रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण एक ओर जहां तेल व गैस की कीमतें बढ़ती जा रही हैं, वहीं वैश्विक बाजार में खाद्य पदार्थों के दाम में भी तेजी है. इससे उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर दोहरी मार का साया मंडराने लगा है. दुनियाभर में महामारी और उससे पैदा हुई मुश्किलों से पहले से ही मुद्रास्फीति का दबाव है. ऐसी स्थिति में विकासशील देशों की मुद्राएं कमजोर हो रही हैं.
रूस और यूक्रेन ऊर्जा स्रोतों के महत्वपूर्ण उत्पादक व वितरक होने के साथ खाद्य वस्तुओं के भी बड़े आपूर्तिकर्ता हैं. यूरोप समेत कई देशों को वे खनिज पदार्थों के अलावा कृषि में इस्तेमाल होनेवाले फर्टिलाइजर और रसायन भी मुहैया कराते हैं. यदि रूस और यूक्रेन का मसला युद्ध के स्तर तक नहीं पहुंचता, तो अगले तीन से नौ महीने की अवधि में वैश्विक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में कमी आने की उम्मीद की जा सकती थी.
पर अब स्थिति बदल चुकी है और ऊर्जा मूल्यों में कमी होने की गुंजाइश नहीं है. जानकारों की मानें, तो यह भी कह पाना मुश्किल है कि तेल के दामों की मौजूदा बढ़ोतरी किस हद तक जा सकती है. अधिकतर विकासशील देशों को न केवल ईंधन का आयात करना पड़ता है, बल्कि इनमें से कई भोजन सामग्री के लिए भी दूसरे देशों पर आश्रित हैं.
कीमतों के कारण उनका आयात खर्च तो बढ़ेगा ही और घरेलू व बाहरी मुद्रास्फीति के चलते उन्हें वस्तुओं के अधिक दाम देने पड़ेंगे क्योंकि उनकी मुद्रा के मूल्य में भी कमी आ रही है. जल्दी स्थिति में सुधार न हुआ, तो उभरती अर्थव्यवस्थाएं आर्थिक भंवर में फंस सकती हैं.
भारत सहित अनेक विकासशील देशों के घरेलू बाजार में मांग को लेकर पहले से ही स्थिति संतोषजनक नहीं है. मुद्रास्फीति की वजह से इसमें और कमी आ सकती है. बीते कुछ समय से वैश्विक आपूर्ति शृंखला की बाधाएं भी मुद्रास्फीति को बढ़ाने में योगदान दे रही हैं. रूस-यूक्रेन युद्ध से काला सागर से ढुलाई तो ठप है ही, हवाई मार्ग भी बंद है.
इसके साथ ही कई देशों ने रूस पर कठोर पाबंदियों की घोषणा की है. रूस की ओर से भी इसकी प्रतिक्रिया हुई है. इस प्रकार यूरोप में हो रहे युद्ध की चपेट में अन्य महादेशों की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं भी आ चुकी हैं. अन्य क्षेत्रों में झटकों को बर्दाश्त कर पाना एक हद तक संभव भी है, पर खाद्य पदार्थों के दाम बढ़ने से आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा सीधे तौर पर प्रभावित होता है.
भारत के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में खाद्य पदार्थों की भागीदारी लगभग आधी है. फिलीपींस, चीन और रूस में यह आंकड़ा 30 फीसदी से ज्यादा है, जबकि यूरोपीय देशों में इसका अनुपात 10 से 15 प्रतिशत और अमेरिका में लगभग आठ फीसदी है. इससे साफ इंगित होता है कि मुद्रास्फीति उभरते बाजारों पर सबसे अधिक असर डालेगी और उन देशों की मुद्रा को कमजोर करेगी. इससे कोरोना काल के बाद की उपलब्धियां भी हाथ से निकल सकती हैं.