चुनाव में प्रकृति पर भी रहे ध्यान

हमने कभी इस तरह से मुद्दे खड़े ही करने की कोशिश नहीं की, इसलिए राजनीतिक दलों के ऊपर सारा दोष नहीं मढ़ा जा सकता है. इसके लिए हम ही दोषी हैं, यह स्वीकार किया जाना चाहिए.

By डॉ अनिल प्रकाश जोशी | April 22, 2024 7:37 AM
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इस समय देश में चुनाव का माहौल है. हर जगह अगर कोई सबसे महत्वपूर्ण खबर है, तो वह राजनीति को लेकर है या फिर माननीयों के शब्द-वाणों पर है. विकास को लेकर बड़े-बड़े दावे और वादे किये जा रहे हैं. यही मुद्दे मतदाताओं को लुभाते भी हैं. दुर्भाग्य यह है कि इन तमाम चर्चाओं में कहीं पर भी लेशमात्र प्रकृति और पर्यावरण का जिक्र नहीं होता. हवा, मिट्टी, जंगल, पानी आदि को लेकर कोई बात नहीं होती.

लोकसभा ही नहीं, विधानसभा से लेकर पंचायत तक के चुनाव में भी ये मसले गायब रहते हैं. जब देश स्वतंत्र हुआ था, तब शायद पर्यावरण इतना महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं था क्योंकि उस समय की प्राथमिकताएं आर्थिकी और विकास से जुड़ी थीं. तब अकाल, खेती में कम उत्पादन, बेरोजगारी जैसे मुद्दे प्रमुख थे. पर आज, जब अपना देश ही नहीं, बल्कि सारा विश्व तेजी से बदल रहा हो और उसका कारण मात्र बदलती पारिस्थितिकीय परिस्थितियां हों, तो फिर इनका गायब रहना नेताओं के विवेक पर सवाल खड़े करता है. प्रकृति और पारिस्थितिकी को इस तरह अनदेखा करना निराशाजनक है.देश की पर्यावरण रपट कतई अच्छी नहीं मानी जा सकती.

आज बेंगलुरु और अन्य कई स्थान जल-विहीन होने की कगार पर हैं. बेंगलुरु को भारत का केपटाउन कहा जा रहा है. दक्षिणी अफ्रीकी शहर केपटाउन में आज पानी की राशनिंग हो चुकी है. कर्नाटक में जल भंडारण घटकर 36 प्रतिशत बचा है. इसका मतलब यह है कि यह गर्मी कर्नाटक के लिए भारी पड़ने वाली है. तेलंगाना से भी खबरें आ चुकी हैं कि वहां के सारे जलाशयों में पानी तेजी से घटता जा रहा है. गर्मी ने प्रचंड रूप लेना शुरू कर दिया है, जिससे जहां एक तरफ जल आवश्यकता बढ़ेगी, वहीं दूसरी तरफ जल भंडारों में पानी की कमी आयेगी. महाराष्ट्र में भी ऐसी ही स्थिति है. अब ऐसे में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि, जहां ऐसा सर्वेक्षण नहीं हुआ है, स्वाभाविक है कि वे भी इसी और इशारा करेंगे. हिमालय की खबर है कि वहां बढ़ती गर्मी के कारण हिमखंड झीलों में परिवर्तित हो रहे हैं. इसके दो दुष्परिणाम सामने होंगे- झील आपदाओं का कारण बनेगी और नदियों में पानी की कमी होगी.

अब देश की हवा के बारे में बात करें. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में भारत के 80 शहर वायु प्रदूषण में अग्रणी हैं. जब देश की राजधानी ही दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी हो, तो फिर अन्य शहरों की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है. वह हवा, जिससे हम हर क्षण सांस लेते हैं, प्रदूषित होती चली जा रही हो और यह हमारा राष्ट्रीय विषय, खास तौर से राजनीतिक दलों की चिंता का हिस्सा न हो, तो फिर चुनाव में जीवन बचाने के कौन सी पहल राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में झलकती हैं? यह सवाल उठाया जाना चाहिए.


