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न मिले अपराधियों को राजनीतिक प्रश्रय

कई बार वरिष्ठ अधिकारी चाहकर भी कार्रवाई नहीं कर पाते क्योंकि या तो उन पर दबाव होता है या फिर उन्हें समुचित राजनीतिक संरक्षण अथवा निर्देश नहीं होता है.

हमारे देश में राजनीति के अपराधीकरण की चिंता बहुत पुरानी है. इससे निपटने के उपायों पर विमर्श भी लंबे समय से चल रहा है. उत्तर प्रदेश में अतीक अहमद प्रकरण के हवाले से एक बार फिर इस मसले पर चर्चा हो रही है. ऐसे कई उदाहरण हैं, जब दुर्दांत अपराधी राजनीति में भी स्थापित हो जाते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है गठजोड़- अपराध का राजनीति से गठजोड़, नौकरशाही से गठजोड़ आदि. इसी का फायदा उठाकर अपराधी राजनीति के मैदान में प्रवेश कर जाते हैं.

इस गठजोड़ के कारण अपराधियों को राजनीतिक प्रश्रय भी मिलता है और उन्हें पुलिस एवं प्रशासन का संरक्षण भी प्राप्त होता है. इसी संरक्षण के बूते अपराधी आगे बढ़ते जाते हैं. इस पूरे हिसाब की जड़ में है अपराधियों को मिलने वाला राजनीतिक संरक्षण. अगर उन्हें राजनीतिक संरक्षण नहीं मिले, तो अन्य तरह के प्रश्रय भी उन्हें नहीं मिल सकेंगे. जहां तक अतीक अहमद की बात है, जो उनको समाजवादी पार्टी का संरक्षण था. इस पार्टी का वरदहस्त होने के चलते उनके कृत्यों पर अंकुश लगा पाना मुश्किल था. ऐसे में वे आगे बढ़ते गये. आपराधिक करतूतें भी रहीं और वे सांसद और विधायक भी बनते रहे.

राजनीति का अपराधीकरण एक गंभीर समस्या है और यह समस्या देशभर में है. इसके समाधान के उपाय सुझाने के लिए विभिन्न समितियों का गठन हो चुका है और उनकी रिपोर्ट भी हैं. लेकिन उन उपायों को अमल में लाने के लिए ठोस कार्रवाई नहीं हो रही है. ऐसा इसलिए है कि आज नेता भी अपराधी हो चुका है. रिपोर्ट बताती हैं कि लोकसभा में 40 फीसदी से अधिक सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक है. अगर हम सच में इस समस्या को दूर करने की इच्छा रखते हैं, तो सबसे पहले हमें उन गठजोड़ों को तोड़ना होगा, जिनका उल्लेख पहले किया गया है.

अतीक अहमद के मामले को देखें, तो आज के समय में राजनीतिक संरक्षण समाप्त हो गया था और अब माफिया तंत्र के खिलाफ कार्रवाई हो रही थी. उस प्रक्रिया में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिसको लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. यह जो हत्याकांड हुआ है, उसकी न्यायिक जांच की घोषणा हो चुकी है. इससे अधिक और कुछ क्या किया जा सकता है! इसमें पुलिस की क्या कमजोरी रही, हत्या के आरोपियों का संबंध किससे है, जो तीन लोग पकड़े गये हैं, वे आपस में कैसे मिले, हथियारों के स्रोत क्या हैं, यह सब जांच से पता चल जायेगा.

यह बात मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि पुलिस तंत्र में भी ठोस सुधार किये जाने चाहिए. ऐसे सुधारों के प्रति सरकारी तत्परता में उदासीनता ठीक नहीं है. पुलिस तंत्र को प्रभावी बनाना, उसे किसी भी तरह के राजनीतिक दबाव से मुक्त रखना, नेताओं, अफसरों व पुलिस के गठजोड़ को खत्म करना हमारी मुख्य प्राथमिकताओं में रखना होगा. हालिया मसले में देखें, तो जहां तक मुठभेड़ का मामला है, वह तो समझ में आता है, पर कोई व्यक्ति अगर आपकी अभिरक्षा में हैं, तो उसे सुरक्षित रखना आपका उत्तरदायित्व है.

