-खोज कर ऐसे महान कलाकारों को देखने-जानने का प्रयास करती है. मैं भी नयी पीढ़ी से ही हूं और अगर मैं इन विभूतियों पर शोध करना और उनका दस्तावेजीकरण करता हूं या करना चाहता हूं, तो यह तभी हो रहा है, जब नयी पीढ़ी को जिज्ञासा है.
जब महान गायिका गिरजा देवी से मेरी बात होती थी, तो वे बिरजू महाराज के बारे में बताती थीं कि जिस तरह वे ठुमरी में भाव भरती थीं, उससे कहीं ज्यादा भाव बिरजू महाराज नृत्य कर दिखा देते थे. यह शाब्दिक गरिमा के साथ भाव के सामंजस्य का रेखांकन है. पुरुष देहयष्टि के साथ स्त्री भावों को गहराई से व्यक्त करना चमत्कार सदृश ही है.
अगर हम बिरजू महाराज से कुछ सीख सकते हैं, तो वह है अनुशासन, धैर्य और कला के प्रति समर्पण एवं अनुराग. अगर हम अपने हुनर, अपनी कला से प्रेम नहीं करेंगे, तो बिरजू महाराज बनना मुश्किल है. विभिन्न संस्थाओं और पहलों द्वारा उन्होंने दशकों तक अपनी कला को बड़ी संख्या में शिष्य-शिष्याओं को प्रदान किया, वह भी अनुकरणीय है.