अब देखिए, हवा, पानी और मिट्टी, जो जीवनदायी संसाधन हैं, उनको जोड़ने वाले वनों की हालत भी खराब है. बिहार में सात से आठ प्रतिशत वन बचा है, पश्चिम बंगाल में यह आंकड़ा 13-14 प्रतिशत है, जबकि यह 33 प्रतिशत होनी चाहिए. घोषणापत्रों में इनका कोई भी जिक्र नहीं दिखता. आखिर ऐसा क्यों होता है कि हमारे राजनीतिक दल इस तरह के मुद्दों के प्रति असंवेदनशील होते हैं, इसका विश्लेषण हम सबको करना चाहिए. अगर हम राजनीतिक दलों या नेताओं के चुनावी वादों और दावों को देखें, तो वे सब विकास से ही संदर्भित होते हैं क्योंकि इसी में उनका सबसे बड़ा दांव लगा होता है. सच तो यह है कि ये समझ उनकी नहीं होती, बल्कि हमारे द्वारा उनको ये ही जताया जाता है. राजनीतिक दल वही बात करने की कोशिश करते हैं, जो जनता चाहती है. वे हमारी इस नब्ज को हमसे भी बेहतर समझते हैं.

जब देश के लोगों की प्राथमिकताएं विकास पर केंद्रित होगी, तो स्वाभाविक तौर पर राजनीतिक दल और नेता अपनी बातों में विकास को ही केंद्र में रखेंगे. क्या आज तक के चुनावी इतिहास में प्रकृति, पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर चर्चा कभी हुई? क्या कभी कोई चुनाव ऐसा लड़ा गया हो, जब पर्यावरण भी मुद्दा बना हो? अगर ऐसे प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं, तो यह राजनीतिक दलों से ज्यादा हम सबके लिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि राजनीतिक दलों के सत्ता में आने के बाद जो कुछ भी होता है, वह हम सबके सामने हैं. और, ये अनुभव अच्छे-खराब, मीठे-कड़वे सब तरह के हो सकते हैं. लेकिन इन सब के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वे हैं जीवन के सवाल, जो प्रकृति के चारों तरफ घूमते हैं तथा ये बेहतर हवा, मिट्टी, जंगल, पानी से जुड़े हैं.
इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हम अब देश के निर्माण में मात्र विकास को ही सबसे बड़ा मुद्दा ना बनायें, बल्कि साथ में राजनीतिक दलों और राजनेताओं की बातों एवं घोषणाओं में हवा, नदी, जंगल, मिट्टी भी झलके, ताकि पांच साल के बाद जब उनके दावों और कार्यों का विवरण सामने आये, तो फिर उनसे जल, जंगल, जमीन के संरक्षण का भी हिसाब-किताब ले सकें. हमने कभी इस तरह से मुद्दे खड़े ही करने की कोशिश नहीं की, इसलिए राजनीतिक दलों के ऊपर सारा दोष नहीं मढ़ा जा सकता है. इसके लिए हम ही दोषी हैं, यह स्वीकार किया जाना चाहिए.

हमने कभी पर्यावरण को वोटों के दृष्टिकोण से मुद्दे के रूप में खड़ा करने की कोशिश ही नहीं की और यही कारण है कि दलों के घोषणापत्रों में इससे जुड़े मुद्दे नहीं आये. अब जब तेजी से सब कुछ जा रहा हो और यह खबर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय भी बन चुकी हो और जंगल, नदी, मिट्टी आदि गायब हो रहे हैं, तो फिर इस देश के हर गांव का बड़ा मुद्दा इन्हीं पर केंद्रित होना चाहिए. एक बार अगर हम इन्हें मुद्दा बना लें, तो आशा की जा सकती है कि अगले पांच साल हम सुरक्षित पारिस्थितिकी के हकदार भी बनेंगे. साथ में, हम राजनीतिक दलों को उनके दायित्व के प्रति जवाबदेह भी बना पायेंगे, लोकतंत्र के लिए बुनियादी आयाम होता है.

अन्यथा राजनीतिक दलों का कोई दोष नहीं है क्योंकि चुनाव जिन मुद्दों पर लड़े जाते हैं, वे हमसे ही तय होते हैं. इसलिए अगर जान अपनी और आने वाली पीढ़ी की बचानी हैं, तो पर्यावरण को राजनीतिक मुद्दा बनाने से ना कतरायें. विकास व विनाश को अलग रखना है, तो पर्यावरण को प्राथमिक मुद्दा बनाना ही होगा, नहीं तो फिर पांच साल का लंबा इंतजार करना पड़ेगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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