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केंद्र की सत्ता का सेमीफाइनल हैं ये चुनाव

विधानसभा चुनाव वाले इन पांच राज्यों से कुल मिलाकर 83 लोकसभा सांसद चुने जाते हैं. ऐसे में इनके जनादेश में राष्ट्रीय राजनीति के लिए संकेत खोजने की भी कोशिश होगी, क्योंकि इनमें से 65 सीटें भाजपा के पास हैं.

पांच राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है. इन सभी राज्यों के लिए यह चुनाव समान रूप से महत्वपूर्ण है, लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ पर खास नजर रहेगी. मिजोरम और तेलंगाना में क्षेत्रीय दल- मिजो नेशनल फ्रंट और बीआरएस- सत्तारूढ़ हैं, और वहां कांग्रेस या भाजपा की स्थिति चुनौती देने से ज्यादा नजर नहीं आती. लेकिन तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता के लिए मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होगा. अपने-अपने गठबंधनों के साथ ये दोनों ही अगले साल होनेवाले लोकसभा चुनाव में केंद्रीय सत्ता के दावेदार भी हैं. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ इसलिए भी खास हैं, क्योंकि पिछली बार 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने इनकी सत्ता भाजपा से छीन ली थी.

कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत सिर्फ छत्तीसगढ़ में ही मिला था, जहां 15 साल से सत्तारूढ़ भाजपा मात्र 15 सीटों पर सिमट गयी थी. राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस बहुमत से कुछ पीछे छूट गयी, पर छोटे दलों और निर्दलीय विधायकों के जुगाड़ से सरकार बन गयी. राजस्थान में सचिन पायलट के बागी तेवरों के बावजूद अशोक गहलोत पांच साल सरकार चलाने की जादूगरी दिखा गये, लेकिन मध्य प्रदेश में कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के कारण सत्ता गंवा बैठे. ये तीनों राज्य राजनीतिक दृष्टि से खास इसलिए भी हैं, क्योंकि इन राज्यों में मतदाताओं ने जहां 2018 में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में जनादेश दिया, वहीं 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में इन्हीं मतदाताओं ने भाजपा को भारी जीत दिलायी. अब इस साल कांग्रेस के भाजपा से हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की सत्ता छीन लेने के बाद ये विधानसभा चुनाव और दिलचस्प हो गये हैं. वैसे तो ये चुनाव नया विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ तथा भाजपा द्वारा एनडीए को सक्रिय करने के बाद हो रहे हैं, लेकिन तीन बड़े राज्यों में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होगा.

बेशक गुजरात विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के बाद आप को भी राष्ट्रीय दल का दर्जा मिल गया है. वह राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में महत्वाकांक्षा की वजह से दांव लगायेगी ही, लेकिन उनके कांग्रेस की सीटों पर भी उम्मीदवार उतारने से विपक्षी वोटों का ही बंटवारा होगा. इसका विपक्षी गठबंधन पर नकारात्मक असर हो सकता है. इन राज्यों में बीएसपी का भी सीमित असर है, और इससे कांग्रेस को ही नुकसान हाेने की आशंका है. राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से 200 सदस्यों वाली राजस्थान विधानसभा में कांग्रेस के 100 और भाजपा के 73 विधायक हैं, जबकि अन्य विधायकों की संख्या 26 है. राजस्थान में कांग्रेस के समक्ष चुनौती होगी कि वह ना केवल सीटें बचायें, बल्कि इनमें कुछ वृद्धि कर अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा छूने की कोशिश करे. भाजपा को यह आंकड़ा छूने के लिए लंबी छलांग लगानी होगी. कांग्रेस के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावना स्वाभाविक है, पर उसे शांत करने के लिए गहलोत सरकार ने पिछले कुछ महीनों में जन कल्याणकारी योजनाओं की झड़ी लगा दी है.

