अब आसान नहीं अरविंद केजरीवाल की राह, पढ़ें उमेश चतुर्वेदी का खास लेख
Arvind Kejriwal : पहली बार आप को 54.3 प्रतिशत वोट और 67 सीटें मिलीं, तो दूसरी बार 53.57 प्रतिशत वोट और 62 सीटें मिलीं. कभी बंगला और गाड़ी न लेने तथा वीआईपी कल्चर न अपनाने के वादे के साथ राजनीति में आये केजरीवाल धीरे-धीरे इसी जनाकांक्षा को भूलते चले गये.
Arvind Kejriwal : मराठी की एक कहावत में गढ़ जीतने को अहम तो बताया गया है, लेकिन गढ़ की जंग में अगर सेनापति का बलिदान हो जाता है, तो उस जीत को भी बड़ा नहीं माना जाता. इसे दिल्ली की सियासी जंग और अरविंद केजरीवाल के संदर्भ में देखें, तो कह सकते हैं कि गढ़ तो गया ही, सेनापति भी नहीं रहा. अलग तरह की वैकल्पिक राजनीति और उसके जरिये आम लोगों को खुशहाल और नये तरह के भविष्य का सपना दिखाकर राजनीति में आये अरविंद केजरीवाल के लिए दिल्ली विधानसभा में बहुमत एक तरह से गढ़ यानी किला ही था. अरविंद केजरीवाल वह किला अब खो चुके हैं, साथ ही खुद भी हार गये. अभी यह मान लेना जल्दबाजी है कि केजरीवाल की राजनीति खत्म हो गयी है, पर उनके लिए राह अब आसान नहीं रही.
आम आदमी पार्टी का जब गठन हुआ, तब लोगों को उम्मीद थी कि उसके जरिये देश और उनकी जिंदगी में प्रकाश फैलेगा. इस उम्मीद को 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में दिल्ली की जनता ने भरपूर साथ दिया. पहली बार आप को 54.3 प्रतिशत वोट और 67 सीटें मिलीं, तो दूसरी बार 53.57 प्रतिशत वोट और 62 सीटें मिलीं. कभी बंगला और गाड़ी न लेने तथा वीआईपी कल्चर न अपनाने के वादे के साथ राजनीति में आये केजरीवाल धीरे-धीरे इसी जनाकांक्षा को भूलते चले गये. दूसरे कार्यकाल में तो वह तानाशाह की तरह खुद को स्थापित करते गये. पंजाब में आप की भारी जीत के बाद जैसे उनका खुद पर नियंत्रण नहीं रहा. पार्टी में सिर्फ उनकी ही चलती थी. वैसे भी प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और प्रोफेसर आनंद कुमार के साथ ही कुमार विश्वास को पार्टी से वह पहले ही बाहर कर चुके थे. उनके साथ रहे आंदोलन के दिनों के साथी मनीष सिसोदिया और स्वाति मालीवाल. पर शासन के आखिरी दिनों में जिस तरह स्वाति की मुख्यमंत्री के घर में ही पिटाई हुई, उसने केजरीवाल की कलई खोल दी.
केजरीवाल ने अपने पहले कार्यकाल में बेशक अच्छे कार्य किये. जैसे, मोहल्ला क्लीनिक का विचार दिया और उसे लागू किया. शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट बढ़ाया, 200 यूनिट तक बिजली और एक सीमा तक पानी मुफ्त दिया. महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा की सहूलियत दी. पर साथ ही दिल्ली में भ्रष्टाचार बढ़ता गया. दो साल पहले के चुनाव में नगर निगम पर भी उनका कब्जा हो गया. फिर भी दिल्ली गंदी होती चली गयी. डीटीसी के बेड़े से बसें भी कम होती चली गयीं. केजरीवाल के दौर में हवा-हवाई घोषणायें खूब हुईं. इसकी वजह से उनसे फायदा लेने वाले लोग भी खुश नहीं थे. डीटीसी के कर्मचारियों, बसों में तैनात मार्शलों आदि को स्थायी नौकरियां देने का वादा कर चुके केजरीवाल उन्हें नौकरियां नहीं दे पाये. लोग समझने लगे कि वह सिर्फ हवा-हवाई दावे करते हैं.
पंजाब के चुनाव में उन्होंने महिलाओं को हजार रुपये महीने देने का वादा किया था, पर अब तक उन्हें यह रकम नहीं दे पाये. पंजाब रोडवेज की बसों में महिलाओं को मुप्त सहूलियत देने से पंजाब रोडवेज घाटे में है और कर्मचारियों को तनख्वाह नहीं मिल रही. ये बातें दिल्ली की जनता तक पहुंचती रहीं. इससे केजरीवाल पर लोगों का भरोसा खत्म हो गया. पिछले दो चुनावों तक केजरीवाल नैरेटिव तैयार करते थे और विपक्षी उसका जवाब देते थे. इस बार भी महिलाओं को 2,100 रुपये महीने देने और उसके लिए उनके फॉर्म भरवाकर नैरेटिव स्थापित कर दिया था. पर बाद में भाजपा ने उनकी काट शुरू की. उसने अपना 15 सूत्रीय संकल्प पत्र पेश किया.
महिलाओं को 2,500 रुपये महीने की सम्मान निधि देने और 200 के बजाय 300 यूनिट बिजली मुफ्त देने जैसे ऐलान किये,जिनका वोटरों पर असर दिखा. भाजपा ने चुनाव प्रबंधन के लिए अपने सारे मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री उतार दिये और मंडल स्तर तक बड़े नेताओं को जिम्मेदारी दी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता भी सक्रिय हुए. पार्टी कार्यकर्ता सक्रिय हुए और उन्होंने जमीनी स्तर पर काम किया. इसका असर चुनाव में दिखा.
भाजपा की जीत में कुछ हिस्सेदारी कांग्रेस की भी है. हालांकि कांग्रेस को पिछले चुनाव की तुलना में दो फीसदी ज्यादा वोट मिले हैं, पर उसने केजरीवाल के भ्रष्टाचार और उनके बड़बोलेपन के खिलाफ माहौल बनाने में योग जरूर दिया. दिल्ली की सूरत बदलने वाली शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित ने खुलेआम मोर्चा खोल रखा था. संदीप खुद केजरीवाल के खिलाफ नयी दिल्ली सीट से मैदान में उतरे और केजरीवाल की हार की पटकथा लिखने में मदद की. केजरीवाल के शीशमहल का सवाल भले भाजपा ने उठाया, पर जिस आबकारी नीति घोटाले में केजरीवाल जेल गये थे, उसका भंडाफोड़ कांग्रेस नेता अजय माकन ने किया था. केजरीवाल ने एक और गलती कर दी. उन्होंने यह कहकर भाजपा पर हमला बोला कि उसकी हरियाणा सरकार ने यमुना के पानी में जहर मिला दिया है, ताकि दिल्ली वालों का नुकसान हो. जनता इसे स्वीकार नहीं कर पायी. दिल्ली में राजनीतिक माहौल बदल चुका है. अब भाजपा के सामने जिम्मेदारियों की लंबी सूची है. अब उसकी जिम्मेदारी है कि वह राजधानी को खुशहाल ही नहीं, पर्यावरण अनुकूल और साफ भी बनाये. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)