बड़ा सबक है यस बैंक संकट

चाहे बैंक सरकारी हो या निजी, नियमों में सख्ती और सही निगरानी ही समाधान है. यह भी निश्चित है कि किसी भी संस्थान का मालिक सरकार है या निजी लोग, यह उसकी कुशलता का पैमाना नहीं हो सकता.

By Pritish Sahay | March 8, 2020 11:37 PM

डॉ अश्विनी महाजन

एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू

लंबे समय से सरकारी बैंक एनपीए के संकट से गुजर रहे हैं. हालांकि, देश की बैंकिंग जमाओं का 63 प्रतिशत हिस्सा सरकारी बैंकों के पास है, तो भी लोगों को कभी ऐसा नहीं लगा कि उनका पैसा डूब सकता है. उसका कारण है, लोगों का यह विश्वास कि सरकारी होने के कारण उनका पैसा पूर्णतया सुरक्षित है. देर-सबेर सरकार द्वारा सहायता पैकेजों और विविध उपायों के बाद स्थिति बदलनी शुरू हो चुकी है, और ऐसा लगता है कि जल्द ही सरकारी बैंक एनपीए संकट से बाहर हो जायेंगे.

आज जब सरकारी बैंकों का एनपीए संकट समाप्त होने के कगार पर है, देश का एक महत्वपूर्ण निजी क्षेत्र का बैंक (यस बैंक) जो देश का सातवां सबसे बड़ा बैंक है, भारी संकट में आ गया है. इस बैंक के बारे में लंबे समय से अटकलें थीं. उदारीकरण के लगभग तीन दशकों में कई निजी बैंक अस्तित्व में आये. एचडीएफसी बैंक पहला और आइसीआइसीआइ बैंक भारत का तीसरा सबसे बड़ा बैंक बनने में कामयाब हो गया. एक्सिस बैंक एवं कोटक बैंक सहित कई निजी क्षेत्र के बैंक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर पाये.

यस बैंक के वर्तमान संकट से उबरने के लिए रिजर्व बैंक ने इसके जमाकर्ताओं पर एक अंकुश लगा दिया है कि वे एक महीने में पचास हजार और विशेष परिस्थितियों जैसे- बीमारी, विवाह आदि के लिए पांच लाख रुपये से ज्यादा की निकासी नहीं कर पायेंगे. यस बैंक को गहरे संकट से बचाने के लिए यह एक तरह से सही भी है. कोई भी बैंक जनता के भरोसे पर ही चलता है. जमाकर्ता अपना पैसा बैंकों में जमा करते हैं और बैंक उस पैसे को ऋण के रूप में देते हैं. इन ऋणों पर बैंक को ब्याज मिलता है और उसी ब्याज में से जमाकर्ताओं को उनकी जमाओं पर ब्याज मिलता है. सामान्यत: लोग अपनी अधिकांश जमा राशि को बैंक के पास ही रखते हैं, इसलिए बैंकों को सामान्यत: लिक्विडिटी का संकट नहीं आता. लेकिन, बैंक पर जमाकर्ताओं का विश्वास जब डगमगाता है, तो लिक्विडिटी का संकट आ सकता है और जमा राशि वापस न करने की स्थिति में बैंक फेल हो सकता है.

जब रिजर्व बैंक ने जमा राशि की निकासी पर अंकुश लगाया है, तो यह नहीं समझना चाहिए कि बैंक फेल हुआ है, बल्कि यह बैंक को बचाने के लिए किया गया है. भारत एक प्रबल बचत संस्कृति का देश है. गृहस्थ अपनी बचत को कई प्रकार से संग्रहित करते हैं, लेकिन बैंकों में जमा करना लोकप्रिय तरीका है. 31 मार्च, 2019 तक निजी और सार्वजनिक बैंकों को मिला कर कुल 126 लाख करोड़ रुपये बैंकों में जमा थे. किसी भी बैंक का फेल होना दुर्भाग्यपूर्ण है. यही कारण है कि यस बैंक के संकट में सरकार और रिजर्व बैंक ने तुरंत हस्तक्षेप किया. यस बैंक के बोर्ड का रिजर्व बैंक ने अधिग्रहण कर लिया है. स्टेट बैंक और एलआइसी को यस बैंक के शेयर खरीदने के लिए कहा गया है.

काफी समय से बैंकिंग व्यवस्था में विश्वास बेहतर करने के लिए जमा राशि के बीमा की सीमा को एक लाख से बढ़ाने की कवायद चल रही थी. इसी वर्ष बजट में वित्तमंत्री ने घोषणा की है कि इस राशि को पांच लाख किया जायेगा. सरकार और रिजर्व बैंक के उपायों के कारण यस बैंक का संकट टल जायेगा, लेकिन निजीकरण के इस युग में हमें इससे सबक लेने की जरूरत है. डूबते ऋणों के चलते यस बैंक की आर्थिक हालत बदतर होती गयी. रिजर्व बैंक को मजबूरी में यस बैंक की जमाओं पर 30 दिन का यह अंकुश लगाना पड़ा. इस संकट के पीछे रिजर्व बैंक ने बैंक के प्रबंधन को ही दोषी ठहराया है.

निजी बैंकों के डूबते ऋणों के पीछे रिजर्व बैंक भी कम जिम्मेदार नहीं है. जब सरकारी बैंक एनपीए से जूझ रहे थे, तब रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर ने यह कहा था कि सरकारी बैंकों के प्रबंधन पर रिजर्व बैंक का नियंत्रण सीमित है, जबकि निजी बैंकों पर रिजर्व बैंक बेहतर तरीके से नियंत्रण कर सकता है. लेकिन आज यस बैंक के प्रबंधन को ही उसके संकट का दोषी कह रहा है. इसके लिए रिजर्व बैंक की वह नीति जिम्मेदार है, जिसके अनुसार निजी बैंकों के प्रमोटरों पर यह शर्त लगायी गयी कि वे एक निश्चित समयसीमा में बैंकों में अपनी अंशधारिता यानी मलकियत को शून्य करें.

यस बैंक के मालिक राणा कपूर की अंशधारिता को घटाने के लिए मजबूर किया गया. आज यस बैंक के प्रबंधन में जो लोग हैं, उनकी कोई अंशधारिता बैंक में नहीं है. जो लोग यस बैंक का प्रबंधन चला रहे हैं, उनका कोई स्टेक बैंक में नहीं है. यदि प्रमोटरों की अंशधारिता को शून्य नहीं किया गया होता, तो बैंक के स्वास्थ्य में उनकी रुचि बनी रहती और बैंक इस हालत में नहीं पहुंचता. इसलिए अभी भी समय है कि रिजर्व बैंक प्रमोटरों की अंशधारिता को शून्य करनेवाली उस नीति पर पुन: विचार करे.

पूर्व में रिजर्व बैंक के कुछ गवर्नर और अन्य अधिकारी सरकारी बैंकों के निजीकरण की वकालत करते रहे हैं. लेकिन, अब निजी बैंकों की बिगड़ती स्थिति और यहां तक कि बंद होने के कगार पर पहुंचने के कारण उनके इन सुझावों पर सवालिया निशान लग रहा है. सच यह है कि चाहे बैंक सरकारी हो या निजी, नियमों में सख्ती और सही निगरानी ही समाधान है. यह भी निश्चित है कि किसी भी संस्थान का मालिक सरकार है या निजी लोग, यह उसकी कुशलता का पैमाना नहीं हो सकता. (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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