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असंगठित कामगारों पर रहे ध्यान

मलिन बस्तियों की घुटन में फंसे और लॉकडाउन की बंदिशों से निकलने की कोशिश करते लाखों प्रवासियों कामगारों की स्थिति क्रांतियों की उत्प्रेरक हो सकती है, लेकिन इसकी ओर न तो मीडिया ने ध्यान दिया और न ही सरकार एवं राजनीतिक वर्ग ने. किसी और दौर में सामाजिक न्याय के योद्धा तथा वर्ग संघर्ष के पैरोकार इस माहौल में कूद पड़ते, लेकिन अब ऐसा नहीं होता. गांधी क्या, उन्होंने माओ को भी भुला दिया है.

By मोहन गुरुस्वामी | May 28, 2020 4:56 AM
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मोहन गुरुस्वामी

अर्थशास्त्री

mohanguru@gmail.com

मलिन बस्तियों की घुटन में फंसे और लॉकडाउन की बंदिशों से निकलने की कोशिश करते लाखों प्रवासियों कामगारों की स्थिति क्रांतियों की उत्प्रेरक हो सकती है, लेकिन इसकी ओर न तो मीडिया ने ध्यान दिया और न ही सरकार एवं राजनीतिक वर्ग ने. किसी और दौर में सामाजिक न्याय के योद्धा तथा वर्ग संघर्ष के पैरोकार इस माहौल में कूद पड़ते, लेकिन अब ऐसा नहीं होता.गांधी क्या, उन्होंने माओ को भी भुला दिया है.

कल्पना कीजिए, ऐसी स्थिति में कोई जयप्रकाश नारायण या राममनोहर लोहिया क्या करते? साल 2000 के शुरूमें मैं पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के साथ था, जो कम्यूनिस्ट पार्टीद्वारा आयोजित खेतिहर मजदूरों की एक रैली में शामिल होने के लिए खम्मम(तेलंगाना) आये थे. खम्मम कभी तेलंगाना के किसानों के सशस्त्र आंदोलन(1946-51) का केंद्र था. यह विद्रोह हैदराबाद के पूर्व शाही शासन के तहत सामंतों के विरुद्ध था. यह हैदराबाद के भारत में विलय के बाद भी चलता रहाथा तथा इसे सोवियत नेता स्तालिन की मौत के बाद ही वापस लिया गया. खम्मम1970 के दशक तक वामपंथी गढ़ बना रहा था.वह एक बड़ी रैली थी और लोग दोपहर के सूरज के नीच बेचारगी का भाव लियेबैठे थे, जो आज भी हमारे असंगठित क्षेत्र के कामगारों में देखा जा सकताहै. कम्यूनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव दिवंगत एबी बर्धन रैली के साथ हैदराबाद लौटते हुए मैंने उनसे पूछा कि उनकी पार्टी राष्ट्रीय स्तर परखेतिहर और असंगठित क्षेत्र के कामगारों को संगठित क्यों नहीं कर पा रहीहै.

उन्होंने स्पष्ट कहा कि उनकी पार्टी और सीपीएम के संगठन बनाने वाले कार्यकर्ता संगठित क्षेत्रों में ट्रेड यूनियन बनाने में अधिक दिलचस्पी लेते हैं क्योंकि यह करना आसान भी है और फायदेमंद भी. असंगठित क्षेत्र के कामगारों के बिना कामकाजी वर्ग कुछ नहीं है. साल 2019 में देश में करीब51 करोड़ कामगार थे, जिनमें से 94 फीसदी से ज्यादा खेतों, अनिगमित और असंगठित उद्यमों में कार्यरत थे. संगठित क्षेत्र में सरकारी, सरकारी उपक्रमों और निजी उपक्रमों के कामगार शामिल हैं. साल 2018 में संगठित क्षेत्र में करीब तीन करोड़ लोग कार्यरत थे, जिनमें से लगभग 2.30 करोड़ सरकार या सरकारी उद्यमों के कर्मचारी थे. बाकी 70 लाख उस संगठित हिस्सेमें थे, जहां ट्रेड यूनियनें मुख्य रूप से सक्रिय हैं.