मतदाताओं को रिझाने की इन कोशिशों के अलावा कांग्रेस आलाकमान गहलोत-पायलट में सुलह करवाकर एकजुटता का संदेश देने में सफल दिख रहा है, बशर्ते टिकट वितरण में बवाल न हो. दूसरी ओर, कांग्रेस के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावना का लाभ मिल सकने के बावजूद भाजपा की बड़ी चुनौती आंतरिक कलह बन सकती है. दो बार की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की नाराजगी खुला रहस्य है. हालांकि, मान-मनौव्वल की अटकलों पर स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कह कर पूर्ण विराम लगा दिया है कि भाजपा किसी चेहरे पर नहीं, कमल के निशान पर चुनाव लड़ेगी. संभव है कि मध्य प्रदेश की तर्ज पर राजस्थान में भी विधायकों के टिकट काट केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को उतारा जाए, पर यह असंतोष रोकने में कितना कारगर होगा, यह बड़ा प्रश्न है. मध्य प्रदेश में पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 230 में से 114 सीटें जीती थीं और भाजपा ने 109, जबकि अन्य की संख्या सात रही.

लेकिन सिंधिया के नेतृत्व में 22 विधायकों की बगावत ने 2018 में कांग्रेस की सत्ता पलट दी. संख्या बल की दृष्टि से वहां भाजपा और कांग्रेस के बीच ज्यादा नजदीकी मुकाबले की संभावना है. राज्य में नेताओं के दलबदल ने जहां भाजपा की चिंता बढ़ायी है, वहीं सत्ता विरोधी भावना की काट के लिए केंद्रीय मंत्रियों-सांसदों को उम्मीदवार बनाने का दांव चला गया है, लेकिन इससे 18 साल से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह भी लग गया है. कांग्रेस में अंतर्कलह की स्थिति लगभग नहीं है, वहीं बीजेपी में इसके बढ़ने की आशंका हैं. ऐसे में राजस्थान की तरह मध्य प्रदेश में भी बीजेपी की सारी उम्मीदें मोदी पर टिकी रहेंगी. छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी के समक्ष मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. वहां आदिवासी मतदाताओं की भूमिका निर्णायक रहती है. अनुसूचित जनजाति के लिए 29 सीटें आरक्षित हैं, तो 20 अन्य सीटों पर भी उनकी संख्या अच्छी-खासी है.

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की लोकलुभावन योजनाओं और टीएस सिंहदेव से सुलह के बाद कांग्रेस सबसे ज्यादा आश्वस्त छत्तीसगढ़ में ही नजर आ रही है. हालांकि, अरविंद नेताम की हमार राज पार्टी, माकपा और बसपा के साथ मिलकर चुनावी गणित को प्रभावित कर सकती है. तेलंगाना में मुख्यमंत्री केसीआर तीसरे कार्यकाल के लिए जनादेश मांग रहे हैं. पिछले चुनाव में 119 में से 19 सीटें जीतनेवाली कांग्रेस ही उन्हें कुछ चुनौती देती नजर आयी थी. बाद में भाजपा भी सक्रिय और आक्रामक रही, पर टीआरएस को बीआरएस बना चुके केसीआर की सत्ता से बेदखली आसान नहीं लगती. पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम की राजनीति लंबे समय तक कांग्रेस और सत्तारूढ़ दल मिजो नेशनल फ्रंट के बीच बंटी रही. सत्ता का अदल-बदल भी होता रहा, लेकिन तीसरे ध्रुव के रूप में उभरा जोराम पीपुल्स मूवमेंट अब कांग्रेस से आगे निकलता दिख रहा है. पर, वह मुख्यमंत्री जोरामथंगा की सत्ता के लिए कितनी चुनौती बन पाता है, इसका पता चुनाव में ही मिल सकता है. विधानसभा चुनाव वाले इन पांच राज्यों से कुल मिला कर 83 लोकसभा सांसद चुने जाते हैं. ऐसे में इनके जनादेश में राष्ट्रीय राजनीति के लिए संकेत खोजने की भी कोशिश होगी, क्योंकि इनमें से 65 सीटें भाजपा के पास हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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