यह हत्याकांड कैसे हुआ, इस पर ठीक से पड़ताल होनी चाहिए तथा भविष्य में इस तरह की चूक से बचना चाहिए. यह भी रेखांकित करना आवश्यक है कि पुलिस तंत्र को किसी तरह के दबाव में न आकर स्वायत्त ढंग से काम करना चाहिए. आपराधिक गठजोड़ में पुलिस का लिप्त होना बेहद चिंताजनक है. भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों के बारे में भी खबरें आती हैं. कई बार वरिष्ठ अधिकारी चाहकर भी कार्रवाई नहीं कर पाते क्योंकि या तो उन पर दबाव होता है या फिर उन्हें समुचित राजनीतिक संरक्षण अथवा निर्देश नहीं होता है.

यह स्थिति जब तक नहीं बदलेगी, तब तक अपराधियों को रोका नहीं जा सकेगा और न ही राजनीति को उनसे अलग रखा जा सकेगा. अगर प्रारंभ में ही पुलिस को रोका नहीं गया होता, तो अतीक अहमद अपराध के पहले पायदान पर ही रोक लिया जाता. इस संबंध में एक महत्वपूर्ण पहलू न्यायपालिका से भी जुड़ा हुआ है. अपराधी, नेता, पुलिस और प्रशासन का गठजोड़ चाहे जितना भी असरदार हो, पर यह भी तो सच है कि बड़ी तादाद में आपराधिक मामले अदालतों के सामने पहुंचते हैं.

लोग याचिकाएं डालते हैं, पुलिस चार्जशीट जमा करती है. लेकिन हमारी अदालतों में मामलों के निस्तारण की गति इतनी सुस्त है कि फैसला या तो आता नहीं और अगर आता है, तो बहुत देर के बाद आता है. इसका नतीजा है कि निचली अदालतों से लेकर उच्च न्यायालयों तक लाखों की संख्या में मुकदमे लंबित हैं. हमारी न्यायपालिका को इन विसंगतियों पर समुचित ध्यान देना होगा. कई बार तो न्यायपालिका की भूमिका ही संदेहास्पद दिखती है.

कहा जाता है कि जब अतीक अहमद के मुकदमे जाते थे, तो नौ-दस जज उसकी सुनवाई से अपने को अलग कर लेते थे. अब इसका कोई तुक तो नजर नहीं आता. यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आखिर जज के रूप में आप वहां कर क्या रहे हैं. सब दस्तावेज, रिपोर्ट और सुनवाई आपके सामने है और आपसे फैसला नहीं लिखा जा रहा है! इसलिए यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि नेताओं, पुलिस, प्रशासन के साथ-साथ राजनीति और समाज में बढ़ते अपराधीकरण के लिए न्यायपालिका भी जिम्मेदार है.

यह समझना होगा कि सुधार का कार्य सरकार को करना होता है. हमारी राजनीति में तमाम समस्याएं हैं और उसी राजनीति के नियंत्रण में पुलिस है. सबसे पहले तो पुलिस को उसका काम करने देने के लिए उसे स्वायत्त बनाना चाहिए. इससे अपराध पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी. राजनीतिक पार्टियों को आत्ममंथन करना चाहिए कि अपने निहित स्वार्थों के लिए उन्होंने अपराधियों को बढ़ावा देकर देश और जनता का कितना भारी नुकसान किया है.

जनता को भी सोचना होगा. आखिर उसी के वोट हासिल कर अपराधी लोकसभा और विधानसभाओं में पहुंचते हैं. ऐसे आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के बारे में उस क्षेत्र के लोग तो जानते ही हैं. उसके बावजूद वैसे लोग जीत जाते हैं. विडंबना ही है कि ऐसा माना जाता है कि बेईमान और अपराधी व्यक्ति के चुनाव जीतने की संभावना अधिक होती है.

चुनाव प्रणाली में सुधार की बात भी अरसे से हो रही है. इस संबंध में पहल करना चुनाव आयोग का काम है. बिना ठोस सुधार किये अपराधियों के चुनाव मैदान में उतरने से रोक पाना बेहद मुश्किल है. इस तरह, हमें विभिन्न स्तरों पर सुधार करना होगा, अन्यथा अपराधी भी बढ़ेंगे और राजनीति एवं प्रशासन से उनका गठजोड़ भी बना रहेगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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