यहीं सभी राजनीतिक दलों से संबद्ध मजदूर संगठन अपनी सदस्यता बढ़ाने और आकर्षक नियमित कमाई के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं. मजदूर संगठनों से जुड़े अधिकतर कामगार मध्य और उच्च मध्य वर्ग के हैं, लेकिन अपने घमंड में वे खुद को कामकाजी वर्ग नहीं मानते. हमारे यहां ‘कामकाजी वर्ग’ एक ऐसा सामाजिक-आर्थिक श्रेणी है, जिसे ऐसे लोगों को इंगित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है,जो ऐसे काम करते हैं, जिनमें कम वेतन मिलता है, सीमित कौशल की जरूरत होती है या शारीरिक श्रम करना पड़ता है. ऐसे कामों में शैक्षणिक योग्यता बहुत कम जरूरी होता है. अब भारत में पहले की तरह ऐसी स्थिति नहीं है कि ट्रेड यूनियन की आक्रामक सक्रियता, दबाव डाल कर मांगें मनवाना और एक नरम राज्यकी वजह से लोगों को जीवनभर काम और समुचित वेतन-भत्ता मिलने की गुंजाइश हो, और यह भी कि जहां संतान के रोजगार मिलने की गारंटी हो. ऐसी सुरक्षा के माहौल ने एक स्तर पर अनुशासन की कमी और कम उत्पादन की संस्कृति को पैदा किया है. इस वजह से संगठित क्षेत्र का श्रम आम तौर पर महंगा है और उसकी उत्पादकता कम है.

विडंबना यह है कि इससे ऑटोमेशन तथा ठेके पर कामकराने की व्यवस्था पर निर्भरता ही बढ़ती है. वैसे ‘कामकाजी वर्ग’ की सुरक्षा की इस आर्थिक वास्तविकता ने औद्योगिक विस्तार को कुंद किया है औरठेके पर उत्पादन को बढ़ावा दिया है. यहां तक कि इससे पूंजी का भी बाहरपलायन हुआ है. ट्रेड यूनियन बनाने में अधिक मुश्किल नहीं है. सत्तर कामगारों वाली फैक्टरी में सात लोग यूनियन बना सकते हैं. छोटे और मझोलेउद्यमों की बड़ी तादाद की एक वजह यह है कि रोजगार को इस संख्या से कम रखा जाए.असंगठित क्षेत्र के कामगारों में आधे से कुछ अधिक (लगभग 27 करोड़) खेतिहर मजदूर हैं और बाकी सेवाओं, निर्माण और छोटे कारखानों में कार्यरत हैं.भारतीय अर्थव्यवस्था पर निगरानी रखनेवाली प्रतिष्ठित संस्था सीएमआइई का आकलन है कि लॉकडाउन के बाद इनमें से 12.20 करोड़ का रोजगार छिन चुका है.इनमें 9.13 करोड़ छोटे कारोबारी और कामगार थे.

लेकिन बड़ी संख्या में नियमित आमदनी वाले लोगों का रोजगार भी चला गया है, जिनमें 1.78 करोड़ वेतन भोगी कामगार और 1.82 करोड़ स्व-रोजगार करनेवाले लोग हैं. गैर-कृषि कामों में लगे कामगारों में लगभग 10 करोड़ प्रवासी कामगार हैं. आकलनों केअनुसार, ये लोग हर साल दो लाख करोड़ रुपये के आसपास की कमाई अपने घरों कोभेजते हैं. लॉकडाउन ने इनकी मुसीबतों को उजागर किया है और इनकी आवाज उठाने वाला कोई नहीं है. विडंबना यह है कि ये प्रवासी ऐसे बाजार मेंकार्यरत हैं, जहां वेतन आपूर्ति और मांग के हिसाब से तय होती है. हमारे देश में, जहां हर साल 60 लाख से एक करोड़ लोग काम की तलाश से जुड़ते हैं,आपूर्ति की कोई समस्या नहीं है, इससे वेतन या मजदूरी का स्तर नीचे बनारहता है.

अपनी जरूरत पूरी करने के बाद जो इनके पास बचता है, वे उसे अपने परिवार को भेजते हैं. उनके पास यूनियन बनानेवालों के लिए बमुश्किल कुछ बचपाता है. सो, बर्धन शायद सही ही कह रहे थे.इनमें से ज्यादातर कामगार मजदूर ठेकेदारों पर निर्भर होते हैं, जिन्हें मजदूरों में से चुनने का अधिकार होता है. इन ठेकेदारों से गांव में लिये कर्ज की वजह से भी कई मजदूर बंधे रहते हैं. ऐसे में आश्चर्य की बात नहीं है कि कोई भी राजनीतिक दल उनकी ओर से नहीं खड़ा हुआ, जब लॉकडाउन की मुसीबतों का कहर टूटा. यहां तक कि मीडिया को भी अपने कैमरे का रुख कामगारों की ओर करने में समय लगा, जो लाखों की संख्या में अपने घरों की लंबी दूरी तय कर रहे थे. हाल के दिनों में कुछ राज्यों ने श्रम कानूनों के उन प्रावधानों को निरस्त कर दिया और कई तरह के बुनियादों अधिकारों सेकामगारों को वंचित कर दिया गया है. प्रवासी कामगारों की परेशानियां बढ़ती ही जायेंगी, अगर उनकी रक्षा के लिए कानून नहीं होंगे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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